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Comparative study of casteism and communalism
जातिवाद व सांप्रदायिकता का तुलनात्मक अध्ययन, उनके फायदे-नुकसान, उनकी भारतीय राजनीति में भूमिका आदि व्यापक चर्चा व बहस के विषय रहे हैं। मैंने इस पुराने विषय को “सेक्युलर पर्सपेक्टिव“ (Secular perspective) के इस अंक के लिए इसलिए चुना क्योंकि पिछले दिनों, इंटरनेट पर एक जोरदार बहस छिड़ी थी। बहस का विषय था- यह तथ्य कि नरेन्द्र मोदी के खिलाफ बोलने वाले गुजरात के सभी पुलिस अधिकारी उच्च जातियों के हिन्दू हैं। उनमें से कोई भी दलित या ओ.बी.सी. नहीं है। क्या इसका यह अर्थ है कि, सामान्य सोच के विपरीत, उच्च जातियों के हिन्दू, मुस्लिम-विरोधी नहीं हैं?
Opportunism is important in politics, not principled
अब तक यह माना जाता रहा है कि मुसलमानों, दलितों व अन्य कमजोर वर्गों को संयुक्त मोर्चा बनाकर सांप्रदायिकता के विरूद्ध संघर्ष करना चाहिए। इस तरह का संयुक्त मोर्चा बनानेे के प्रयास भी हुए हैं। परंतु केवल इसे सांप्रदायिकता की समस्या का रामबाण हल मान लेना भूल होगी। हमें यह याद रखना चाहिए कि राजनीति में अवसरवादिता महत्वपूर्ण होती है, सिद्धांतवादिता नहीं। स्वार्थ महत्वपूर्ण होते हैं, राजनैतिक विचारधारा नहीं।
यह मानना अनुचित होगा कि उच्च जातियों के सभी हिन्दू, मुस्लिम-विरोधी होते हैं। दलितों का अतिवादी तबका यह मानता हैं कि सभी ब्राह्मण, मुसलमानों के विरोधी हैं और हिन्दू राष्ट्र स्थापित करना चाहते हैं। हो सकता है कुछ ब्राह्मण ऐसे हों भी परंतु सभी ब्राह्मणों को मुस्लिम-विरोधी व हिन्दू राष्ट्र का समर्थक मानना भारी भूल होगी। अनेक ब्राह्मण राजनेता व अधिकारी, धर्मनिरपेक्ष हैं और मुसलमानों की हालत के प्रति संवेदनशील हैं।
दूसरी तरफ, कई दलित व ओ.बी.सी. राजनीतिज्ञ ऐसे हैं जो अपने क्षुद्र स्वार्थो की खातिर, सांप्रदायिक ताकतों से हाथ मिलाने में जरा भी नहीं हिचकिचाते। अंबेडकर की विचारधारा से अपना पल्ला झाड़ने में उन्हें जरा सी भी देर नहीं लगती। इसका ताजा उदाहरण हैं महाराष्ट्र के जानेमाने दलित नेता रामदास अठावले। उन्होंने षिवसेना की सदस्यता ले ली है व वे सेना के मंच से रैलियाँ संबोधित कर रहे हैं। कल तक वे सभी सांप्रदायिक ताकतों से लड़ने की हुंकार भरते थे। परंतु षरद पवार की एन.सी.पी. ने उन्हें सत्ता में “उचित हिस्सा“ नहीं दिया इसलिए वे षिवसेना में चले गए और वहाँ उन्हें उनका नया मसीहा भी मिल गया।
इस तरह, अगर मुसलमान यह मान कर चलेंगे कि सभी दलित नेता उनके दोस्त हैं और सभी उच्च जाति के हिन्दू उनके दुश्मन, तो वे बहुत पछताएंगे। सभी दलित पार्टियों के कई गुट हैं और एक न एक गुट, सांप्रदायिक दलों से हाथ मिलाए रहता है। उत्तर भारत में दलितों की मसीहा मानी जाने वाली मायावती भी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनने के लिए दो बार भाजपा से गठबंधन कर चुकी हैं।
Even leaders like Ram Manohar Lohia and George Fernandes joined hands with the BJP due to their hatred for the Congress.
