दिवाकर सिंह और राकेश टिकैत जैसे किसान नेता चुनाव में बुरी तरह हारते क्यों हैं ?
किसान, राजनीति और दुर्गति
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में गोरखपुर औद्योगिक विकास प्राधिकरण (गीडा) के लिए उस समय जमीन अधिग्रहण की योजना बनी, जब राज्य में कांग्रेस सरकार थी और गोरखपुर के ही निवासी वीर बहादुर सिंह राज्य के मुख्यमंत्री थे।
उन दिनों किसानों की जमीन बहुत कम दाम में ली जाती थी। 1988 के आसपास की बात है।
अधिग्रहण के लिए मुआवजे की बात आई तो आंदोलन शुरू हुए। गोरखपुर के ही एक नेता दिवाकर सिंह ने किसानों का नेतृत्व किया। दर्जनों बार लाठियां चलीं। कल्याण सिंह के कार्यकाल में गोली चली, जिसमें किसान मारे गए। दिवाकर सिंह पर दर्जनों मुकदमे चले। उनकी आमदनी का कोई स्रोत नहीं था और उन्होंने अपना पूरा श्रम किसान आंदोलन में झोंक रखा था।
किसानों के प्यार पर वह जिंदा थे। एक सुंदर सी बीवी। प्यारे बच्चे। उनके खर्च चलाने का कोई साधन नहीं। किराए के मकान में रहते। किसान अनाज सब्जियां, दूध पहुंचा जाते थे। किसी तरह निजी जिंदगी चल रही थी।
आखिर में वह किसानों का मुआवजा बढ़वाने में कामयाब हो गए। पहले से बेहतर मुआवजा किसानों को मिल गया।
दिवाकर ने उसके बाद राजनीति में हाथ पांव मारने की कोशिश की। सहजनवा विधानसभा से चुनाव लड़े और जमानत जब्त हो गई। दिवाकर गुमनामी के अंधेरे में चले गए। अचानक सूचना मिली कि किसी बीमारी से उनकी अकाल मौत हो गई। उनकी पत्नी, बेटी, बेटा किस हाल में हैं और किस तरह संघर्ष कर रहे हैं, यह पता नही।
दिल्ली यूपी बॉर्डर पर किसानों की बर्बर पिटाई के बाद 1990 के आसपास की घटनाएं आंखों के सामने घूम गईं। खासकर जब यह पढ़ा कि 2014 में किसान नेता राकेश टिकैत अमरोहा लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़े थे और उनकी जमानत भी जब्त हो गई थी।
किसान नेता आखिर करें तो क्या करें?
गोरखपुर में गीडा में जिन किसानों की जमीन निकली थी उसमें पिछड़े वर्ग में ज्यादा संख्या सैंथवारों और यादवों की थी। उस समय भी और आज भी, ये दोनों जातियां समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और भारतीय जनता पार्टी में विभाजित हैं।
किसान पीटे जाएं और जैसे ही उन्हें कोई राजनीतिक नेता समर्थन देने पहुंचता है तो हंगामा बरपता है कि राजनीति हो गई। फलां-फलां नेता राजनीतिक रोटियां सेंकने पहुंच गए।
ऐसे में किसानों का नेतृत्व कौन करे? क्या वह व्यक्ति, जो किसानों के लिए अपनी जान देकर फुर्सत पाने की इच्छा रखता है वह?
और अगर किसानों की दुर्दशा, खराब कानून व्यवस्था, फर्जी मुठभेड़, गरीबी, बेरोजगारी पर राजनीति न हो तो किस मसले पर हो?
क्या गे, क्वीर, विवाहेत्तर सम्बन्धों पर राजनीति हो? क्या मन्दिर मस्जिद को लेकर राजनीति हो? क्या इस पर राजनीति हो कि कौन बड़ा टीका लगाकर मन्दिर में माथा पटकने जाता है? या इस पर कि कौन व्यक्ति मजार पर कितनी लम्बी चादर चढ़ाता है?
