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Economic inequality is not in the interest of any civilized society.
विकराल आर्थिक विषमता - Macroeconomic disparity
आर्थिक विषमता किसी सभ्य समाज के हित में नहीं है। मार्क्स ने इसी आर्थिक विषमता को लेकर अपने सिद्धान्त प्रतिपारित किये थे। कहने को तो कहा जाता है कि मार्क्स खत्म हो गये। सोवियत संघ के विखण्डन के पश्चात मार्क्स अप्रासंगिक हो गये। किन्तु मैं इसे नहीं मानता कोई भी सिद्धान्त मरता नहीं, यही नहीं मेरा तो कहना है कि कोई बात मरती नहीं। सभी कुछ इस ब्रम्हाण्ड में संचित हैं, संरक्षित हैं, सुरक्षित हैं। जब-जब आर्थिक विषमता अपना मकड़ जाल फैलायेगी मार्क्स प्रासंगिक हो उठेंगे।
मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री बनने के साथ ही आर्थिक उदारीकरण (Economic liberalization) का जो दौर चला उसमें देश तेजी के साथ प्रगति करते हुये दिखाई दिया। अर्थशास्त्रियों ने विकास के जो आंकड़े प्रस्तुत किये वे मन को लुभाने वाले अवश्य हैं। निःसन्देह देश का विकास हुआ, किन्तु क्या देश का समग्र विकास हुआ ? यदि इस बिन्दु पर विचार करना है तो हमें अर्थशास्त्र की पोथियों से निकल कर आम जन के मध्य जाना होगा। अपनी नंगी ऑंखों से देश को देखना होगा। ऊॅंची-ऊॅंची इमारतें, चौड़ी-चौड़ी सड़कों के बन जाने से ही देश विकसित नहीं हो जाता, उन ऊॅंची-ऊॅंची इमारतों में रहने वालों, चौड़ी-चौड़ी सड़कों पर चलने वालों की तरफ भी दृष्टिपात करना होगा।
मुझे अपनी बात कम शब्दों में कहने की बाध्यता है, इसलिये मैं आमिर खान की एक पिक्चर ‘‘पीपली लाइव’’ के माध्यम से अपनी बात आसानी से समझा सकता हूँ।
‘‘पीपली लाइव’’ के नत्था का परिवार आज भी गाँव में जिन्दा है। नत्था और उसके परिवार जैसी जिन्दगी आज भी लोग गाँवों में जी रहे हैं मैं प्रेमचन्द की बात भी कर सकता हूँ किन्तु प्रेमचन्द की कहानियों के पात्र अब पुराने हो गये हैं किन्तु सच्चाई यह भी है कि प्रेमचन्द की कहानियों के पात्रों का आर्थिक सुधार नहीं हुआ। गोदान के नायक होरी के पास तो गाय थी बेचारे नत्था के पास तो केवल बकरी ही दिखाई देती है गोदान में होरी की पत्नी धनिया वक्त वे वक्त मुस्कुरा भी देती थी, किन्तु नत्था की पत्नी को मुस्कुराते किसी ने भी नहीं देखा।
प्रेमचन्द की कहानी के पात्रों की कोमलवृत्ति सूख रही थी, किन्तु नत्था के परिवार के सदस्यों की कोमलवृत्ति पूरी तरह से सूखी हुई दिखाई देती है।
नत्था एक लाख के लिये आत्म हत्या को तैयार है प्रेमचन्द की कहानियों के पात्र रूपयों के लिये आत्म हत्या नहीं करते थे। किन्तु इस आर्थिक युग में नत्था को रूपयों के लिये आत्म हत्या करना उसकी मजबूरी है। मैं यह बात पिक्चर देखी नहीं कर रहा हूँ, ऑंखों देखी कर रहा हूँ। देश के दूर-दराज के गावों में गरीबी के यही हालात हैं नगरीय परिवेश में स्लम्स के हाल तो इससे भी बदतर हैं।
इस आर्थिक विषमता में गरीबों और अमीरों के बीच मीलों के फासले आबाद कर दिये हैं। देश का दुर्भाग्य यह है कि राजनैतिक दलों को इसकी कोई फिक्र नहीं है उनके लिये वोट लेना और वोट पाकर सत्ता सुख लेना एकमात्र लक्ष्य रह गया है। देश के राजनैतिक दल बड़े-बड़े कारपोरेट घरानों के चुंगल में हैं। इन कारपोरेट घरानों ने इन राजनैतिक दलों की राहें बड़ी आसान कर दी हैं। कहाँ पहले नेता दो-दो पैसे चन्दा के रूप में इकट्ठा कर किसी प्रकार पार्टी के खर्चे चलाते थे, अब उन्हें एक इशारे पर थोक के भाव धन मिल जाता है।
यही नहीं राजनैतिक दलों के पास बाहुवली और धनपशु नेताओं की भरमार हो गयी है वे रूपयों और ताकत के बल से जीत कर संसद और विधानसभाओं में आसानी से पहुँच जाते हैं और पूरे पाँच साल अपने आर्थिक साम्राज्य को सुदृढ़ करने के अलावा कोई दूसरा काम नहीं करते हैं। किन्तु ये कब तक चलेगा ?
मनुष्य कोई रोबोट नहीं है उसके मस्तिष्क में विचार पनपते हैं।
आर्थिक विषमता किसी भी क्षण विकराल रूप धारण कर सकती है। पश्चिम बंगाल में 70 के दशक में नक्सलवादी में जो चिनगारी उठी थी, उस आग की गिरफ्त में देश का एक बड़ा भूभाग आ चुका है। वह दिन दूर नहीं कि यह आग पूरे देश में चौतरफा लगी हुई दिखाई देगी। इस आग से बचना है तो सरकारों को ऐसा कुछ करना होगा जिससे आर्थिक विषमता खत्म हो।
सरकार में बैठे राजनैतिक दलों के नुमाइन्दों को सब कुछ पता है कि उन्हें क्या करना है ? किन्तु वे कुम्भकर्णीय नींद में सोये हुये हैं। यह नींद तभी तक संभव है जब तक लंका में रावण का राज्य स्थापित है। अब यह नींद टूटनी चाहिये वरना बहुत देर हो जायेगी।
ऊॅंची- ऊॅंची इमारतों में रहने वाले बड़ी-बड़ी गाडि़यों में चलने वाले अय्याशी में तो पारंगत होते हैं लड़ने का माद्दा उनमें नहीं होता है। भ्रष्टाचार पर आधारित इस आर्थिक व्यवस्था में व्यापक फेरबदल करना होगा, केजरीवाल जैसे पाखण्डियों ने लोकतंत्र की लाचारी का उपहास उड़ाया है, इसलिये लोकतंत्र से भी बात बनती दिखाई नहीं देती। आर्थिक समानता के लिये इस विकराल समस्या से बचने के लिये और भी दरवाजे खटखटाने होंगे।
अनामदास