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यह ख़बर मूलतः अक्टूबर 2010 में लिखी गई थी और इसमें बताया गया था कि किस तरह वंशवादी राजनीति (Dynastic politics) सभी दलों की बीमारी बन गई है। 2009 के लोकसभा चुनाव (2009 Lok Sabha elections) के बाद 2019 के लोकसभा चुनाव (2019 Lok Sabha Elections) तक दस वर्ष का समय व्यतीत हो चुका है, लेकिन राजनीति में वंशवाद (Dynasty in politics) की बीमारी कम होने के स्थान पर बढ़ी ही है। ख़बर पुरानी है पर प्रासंगिक है -
वंश परंपरा के लिए कांग्रेस को पानी पी.पी कर कोसने वाली और मराठी अस्मिता की बात करने वाली शिवसेना में भी वंश परंपरा का निर्वाह करते हुए ठाकरे खानदान की चौथी पीढ़ी का भी राज्याभिषेक हो ही गया। शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने दशहरे के मौके पर अपने पौत्र आदित्य ठाकरे को सियासत की तलवार थमा दी। यदि कहा जाए कि यह तलवार एक अपरिपक्व नाबालिग शिवसैनिक के हाथों में थमाई गई है जिसे राजनीति का अ ब स भी नहीं पता तो अतिश्योक्ति नहीं होगा। हालांकि जैसा कि हर वंशवादी दल में परंपरा होती है कि नए युवराज में सारी खूबियाँ बताई जाने लगती हैं, उसी अंदाज'' में शिव सैनिक भी हुंआ-हुंआ करते हुए समूहगान गाने लगे हैं, कि बाला साहेब बाल ठाकरे ने उचित कदम उठाया है।
हालांकि समझा जा सकता है कि बाल ठाकरे ने यह कदम बहुत सोच समझकर और बहुत मजबूरी में उठाया है और आदित्य ठाकरे पर बहुत बड़ा दांव खेला है। ऐसा दांव जो अगर फेल हो गया तो शिवसेना का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।
दरअसल बाल ठाकरे के सर्वाधिक प्रिय सुपुत्र उद्धव ठाकरे एक फुंका हुआ कारतूस साबित हुए हैं और उनके साम्राज्य को उनके ही भतीजे राज ठाकरे से जबर्दस्त चुनौती मिल रही है। उधर कुल वधु स्मिता ठाकरे भी बागी हो चुकी हैं और वह अपना और अपने बेटे का भविष्य कांग्रेस में तलाशने के लिए सोनिया गांधी की चौखट पर नतमस्तक हो रही हैं। ऐसे में बाला साहेब को लगता है कि आदित्य ठाकरे का ताज़ा खून, राज के मुकाबले ज्यादा आक्रामक साबित होगा और उनकी नैया पार लगा देगा।
अब सवाल यह उठता है कि क्या आदित्य पूरी तरह परिपक्व हैं? कहीं बाल ठाकरे ने कोई जल्दबाजी तो नहीं कर दी, ये सवाल काफी अहम हैं। खास तौर से उन लोगों के लिए जो आंखें मूंदकर शिवसेना का पल्लू पकड़े हुए हैं। ऐसे नाजुक दौर में जब मुंबई में शिवसेना के विरोधी दल मजबूती से आगे बढ़ रहे हैं। ऐसे में युवा इकाई की कमान 20 साल के आदित्य को थमाना कहीं गलत फैसला तो नहीं हो गया? वह भी ऐसे समय में जब हर दल में युवा नेतृत्व के नाम पर तमाम युवराज टहल रहे हैं। कांग्रेस की युवा इकाई का नेतृत्व कर रहे राहुल गांधी कुल जमा 40 के नौजवान हैं और राजतिलक न हो जाने तक कुंवारा रहने की कसम खाए हुए लगते हैं।
समाजवादी पार्टी के 'युवराज अखिलेश यादव 37 बरस और भाजपा के युवराज वरुण गांधी 30 साल के हैं, जो युवा इकाईयों को संभाल रहे हैं। अब इन महाबलियों के आगे आदित्य कहां तक टिक पाएंगे, यह बड़ा प्रश्न है। अनुभव की बात करें तो मात्र मुंबई के शिवाजी पार्क में चेहरा दिखा देने से राजनीति नहीं आ जाती है।
