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सरकार और प्रबंधन के आगे सारे संपादक लेट गए हैं

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बौद्ध धर्म की आड़ में देश के खिलाफ कोई साजिश तो नहीं?

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All the editors have surrendered before the government and the management.

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(जनसत्ता और जैन साहब)

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आज बरसों बाद एक अखबार में सहकर्मी रहे एक मित्र का अचानक फ़ोन आया। उन्होंने मिलने को कहा। सुखद आश्चर्य हुआ। मिल कर पता चला कि उन्होंने महीना भर पहले अखबार से इस्तीफा दे दिया है और दिल्ली छोड़ चुके हैं। वे कह रहे थे कि अब संस्थानों में काम करने लायक माहौल नहीं रह गया है। सरकार और प्रबंधन के आगे सारे संपादक लेट गए हैं, हालांकि असुरक्षा इतनी ज्यादा है कि लेटना भी काम नहीं आ रहा।

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अचानक उनसे बात करते हुए तीन-चार दिन पहले का एक वाक़या याद हो आया। जनसत्ता अखबार के एक सीनियर रिपोर्टर ने भाजपा के एक नेता को फोन मिलाया। फोन नेता के हमनाम एक वरिष्ठ पत्रकार को चला गया। दरअसल, भारद्वाज संपादक ने मिश्रा रिपोर्टर को मोबाइल नंबर दिया था भाजपा नेता का कह के, लेकिन वह नंबर उसी नाम के एक सीनियर पत्रकार का था। ग़फ़लत ऐसी कि रिपोर्टर ने कॉल लगते ही कहा- जैन साब, आपका इंटरव्यू करना है। जैन साब सकपकाए। सोचे, हो सकता है किसी खबर पर कोई प्रतिक्रिया का मामला हो। इधर रिपोर्टर ने अपनी बात जारी रखी- आप सवालों को लेकर निश्चिंत रहें। जैसा सवाल आप कहेंगे, हम वही पूछेंगे। सवाल पहले से तय होंगे।

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जैन साब को माजरा अब समझ में आया। उन्होंने रिपोर्टर से कहा- भाई आपको ग़फ़लत हुई है। मैं बीजेपी नेता नहीं हूँ। रिपोर्टर ने सफाई दी कि संपादक ने तो यही नंबर दिया था। उधर से जवाब आया- आपके संपादक के पास मेरा भी नंबर है। एक ही नाम को लेकर ग़फ़लत हुई होगी और उन्होंने नेता के बजाय पत्रकार का नंबर आपको थमा दिया होगा। मिश्रा जी को भी अफसोस हुआ होगा कि कहां से गलत नंबर लग गया और वक़्त खराब हुआ।

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इमरजेंसी के बारे में एक मशहूर कथन है संपादकों के बारे में कि उन्हें बैठने को कहा गया था लेकिन वे लेट गए। सोचिए, सत्ताधारी दल के एक मामूली नेता का इंटरव्यू करने के लिए राष्ट्रीय अखबार का वरिष्ठ रिपोर्टर अपने आप कह रहा है कि सवाल पहले से तय होंगे और नेता को कोई शिकायत नहीं होगी। ये पता चलने पर कि लाइन के दूसरी तरफ भी एक पत्रकार ही बैठा है, फोन करने वाले को शर्मिंदगी से मर जाना चाहिए था।

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ऐसे माहौल में एक युवा पत्रकार आखिर कितने दिन अपने ज़मीर को दांव पर लगाकर काम कर सकता है? मित्र ने नौकरी छोड़ के भारी रिस्क लिया है लेकिन उसने अपना ईमान बचा लिया है। संपादक स्तर के इन बेईमान अधिकारियों का क्या किया जाए जिनकी आंख में 'अय्यार' के अभय सिंह जितना पानी भी नहीं बचा है? अपनी अगली पीढ़ी के लिए ये क्या विरासत छोड़े जा रहे हैं? असली अय्यारों की पहचान करनी है तो ये सवाल इनसे पूछ के देखिये एक बार! सारा पंडावाद छिन्न-भिन्न हो जाएगा।

अभिषेक श्रीवास्तव

(अभिषेक श्रीवास्तव की फेसबुक टाइमलाइन से साभार)

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