आइए, कुछ आंकड़े देखते हैं। अभी चार दिन पहले सरकार ने जारी किया है। 10वीं कृषि जनगणना के मुताबिक देश में कृषि धारिता 2010-11 के 1.15 हेक्टेयर से घटकर 1.08 हेक्टेयर रह गई है।
इसके परिणामस्वरूप 2015-16 में खेती योग्य कुल भूमिधारिता में देश के लघु और सीमांत किसानों की कुल संख्या (जिनके पास 0.00 से 2 हेक्टेयर जमीन है) बढ़कर 86.21 प्रतिशत हो गई है। इनकी संख्या करीब 12.6 करोड़ हो गई है, जो 2010-11 में 84.97 प्रतिशत थी।
उप मझोले और मझोले आकार की जोत रखने वाले किसानों (2 हेक्टेयर से 10 हेक्टेयर) की संख्या इस दौरान 14.29 प्रतिशत से घटकर 13.22 प्रतिशत रह गई है, जबकि बड़ी जोत वाले किसानों (10 हेक्टेयर और इससे ज्यादा) की संख्या 2010-11 के 0.71 प्रतिशत से घटकर 2015-16 में 0.57 प्रतिशत रह गई है।
स्वाभाविक है कि जनसँख्या बढ़ने के साथ खेत बंट रहे हैं। लेकिन क्या जनसंख्या बड़ी समस्या है? 1931 में 36 करोड़ जनसँख्या थी। उस समय बांग्ला देश और पाकिस्तान भी भारत में थे। 1943 में बंगाल में अकाल पड़ा। 30 लाख लोग मर गए।
इस समय देश की आबादी 125 करोड़ से ऊपर है। हमारे देश में सरप्लस उत्पादन हो रहा है। गोदाम में अनाज सड़ जाता है। सरकार उसका प्रबंधन नहीं कर पाती है।
कोई सुनवाई क्यों नहीं है किसानों की ?
स्वाभाविक है कि इस देश में किसानों ने सबसे ज्यादा काम किया है। देश में नोबेल पुरस्कार नहीं आ रहे। वैश्विक स्तर का एक भी विश्वविद्यालय नहीं बन पाया। एक भी फाइटर प्लेन, इंटरनेट, मोबाइल, एंड्रॉयड, कम्प्यूटर किसी चीज का शोध नहीं हो पाया। विश्वविद्यालयों में एक लाख रुपये से ऊपर सेलरी लेने वाले प्रोफेसर एक भी काबिल विद्यार्थी न निकालकर गुंडे पैदा करते हैं। कुंठित जातिवादी धार्मिक दंगाई पैदा करते हैं। लेकिन इस देश का किसान ही है जो इतना अनाज, फल,सब्जियां पैदा कर देता है कि सवा अरब आबादी का पेट भी भरता है और सड़ाने के लिए सरकार के पास पर्याप्त माल होता है।
भोजन मनुष्य की प्राथमिक जरूरत है, जिसकी समस्या देश के किसानों ने हल कर दी है। पेटों की संख्या बहुत बढ़ी, लेकिन किसानों ने उन पेटों को भरने के लिए अनाज पर्याप्त मात्रा में दे दिया है।
इसके बावजूद किसानों की कोई सुनवाई क्यों नहीं है? उसका जीवन स्तर महानगर में एक सेठ की क्लर्की करने वाले नौकर से भी खराब क्यों है?