राजनीति का पाठ पढ़ने में लोगों को कई कई साल लग जाते हैं। लेकिन कहावत है कि पहलवान का बेटा पहलवानी नहीं भी करेगा तो लंगोट तो पहनेगा ही। इसलिए आदित्य सफल हों या विफल शिवसेना का झण्डा तो कुछ दिन ढोएंगे ही। हाँ अब महाराष्ट्र में रह रहे परप्रांतियों को और अधिक जुल्म सहने के लिए खुद को तैयार करना होगा, क्योंकि राज और आदित्य के मुकाबले में बलि का बकरा यही परप्रांतीय बनेंगे।
आदित्य के बहाने लगभग 12 साल पहले की एक बात याद आ गई। पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी, कांग्रेस से बुरी तरह बेइज्जत करके साइडलाइन किए जाने के बाद दिल्ली के अपने 7 पुराना किला रोड स्थित आवास पर लगभग अज्ञातवास काट रहे थे और उनके पुराने विश्वासपात्र अहमद पटेल और लालू प्रसाद यादव सरीखे लोग भी उनसे मिलने से कतराने लगे थे। ऐसे में मेरी उनसे लम्बी वार्ता हुआ करती थी क्योंकि चचा भी फ्री थे और मुझे भी ज्यादा काम नहीं था। चचा उस दिन बहुत रोष में थे और कुछ बुदबुदा रहे थे। फिर अचानक मुझसे बोले तुम भाजपा को फासिस्ट जमात कहते हो न! उसमें बहुत लोकतंत्र है लेकिन कांग्रेस तो पूरी फासिस्ट हो चुकी है, क्या उम्मीद कर सकते हो कि कोई नेहरू-गांधी खानदान से बाहर का आदमी कांग्रेस पर राज कर पाएगा? लेकिन भाजपा में सब अपने दम पर राजनीति में आए हैं और कोई भी अपने बाप दादों के बल पर राजनीति में नहीं आया है। कांग्रेस एक मरता हुआ संस्थान है।
बात पुरानी है लेकिन चचा केसरी आज जिन्दा होते तो उन्हें अपने बुढ़ापे की आखरी धारणा भी बदलनी पड़ती क्योंकि अब भाजपा और उसके सहोदर दलों में भी लोग अपने बाप दादों के दम पर राजनीति में आ रहे हैं और आम कार्यकर्ता साइडलाइन किए जा रहे हैं।
जब इंदिरा गांधी को नेहरू राजघराने की बागडोर सोंपी गई थी तो वह आजाद भारत की रजिया सुल्तान बनी थीं और उस समय उनकी ताजपोशी पर सबसे ज्यादा शोर मचाने वाले समाजवादी और दक्षिणपंथी लोग ही थे और कई दशक तक इनका मुद्दा ही राजतंत्र बनाम लोकतंत्र था।
आश्चर्य है कि नेहरू गांधी खानदान को पानी पी पीकर कोसने वाले समाजवादी और संघी सभी अब अपने युवराजों का तिलक करने पर समान श्रद्धा भाव से जुटे हुए हैं। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में तब्दील हो ही चुकी है। वहां उनके भाई रामगोपाल यादव दिल्ली की दुकानदारी संभालते हैं, एक भाई शिवपाल सिंह यादव लखनऊ की जमींदारी संभालते हैं और पुत्र अखिलेश का राजतिलक हो ही चुका है, वह पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई के अध्यक्ष हैं और एक भतीजे धर्मेन्द्र यादव भी सांसद हैं।
जब अखिलेश यादव का राजतिलक हुआ तो मुलायम सिंह ने सफाई दी कि उनके बेटे संघर्ष से निकल कर आए हैं। चौधरी चरण सिंह और ताऊ देवीलाल ताउम्र डॉ लोहिया का नारा देते रहे कि लोकतंत्र में रानी और मेहतरानी का वोट एक बराबर होता है। लेकिन नारा देते-देते चुपके से अपनी रानियों की संतानों को राजगद्दी सौंपते रहे और मेहतरानी के बच्चों को सिर्फ वोट डालने का हक रह गया।
चौधरी साहब के बेटे अजीत सिंह अब उनके राजतंत्र को बेटे जयंत के जरिए आगे बढ़ा रहे हैं। हरियाणा में ताऊ देवीलाल का राजतंत्र खूब फल फूल रहा है तो उनके विरोधी भजनलाल का राजतंत्र भी तरक्की कर रहा है।