प्रजातंत्र में अलग-अलग दलों के गठबंधन बनाने में कुछ भी गलत नहीं है परंतु किसी ऐसे दल के साथ गठबंधन करना, जो हिन्दू राष्ट्र का पैरोकार और धर्मनिरपेक्ष-बहुवादी भारत का विरोधी हो, न केवल धर्मनिरपेक्षता के साथ विश्वासघात (Betrayal of secularism) है वरन् हमारे संविधान-जिसका आधार धर्मनिरपेक्षता है, के विरूद्ध भी है। हमारे देश में तो धर्मनिरपेक्ष पार्टियाँ भी सांप्रदायिक दलों से गठबंधन करती रही हैं।
राम मनोहर लोहिया और जार्ज फर्नान्डिस जैसे नेताओं तक ने, कांग्रेस के प्रति अपनी घृणा के चलते, भाजपा से हाथ मिला लिया था।
भारत एक विशाल देश है। यह दुनिया के सबसे बड़े धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्रों में से एक है। हमारे देश की समस्याएं अत्यंत जटिल हैं व क्षेत्रीय राजनैतिक ताकतें, देश में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। अक्सर क्षेत्रीय पार्टियाँ एक साथ मिलकर कांग्रेस को चुनौती देती हैं। कांग्रेस एकमात्र ऐसी पार्टी है जिसका प्रभाव देश के हर क्षेत्र में है। परंतु भाजपा जैसे दलों, जो हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते हैं और अल्पसंख्यकों के विरोधी हैं, के साथ जुड़ना उचित नहीं कहा जा सकता।
भाजपा भी राष्ट्रीय पार्टी के रूप में उभरने की कोशिश कर रही है और यह क्षेत्रीय दलों के हित में नहीं है। क्षेत्रीय व दलित पार्टियाँ इसलिए भाजपा से जुड़ना अधिक पसंद करती हैं क्योंकि कांग्रेस की तुलना में कमजोर होने के कारण, भाजपा उनके साथ अपेक्षाकृत उदार शर्तों पर गठबंधन करने के लिए राजी हो जाती है।
जातिवाद और सांप्रदायिकता-दोनों ही देश को कमजोर करती हैं। राजनेता अपने हितार्थ इन दोनों विघटनकारी तत्वों को जीवित रखे हुए हैं।
जातिवाद व सांप्रदायिकता को मिटाने की बजाय राजनीतिज्ञ इन घातक प्रवृत्तियों का पोषण कर रहे हैं।
सच्ची धर्मनिरपेक्ष राजनीति में जन्म-आधारित पहचानों का कोई महत्व नहीं होना चाहिए। इन पहचानों का स्थान समानता, न्याय व गरिमा जैसे मूल्यों को ले लेना चाहिए। आज हमारे चुनाव पूरी तरह जन्म-आधारित पहचानों पर आधारित हैं। मुद्दों व मूल्यों के लिए उनमें जगह ही नहीं है। यदा-कदा ही चुनाव मुद्दों पर लड़े जाते हैं और तब भी मुद्दों की भूमिका नगण्य ही होती है।
चुनावी राजनीति में संकीर्ण पहचानों का महत्व और भूमिका बढ़ती ही जा रही है।
इन दिनों देश में भ्रष्टाचार के विरूद्ध आंदोलन चल रहा है। ऐसा दावा किया जा रहा है कि इस आंदोलन के पीछे नागरिक समाज है। यह बहस का विषय है कि नागरिक समाज स्वतंत्र रूप से काम कर रहा है या किसी राजनैतिक दल के छुपे हुए एजेन्डे को लागू कर रहा है। मुझे ऐसा लगता है कि सांप्रदायिकता व जातिवाद के खिलाफ लड़ाई भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी कि भ्रष्टाचार के खिलाफ।
Corruption, communalism and casteism - all three are enemies of the people of India.
भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता व जातिवाद- तीनों ही भारत की जनता के शत्रु हैं ओर देश की एकता व अखंडता को कमजोर करते हैं। चूंकि कुछ राजनैतिक दलों को केवल भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चलाने में अपना फायदा नजर आ रहा है इसलिए वे सिर्फ भ्रष्टाचार पर जोर दे रहे हैं और सांप्रदायिकता व जातिवाद को नजरअंदाज कर रहे हैं। आज जरूरत इन तीनों बुराईयों के विरूद्ध संयुक्त आंदोलन चलाने की है। इससे सांप्रदायिक तत्वों की कलई खुलेगी और हमारा देश मजबूत बनेगा।
भारत की राजनैतिक स्थिति कुछ ऐसी है कि जातिवाद से साम्प्रदायिकता उभरती है। पूर्व प्रधानमंत्री व्ही.पी. सिंह ने ज्यों ही मंडल आयोग की रपट लागू की, भाजपा को ऐसा लगने लगा कि ओ.बी.सी. वोट उसके हाथ से खिसक जाएगा। इसे रोकने के लिए उसने राममंदिर आंदोलन को तेज कर दिया। आडवाणी ने रथयात्रा निकाली, बाबरी मस्जिद ढहाई गई और देश भर में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे।