आइए अब लौटते हैं दिवाकर सिंह की कहानी पर
दिवाकर सिंह ने गीडा की जिस जमीन के मुआवजे के लिए आंदोलन किया, वह पूरे सहजनवा विधानभा क्षेत्र का महज दसवां हिस्सा है। आंदोलनरत किसान शहरी सटे इलाकों के थे तो उनकी सम्पन्नता भी थी और जमीन का मूल्य भी ज्यादा था। शेष इलाके के किसानों का कहना था कि इत......ना मुआवजा मिल रहा है, अब क्या चाहिए। खाली नेतागीरी हो रही है और विपक्षी दल वाले सरकार के खिलाफ साजिश कर रहे हैं! इसके अलावा गांव के ज्यादा खेती वाले ज्यादातर ब्राह्मण-ठाकुर पहले से निकल चुके हैं देश विदेश में नौकरी करने। वो जमीन बेचना ही चाहते थे और सरकार ने हर हाल में स्थानीय लोगों की तुलना में ज्यादा मुआवजा दे दिया। वो खुश हो गए। बचे लघु और सीमांत किसान, जिनकी आबादी 85% है और खेत 2 हेक्टेयर से कम। सारी गाज उन्हीं पर गिरनी है क्योंकि उतनी जमीन का जो मुआवजा मिलना है उससे वो कुछ कर नहीं पाते, खाने का साधन अलग छिन जाता है। इसके अलावा मजदूर तबका है, जिन्हें दलित कहा जा सकता है। उनका परोक्ष रोजगार जाता है, लेकिन उन्हें किसान आंदोलन से कोई मतलब नहीं होता। कुछ हद तक तो वो खुश भी होते हैं कि हमारे बुर्जुआ की जमीन छिन रही है, यह अच्छी बात है।
यही वजह है कि दिवाकर सिंह और राकेश टिकैत जैसे लोग चुनाव में बुरी तरह हारते हैं।
किसानों में गुस्सा है। उनकी हालत दयनीय है। लोग खेत छोड़कर भाग जाना चाहते हैं। वह चाहते हैं कि सरकार उनके लिए कुछ करे। सरकार उनके लिए इसलिए नहीं है कि उनके साथ रहने पर सरकार को कोई लाभ नहीं है। किसान बंटे हुए हैं। एक इलाके के किसान पर मार पड़ती है तो पड़ोस के किसान हंसता है। आदिवासी किसान की जमीन कब्जियाई जाती है और सरकार उन्हें नक्सली कहकर धकिया देती है तो देश का शेष किसान खुश होता है कि देश विरोधी लोगों को सरकार ने मार दिया।
राज्यवार और क्षेत्रवार किसान विभिन्न जातियों में बंटे हैं। दिल्ली के आसपास के किसान जाट हैं, कुछ इलाके में गुज्जर हैं। पूर्वी, मध्य यूपी में कुर्मी, अहीर हैं। महाराष्ट्र में मराठा है। आंध्र में कापू हैं। गुजरात में पटेल हैं। कर्नाटक में वोक्कालिंगा हैं। छत्तीसगढ़ में आदिवासी हैं।
सभी क्षेत्रवार और जातिवार बंटे हैं। समस्याएं सबकी साझा हैं, लेकिन ये एक दूसरे की समस्या में साथ आने के बजाय एक दूसरे पर हंसते हैं और सत्ता इन्हें किस्तों में मार देती है।
इन किसानों की साझा रणनीति भी नहीं है। कभी-कभी इनकी मांगें इतनी हास्यास्पद होती हैं कि लगता है कि यह कोई मांगने की चीज है, यह तो होना ही चाहिए। कभी लगता है बिना जाने समझे असम्भव सी हास्यास्पद मांग रख दी गई है।
किसानों और भूमिहीन होकर मजदूर बनते जा रहे सीमांत किसानों, खेत मजदूरों की समस्या तभी हल हो सकती है जब देश भर के छोटे छोटे किसान संगठन एकजुट हों। एक साथ बैठकर साझा विमर्श करें। देश के लिए रणनीति बनाएं और शासन सत्ता पर कब्जा कर देश को अपने मुताबिक चलाएं।
किसानों ने साबित किया है कि उन्होंने स्वतंत्रता के बाद अपने कार्यक्षेत्र में सबसे शानदार प्रदर्शन किया है। यह इस बात का सबूत है कि विधायिका, कार्यपालिका पर किसानों का कब्जा हो जाये तो वह ज्यादा बेहतर और ईमानदार शासन दे पाएंगे।