संजय गांधी की फौज के कमांडर रहे बंसीलाल का भी राजतंत्र सही तरक्की कर रहा है। उनकी पुत्रवधु किरण चौधरी हरियाणा की राजनीति में हैं तो पौत्री श्रुति चौधारी सांसद हैं।
इसी तरह मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के राजतंत्र की भी पांचवी पीढ़ी दीपेन्द्र सिंह हुड्डा का भी राजतिलक हो चुका है।
पड़ोसी पंजाब में भी मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल का राजतंत्र खूब फल फूल रहा है, बेटा उपमुख्यमंत्री, पुत्रवधु सांसद, भतीजा राज्य सरकार में मंत्री ( जिसे अभी बर्खास्त कर दिया गया राजतंत्र के घरेलू झगड़े में।) ऐसे में भला बादल के विरोधी राजा पटियाला भला कैसे पीछे रहें। सो कैप्टन अमरिन्दर सिंह का भी राजतंत्र प्रगति की राह पर है, उनकी पत्नी परनीत कौर विदेश राज्य मंत्री हैं।
उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी मुखिया मायावती के स्वयं के परिजन तो राजनीति में सीधे दाखिल नहीं हैं लेकिन उनके दल के तमाम बड़े मैनेजर अपने सगे संबंधियों को काबिज करा रहे हैं।
रामवीर उपाध्याय स्वयं मंत्री हैं, उनकी पत्नी सांसद हैं, एक भाई एमएलसी हैं, एक भाई विधानसभा चुनाव हार गए एक भाई ब्लॉक प्रमुख हैं; यानी सारी सरकार उपाध्याय जी के घर में ही है।
पन्द्रहवीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव में तो यह राजतंत्र पूरी बेशर्मी के साथ सामने आया जब, चाहे कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी हों या स्वयंभू पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी, सभी ने कार्यकर्ताओं को निराश किया और अपने चुनाव प्रचार की बागडोर भी अपने परिजनों को ही सौंपी।
''राजनीति और विरोध की कविता'' के कवि रघुवीर सहाय ने कहा था-
''दल का दल पाप छिपा रखने के लिए एकजुट होना/ जितना बड़ा दल होगा, उतना ही खाएगा देश को।''
अगर रघुवीर सहाय आज होते, तो उन्हें संशोधन करके दल के स्थान पर 'घर' कहना पड़ता।
पंद्रहवीं लोकसभा के लिए संपन्न हुए चुनाव में सभी दलों ने अपने कार्यकर्ताओं को दरकिनार कर न केवल सारे टिकट घर में ही बांट लिए, बल्कि कार्यकर्ताओं से चुनाव प्रचार का अधिकार भी छीन लिया। फिर इस मामले में चाहे कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी हों या स्वयंभू पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी, सभी ने कार्यकर्ताओं को निराश किया और अपने चुनाव प्रचार की बागडोर भी अपने परिजनों को ही सौंपी।
रायबरेली में यूं तो चुनाव, कांग्रेस अघ्यक्षा सोनिया गांधी और अमेठी में उनके पुत्र राहुल गांधी लड़ रहे थे, लेकिन सारे देश में कांग्रेस का संगठन मजबूत होने का दावा करने वाली पार्टी ने प्रचार की कमान किसी कार्यकर्ता को देने से परहेज किया और दोनों जगह पर प्रचार की कमान सोनिया की पुत्री प्रियंका गांधी के हाथ रही।
मामला जब कांग्रेस का हो तो उसकी प्रमुख प्रतिद्वंदी पार्टी भाजपा भला कहां पीछे रहने वाली है।
'मजबूत नेतृत्व/ निर्णायक सरकार' का नारा देने वाली भाजपा ने भी गांधीनगर सीट पर किसी कार्यकर्ता को प्रचार की जिम्मेदारी नहीं सौंपी। वहां सारी कमान अडवाणी की पुत्री प्रतिभा अडवाणी और पत्नी कमला अडवाणी ने संभाली।