बाबरी मस्जिद-राम मंदिर मुद्दे ने हिन्दुओं और मुसलमानों को साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकृत कर दिया और दोनों समुदायों के बीच बैरभाव को बढ़ाया। अंततः इसी मुद्दे को आधार बनाकर, सन् 1999 में भाजपा केन्द्र में सत्ता में आ गई। साम्प्रदायिक ताकतें, उच्च जाति के हिन्दुओं का वर्चस्व कायम करना चाहती हैं परंतु जातिवाद और साम्प्रदायिकता के चलते वे ऐसा नहीं कर पा रही हैं। ये ताकतें अत्यंत कुटिलता से नीची जातियों के हिन्दुओं को भड़काकर, मुसलमानों के विरूद्ध हिंसा करवा रही हैं।
साम्प्रदायिक ताकतों को यह अच्छी तरह पता है कि नीची जातियां और अल्पसंख्यक, उच्च जातियों की प्रभुता स्थापित करने की राह में रोड़ा हैं व इसलिए वे इन दोनों को एक नहीं होने देना चाहतीं। महाराष्ट्र में शिवसेना ने नारा दिया है कि शिवशक्ति और भीमशक्ति को एक साथ मिलकर कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन सरकार को उखाड़ फेंकना चाहिए और इसी सिलसिले में दलित नेता रामदास अठावले को शिवसेना में स्थान दिया गया है।
आमजन भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन को तो जमकर समर्थन देते हैं परंतु जातिवाद व साम्प्रदायिकता के विरूद्ध लड़ाई के प्रति उदासीन बने रहते हैं। केवल कुछ गैर-सरकारी संगठनों को यह संघर्ष करना पड़ रहा है।
सच तो यह है कि जातिवाद और साम्प्रदायिकता, राजनैतिक भ्रष्टाचार का सबसे विकृत स्वरूप हैं और आर्थिक भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को पटरी से उतारने के लिए पहचान-आधारित राजनीति को हवा देना काफी होगा।
यह सही है कि आज आम आदमी भी जागृत और चौकन्ना है और उसे अपने जाल में फंसाना किसी के लिए भी बहुत आसान नहीं है परंतु पहचान से जुड़े किसी अत्यंत भावनात्मक मुद्दे को उठाकर, आर्थिक भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रही लड़ाई को कमजोर किया जा सकता है। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के असली इरादे स्पष्ट नहीं हैं। उनके एजेन्डा को प्रत्यक्ष या परोक्ष तरीके से साम्प्रदायिक ताकतें ही तय कर रही हैं। रामदेव के मामले में यह खुलेआम हो रहा है और अन्ना के मामले में पर्दे के पीछे से।
कोई भी प्रजातांत्रिक समाज भ्रष्टाचार से पूर्णतः मुक्त नहीं हो सकता परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि सरकार अपने मूल कर्तव्यों को ही पूरा न करे और केवल पैसा बनाने की जुगत में लगी रहे। भारतीय प्रजातंत्र में पांच वर्ष के अंतराल से होने वाले चुनावों के अतिरिक्त कुछ भी प्रजातांत्रिक नहीं बचा है। भ्रष्टाचार दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ रहा है और देश को सुशासन देने की किसी को फिक्र नहीं है।
अगर हमें अपने प्रजातंत्र की रक्षा करनी है तो हम सब आमजनों को भ्रष्टाचार, जातिवाद और साम्प्रदायिकता से लड़ने के लिए आगे आना होगा। हमारे देश की आर्थिक प्रगति तो बहुत तेजी से हो रही है परंतु लगभग सभी मानव विकास सूचकांकों के पैमाने पर हम आज भी बहुत नीचे हैं। दूसरी ओर भ्रष्टाचार के इंडेक्स पर हम अधिकतर विकासशील देशों से आगे हैं।
गरीबों और अमीरों के बीच की गहरी खाई का एक बड़ा कारण भ्रष्टाचार है। हमारे देश के करोड़ों लोगों को ऐसी जगह रहना पड़ रहा है जो मवेशियों के रहने के काबिल भी नहीं है। बड़े शहरों में रहने वाले अल्पसंख्यकों और दलितों का जीवन नारकीय है।
दलितों और अल्पसंख्यकों को यह सुनिश्चित करना होगा कि उनके नेता केवल सत्ता की राजनीति न करें। मुस्लिम और दलित नेता कुर्सी के पीछे भागते रहते हैं और अपने समुदाय के हित के लिए कुछ नहीं करते। वे अन्य समुदायों के नेताओं से कम भ्रष्ट नहीं हैं। हां, बाबासाहेब अम्बेडकर और मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे कुछ नेता इसका अपवाद थे। मुसलमानों और दलितों को ऐसे नेताओं को एक दिन के लिए भी बर्दाश्त नहीं करना चाहिए।
अम्बेडकर और अबुल कलाम आजाद कभी सत्ता के पीछे नहीं दौड़े। उन्होंने अपने समुदायों के सशक्तीकरण के लिए त्याग और बलिदान किया। आज के दलित और मुस्लिम नेता केवल खुद का सशक्तीकरण करने में व्यस्त हैं। कांग्रेस और भाजपा के नेता, दलितों और मुसलमानों की भलाई के लिए केवल प्रतीकात्मक कदम उठा रहे हैं। यही कारण है कि स्वतंत्रता के 64 साल बाद भी दलित और मुसलमान वहीं के वहीं हैं।
डॉ. असगर अली इंजीनियर