हमारे जैसे जिन सब लोगों ने यह उम्मीद लगाई थी कि इस बार के चुनाव में मोदी शासन से मुक्ति बिल्कुल संभव होगी, एग्जिट पोल (Exit Polls) से उन सबमें स्वाभाविक रूप से गहरी निराशा पैदा हुई है।
हम जैसों के एक बड़े हिस्से में 2014 के वक़्त भी कम निराशा पैदा नहीं हुई थी।
लेकिन विगत पाँच सालों के उत्तरार्ध में, मोदी जी के स्वेच्छाचार और उनकी सरकार की विफलताओं के पहाड़ को देख कर लगा था कि आगे इस सरकार का बने रहना हमारे राष्ट्र के लिये आत्मघाती होगा। विगत कई चुनावों से व्यापक जन-असंतोष के साफ़ संकेत भी मिले थे।
विपक्ष की जीत की प्रबल संभावनाओं की कल्पना ने, विपक्ष की चुनावी रणनीतियों को भी प्रभावित किया और एक स्वेच्छाचारी शासन के व्यापक एकजुट प्रतिरोध के बजाय मामूली समायोजनों के साथ परस्पर प्रतिद्वंद्विता से किसी ने परहेज़ नहीं किया। हम जैसों की व्यक्तिगत चेतावनियों का पार्टियों के ‘सामूहिक विवेक’ के सामने भला क्या मूल्य हो सकता है !
बहरहाल, अभी एग्जिट पोल के परिणाम आए हैं जो नि:संदेह अंतिम परिणाम नहीं है। भारत में ही नहीं, और बाक़ी दुनिया में भी एग्जिट पोल के अधिकतर और लगातार ग़लत साबित होते जाने के इतिहास को देखते हुए इन परिणामों पर संदेह करने के तमाम वाजिब कारण मौजूद है। इसके पीछे एग्जिट पोल एजेंसियों पर विपक्ष के आँकड़ों को कमतर बताने के सरकारी दबावों से लेकर मोदी के व्यापक गेम प्लान में बाक़ायदा शामिल मीडिया घरानों और सटोरियों की भूमिका की बातों को भी दरकिनार नहीं किया जा सकता है।
लेकिन फिर भी, ये प्रचारित परिणाम बेहद चिंताजनक है। इनसे मोदी के फिर से सत्ता पर लौटने के साथ हमारे राष्ट्र के पूरे ताने-बाने और व्यापक जनता के जीवन-स्तर पर पड़ने वाले और भी घातक प्रभाव और प्रतिवाद की जनतांत्रिक आवाज़ों तथा बुद्धि और विवेक के स्वरों के दमन की कोई भी बड़ी आसानी से कल्पना कर सकता है। अंध-विश्वासों, सामाजिक रूढ़ियों, गोबर-मूत्र की महत्ता और वैज्ञानिक मानसिकता तथा बौद्धिकता के प्रति तिरस्कार के एक उग्र सामाजिक परिवेश में जीवन का अहसास डरावना लगता है। इसीलिये एग्जिट पोल के संकेत उनकी सच्चाई से कहीं ज़्यादा अवसादकारी हो सकते हैं।
इन्हीं तमाम कारणों से, विभाजनकारी प्रचार की बाढ़ से लगातार किसी भी सच को झूठ और झूठ को सच साबित करने की नीति पर काम करते हुए समूचे समाज को जकड़ने के अंधे अभियान में लगी उत्पीड़क शक्तियों की चुनावी परियोजना में एग्जिट पोल तक के स्तर तक का शामिल होना बिल्कुल स्वाभाविक लगता है।
तथापि, शुद्ध रूप में रुपयों की अपार शक्ति के बल पर सामाजिक पिछड़ेपन का जो विशाल प्रकल्प भारत में अभी चल रहा है वह सभी जनतंत्रप्रेमियों और मानवतावादी ताक़तों के लिये एक सोचनीय विषय है। जहां तक राजनीतिक पार्टियों का संबंध है, उनके बंद दायरों में प्रभुता के निजी संकीर्ण स्वार्थ उनकी भूमिका को बुरी तरह से बाधित कर रहे हैं। उन सबमें बड़ी-बड़ी दरारों और उनके सैद्धांतिक और सांगठनिक, दोनों स्तरों पर व्यापक कायांतरण से ही वास्तव अर्थों में आगे, मोदी जीते या हारे, समाज को इस रूढ़िवादिता और विवेकहीनता के दलदल से निकालने में वे कोई सार्थक भूमिका अदा कर सकती है।
अरुण माहेश्वरी