आग उगलकर रातों रात सुपर स्टार बने वरुण गांधी भी इस मामले में अपनी ताई से होड़ करते नजर आए। पीलीभीत में वरुण के चुनाव की सारी कमान उनकी मां मेनका के हाथ रही, जबकि आंवला में अपनी मां को जिताने के लिए वरुण 'मां के आंसुओं' का हिसाब लगवाते नजर आए।
कभी इंदिरा गांधी को वंशवाद के लिए कोसने वाले, चौधरी देवीलाल के वंशज भी इंदिरा के नक्शे कदम पर चलते नजर आए। सोनीपत में पुत्र अजय चौटाला के चुनाव प्रचार की कमान ओमप्रकाश चौटाला ने खुद संभाल रखी थी। इसी तरह अजय चौटाला को चुनौती दे रही स्व. बंसीलाल की पौत्री श्रुति चौधरी के चुनाव प्रचार की कमान उनकी मां और हरियाणा की तत्कालीन पर्यटन मंत्री किरन चौधरी ने संभाल रखी थी। हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा भी पुत्र दीपेंद्र सिंह हुड्डा के लिए जी जान से लगे थे।
पंजाब में भी कुछ ऐसा ही नजारा रहा। अपनी पुत्रवधु के चुनाव की कमान स्वयं मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने संभाल रखी थी और जब वह कहीं बाहर होते तो उनके पुत्र सुखबीर सिंह बादल के हाथ में कमान होती।
पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भी अपने पुत्र के चुनाव की कमान स्वयं ही संभाले थे।
समंदर किनारे के राज्यों में भी परिवार ही प्रचार पर हावी थे, फिर चाहे वह आंध्र हो या तमिलनाडु।
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि के पुत्र स्टालिन पूरे प्रदेश में पार्टी के लिए प्रचार का जिम्मा संभाल रहे थे। जबकि पूर्व केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री अंबुमणि रामदौस के चुनाव में प्रतिष्ठा उनके पिता एस. रामदौस की लगी हुई थी।
आंध्र प्रदेश में यूं तो चंद्रबाबू नायडू स्वयं स्टार प्रचारक हैं, लेकिन इस बार प्रचार की मुख्य कमान एन.टी. रामाराव के पौत्र जूनियर एनटीआर के हाथ में थी और लोग उनमें रामाराव का अक्स देख रहे थे।
पश्चिम में मराठा क्षत्रप शरद पवार की इज्जत अपनी सीट पर तो लगी ही थी, वह बेटी सुप्रिया सुले के चुनाव के भी मुख्य कर्ता धर्ता थे। देश की राजधानी दिल्ली में भी परिवारों की हवा रही।
मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के पुत्र संदीप दीक्षित वैसे तो दूसरी बार चुनाव लड़ रहे थे, लेकिन उनके प्रचार की सारी कमान शीला के हाथ में ही थी। यह बात दीगर है कि तनाव में शीला यह भी भूल जाती थीं कि उनके पुत्र का नाम क्या है और वह चुनाव भी लड़ रहे हैं।
एक पत्रकार के जूते के चलते टिकट से महरूम हुए पूर्व सांसद सज्जन कुमार ने भी अपने भाई रमेश कुमार के प्रचार की कमान स्वयं ही संभाली हुई थी।
दिल्ली से लगी हुई गाजियाबाद सीट पर हालांकि भाजपा अधयक्ष, राजनाथ सिंह, स्वयं उम्मीदवार थे और बाहरी नेताओं की फौज के बावजूद उनके प्रचार की कमान उनके पुत्र, पंकज, के हाथ में थी। पंकज का सहयोग करने के लिए राजनाथ के दूसरे पुत्र, नीरज और राजनाथ की पत्नी, सावित्री सिंह, भी थीं और अमरीका से उनकी बेटी भी प्रचार करने आ गई थीं। लेकिन, हाय अफसोस! कार्यकर्ताओं पर भरोसा राजनाथ ने भी नहीं जताया। यहां तक कि झंडा और पोस्टर लगाने का ठेका भी, बताते हैं, एक एड एजेंसी को दिया गया।
अगर राजनाथ सिंह अपने चुनाव की बागडोर अपने पुत्रों और पुत्री को सौंप सकते हैं, तो भाजपा के उत्तर प्रदेश इकाई के तत्कालीन अध्यक्ष, रमापतिराम त्रिपाठी भला क्यों पीछे रह जाएं?
खलीलाबाद में रमापतिराम के बेटे शरद त्रिपाठी उम्मीदवार थे और वहां प्रतिष्ठा रमापति की दांव पर लगी थी, सो वहां प्रचार की सारी कमान पिताश्री के हाथ थी।
रमापतिराम अगर अपने पुत्र के चुनाव की बागडोर संभाल सकते हैं, तो उनके धुर विरोधी और भाजपा का उत्तर प्रदेश में इकलौता पिछड़ा चेहरा, ओमप्रकाश सिंह क्या ऐसे ही पिछड़ जाते? मिर्जापुर में पुत्र, अनुराग सिंह, के प्रचार की कमान पूरी मुस्तैदी के साथ ओमप्रकाश सिंह ने संभाल रखी थी।
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती का वैसे अपना तो परिवार नहीं है, लेकिन वह मदर टेरेसा की तरह मां का दिल रखने का दावा करती हैं। इसलिए उन्होंने बेटों को दिल खोलकर टिकट भी दिए और पिताओं के हाथ में प्रचार की कमान भी। सबसे ज्यादा परेशान पूर्वांचल के माफिया सम्राट हरिशंकर तिवारी थे। उनके बूढ़े कंधों पर तीन- तीन सीटों की जिम्मेदारी थी। उनके एक बेटे, भीष्मशंकर तिवारी, खलीलाबाद से बसपा प्रत्याशी थे तो दूसरे बेटे, विनयशंकर तिवारी, गोरखपुर से बसपा की नैया के खिवैया थे। तिवारी जी को केवल इन दो बेटों की ही चिंता नहीं थी, बल्कि उनके भांजे, गणेशशंकर पांडेय, भी महराजगंज में हाथी पर सवार थे।
अब खलीलाबाद, गोरखपुर और महराजगंज तीनों जगह हाथी के महावत हरिशंकर तिवारी ही थे।
वाराणसी में माफिया सरगना मुख्तार अंसारी, हाथी पर सवार थे और यहां उनका सारा चुनाव प्रबंधान बड़े भाई अफजाल अंसारी के हाथ था।
मधुमिता शुक्ला हत्याकांड के सजायाफ्ता मुजरिम अमरमणि त्रिपाठी के भाई अजीतमणि त्रिपाठी महराजगंज में साइकिल पर चढ़कर भाई की खड़ाऊं उठा रहे थे। अब अमरमणि तो जेल में थे, इसलिए उनकी इज्जत की दुहाई, बेटा अमन मणि देता फिर रहा था और पापा के नाम पर चाचा के लिए वोट मांग रहा था।
पूर्वी उत्तर प्रदेश में सुल्तानपुर से कांग्रेस प्रत्याशी डॉ. संजय सिंह की कथा भी कुछ अलग नहीं थी। उनके प्रचार की सारी बागडोर कभी अमिता मोदी नाम की बैडमिंटन खिलाड़ी से अमेठी की रानी बनीं उनकी पत्नी और विधायिका अमिता सिंह के हाथ में थी।
संगम के तट इलाहाबाद पर भी परिवारों की जंग कमाल की थी। सपा के प्रत्याशी कुंवर रेवतीरमण सिंह के चुनाव की कमान उनके पूर्वमंत्री- पुत्र उज्जवलरमण सिंह के हाथ में थी। तो कुंवर साहब के विरोधी, बसपा प्रत्याशी अशोक वाजपेयी के प्रचार की कमान उनके पुत्र हर्षवर्धन वाजपेयी के हाथ में थी।
देवरिया में भी बसपा विधायक रामप्रसाद जायसवाल अपने पिता गोरखप्रसाद के चुनाव की बागडोर संभाले हुए थे।
अगर बात परिवारों को कमान की चले, तो भला डॉ. लोहिया के पूंजीवादी, आधुनिकतम समाजवादी चेले क्या किसी से कम हैं! समाजवादी पार्टी तो नेता पुत्रों के कूड़ेदान में तब्दील हो ही गई है। जिस किसी भी नेतापुत्र को कहीं जगह नहीं, उसके सहारा नेता जी। फिर चाहे वह नीरज शेखर हों या राजवीर।
कन्नौज और फिरोजाबाद में मुलायम सिंह के पुत्र अखिलेश यादव मैदान में थे और उनके चुनाव की कमान चाचा, शिवपाल के हाथ में थी। मैनपुरी में जहां मुलायम सिंह स्वयं मैदान में थे, वहां भी प्रचार की सारी कमान उनके भाई, शिवपाल के हाथ में थी। लेकिन इस मामले में मुलायम के भतीजे, धार्मेंद्र थोड़े बदनसीब रहे, कि उन्हें अपने घर का कोई सारथी नहीं मिला और सपा ने, बदायूं में, उनके चुनाव की कमान अपने मैनेजरों उमाशंकर चौधारी और अरविंद सिंह को सौंप दी।
कभी मुलायम सिंह के गनर रहे, सांसद एसपी सिंह बघेल भी अपने पूर्व नेता से इस मामले में होड़ में पीछे नहीं रहे। बघेल के चुनाव की बागडोर उनकी पत्नी, मधु बघेल के हाथ में रही।
एटा में उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह मैदान में थे। बताते हैं, कि उनके पैर में चुनाव के ऐन मौके पर चोट आ गई। इसलिए उनके पुत्र, राजवीर उनकी बैसाखी बने हुए थे।
कभी मुलायम सिंह की सरकार बचाने के लिए संसदीय मर्यादा ताक पर रखकर फैसला देने वाले पूर्व विधानसभा अध्यक्ष, धनीराम वर्मा भी कन्नौज में मुलायम सिंह के पुत्र के खिलाफ टाल ठोंक रहे, अपने पुत्र और बसपा प्रत्याशी के चुनाव संचालक थे।
बिहार में भी परिजनों ने ही प्रचार की बागडोर संभाली। लोकजनशक्ति पार्टी के नेता रामविलास पासवान और उनके भाई रामचंद्र पासवान के चुनाव में प्रचार की कमान उनके अभिनेता पुत्र चिराग पासवान के हाथ में थी। जबकि सुपौल में पासवान को बाय बाय कहकर गए पप्पू यादव की प्रतिष्ठा उनकी पत्नी रंजीता रंजन के चुनाव में लगी थी।
यूं तो लालू प्रसाद यादव अपनी मसखरी के लिए विश्वविख्यात हैं, लेकिन पाटिलिपुत्र और सारण में उनकी स्थिति 'गाते-गाते चिल्लाने लगे हैं' वाली हो गई थी। यहां कमान उनकी पत्नी राबड़ी देवी के हाथ में थी। बाहुबली शहाबुद्दीन और सूरजभान भले ही जेल में थे, लेकिन क्षेत्र में उनकी पत्नियां उनकी प्रतिष्ठा की लड़ाई लड़ रही थीं।
बात लोकतंत्र की हो और राजा रजवाड़े पीछे रह जाएं, ऐसा हो नहीं सकता। राजस्थान की झालावाड़ संसदीय सीट पर युवराज दुष्यंत सिंह, जनता के दरबार में शीश नवाए खड़े थे। लिहाजा उनकी मां, महारानी वसुंधरा राजे सिंधिया उनके लिए खून पसीना एक कर रही थीं।
भले ही ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस में हैं और दुष्यंत सिंह भाजपा में, लेकिन हैं तो दोनों भाई-भाई। सो, ज्योतिरादित्य के चुनाव की कमान उनकी पत्नी के हाथ में थी। जबकि छत्तीसगढ़ में मूंछ ऐंठने वाले राजा साहब, दिलीप सिंह जूदेव का चुनाव प्रबंधान उनके विधायक पुत्र युद्धवीर सिंह के हाथ में था।
छत्तीसगढ़ में ही पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने पत्नी रेनू जोगी के चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया हुआ था और व्हील चेयर पर बैठकर ही पूरा चुनाव संचालित कर रहे थे।
उन्नाव से कांग्रेस प्रत्याशी अनु टंडन का चुनाव प्रबंधान तो और कमाल का था। अनु, उन्नाव में मुकेश अंबानी की प्रतिनिधि के तौर पर लड़ रही थीं। चूंकि मामला कॉरपोरेट जगत का था, इसलिए परिवार तो हावी था, लेकिन कॉरपोरेट स्टाइल में कंपनी बनाकर।
बताते हैं, कि उन्नाव में अनु के कार्यकर्ता बनने के लिए बाकायदा कैटवॉक हुई और साक्षात्कार के बाद कार्यकर्ता भर्ती हुए।
इन सबमें कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह और तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह का नसीब थोड़ा खराब था।
दिग्विजय के अनुज, लक्ष्मण सिंह तो भाजपा के टिकट पर मैदान में थे। जिन्हें हराने के लिए दिग्गी राजा को लोगों के हाथ पैर जोड़ने पड़ रहे थे। जबकि अर्जुन सिंह की पुत्री विद्रोह करके सीधी से निर्दलीय चुनाव लड़ गईं। सो, अर्जुन सिंह उनके प्रचार की कमान नहीं संभाल पाए।
दक्षिण भारत में तो राजनीति में परिवार को पहले से ही मान्यता मिली हुई है।
एमजीआर की एआईडीएमके की जानकी रामचंद्रन, करूणानिधि की बेटी कनिमोझी, एक बेटा अझागिरी, भांजे मुरासोली मारन का बेटा दयानिधि मारन, दूसरा बेटा स्टालिन यानी पूरी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी है।
कर्नाटक में अपने पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा का खानदान है ही और आंध्र में वाईएसआर रेड्डी के सुपुत्र जगनमोहन भी पिता की विरासत बचाने के लिए कांग्रेस हाई कमान की नाक में दम कर रहे हैं।
लेकिन यह रुझान लोकतंत्र के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है, अब साफ हो गया है कि दलीय व्यवस्था फेल हो गई है और जनता के सामने किसी एक राजा को चुनने का ही विकल्प है। अब, यह आप पर निर्भर करता है, कि आप सोनिया मॉडल, आडवाणी मॉडल, मायावती मॉडल, ठाकरे मॉडल अथवा मुलायम मॉडल में से किसे चुनते हैं।
हां, इस मामले में वामपंथी दल अभी भी बचे हुए हैं, जहां परिवार की नहीं कैडर की ही चलती है।
रघुवीर सहाय की पंक्तियों में थोड़ा सा हेर फेर कि - ''घर का घर पाप छिपा रखने के लिए एकजुट होना/ जितना बड़ा घर होगा, उतना ही खाएगा देश को।'' जय लोकतंत्र, जय युवराज!!!
अमलेन्दु उपाध्याय