Advertisment

भाजपा के लिए गजेन्द्र के पिता न हिंदू हैं, न किसान संघ के नेता

author-image
hastakshep
12 Aug 2015
भाजपा के लिए गजेन्द्र के पिता न हिंदू हैं, न किसान संघ के नेता

Advertisment

प्रदेश अलग-अलग पर समस्या एक सी

Advertisment

पिछले दो दिनों राजधानी दिल्ली में अलग-अलग प्रदेशों से आए उन किसान परिवारों का जमावड़ा लगा रहा, जिनके किसी न किसी सदस्य ने आत्महत्या की है। इन किसान परिवारों में बड़ी संख्या में विधवाएं भी शामिल थीं। इन परिवारों में उस गजेन्द्र के पिता बलि सिंह व बेटी भी शामिल थे, जिसने आम आदमी पार्टी की रैली में जंतर-मंतर पर आत्महत्या की थी।

Advertisment

अखिल भारतीय किसान सभा के बैनर तले यहां जो करीब 100 परिवार आए, उनमें राजस्थान के कोटा से आए चेतराम हों या तरुण कुमार, मप्र भिण्ड से जनवेद जाटव, राजेन्द्र सिंह गुर्जर का परिवार हो या विनोबा के आश्रम पैनार वरधा से आए मनोहर राव वारगुड़े का परिवार या कर्नाटका, हरियाणा, पंजाब, केरल, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश से आए किसान परिवार। सभी का परिवेश अलग-अलग हो सकता है, पर समस्या लगभग एक सी है।

Advertisment

सवाल है, इन किसानों ने आत्महत्या क्यों की? क्या वे नपुंसक थे, या किसी के प्रेम में पड़ गए थे, जैसा हमारे कृषि मंत्री राधामोहन ने संसद में बताया या फिर मध्य प्रदेश के तत्कालीन गृह मंत्री के शब्दों में इनकी बकरी मर गई था या घर वालों ने मुर्गा बनाकर नहीं खिलाया था ? या फिर आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्र बाबू नायडू के शब्दों में किसान एक लाख रुपए का मुआवजा पाने के लिए आत्महत्या कर रहा है।

ये बहाने सत्तधीशों के हो  सकते हैं, किसान परिवारों के नहीं।

Advertisment

सरकार तो इस बात को भी मानने के तैयार नहीं है, कि किसान आत्महत्या कर रहा है। इस साल एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं, कि किसानों की आत्महत्या में काफी गिरावट आई है। करीब 12 राज्य ऐसे हैं, जहां कोई आत्महत्या नहीं हुई या फिर आत्महत्या के मामलों में काफी गिरावट आई है।

Advertisment

यह अलग बात है, कि मोदी सरकार के एक साल के कार्यकाल में ग्रामीण आत्महत्या में 26 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है।

Advertisment

एनसीआरबी के आंकड़ों में इस बार एक कॉलम अन्य का जोड़ा गया है, अधिकतर आत्महत्याओं को इस कॉलम में डाल दिया गया है। ऐसे में जो राज्य यह दावा कर रहे हैं, कि उनके यहां किसान आत्महत्या कम हुई है, वहां इस अन्य की आत्महत्याओं में बेतहाशा वृद्धि हुई है।

असल में सरकारें जब रोजगार की बात करती हैं, तो वह खेती को रोजगार का साधन मानने के तैयार नहीं है, जबकि यह सेक्टर आज भी 65 फीसदी से अधिक लोगों को रोजगार उपलब्ध करा रहा है, अगर सभी किसान शहरों में पलायन करने लगें, तो सरकार को उनकी व्यवस्था करना भारी पड़ जाएगा। अभी भी जो किसान शहरों में आकर मजदूरी करते हैं, वे किन परिस्थितियों में रह रहे हैं, यह किसी से छिपा नहीं है।

कोशिश ग्रामीण पलायन को रोकने के लिए गांवों में ही रोजगार उपलब्ध कराने की होना चाहिए, पर सरकार के पास ऐसी कोई योजना नहीं है। साल 2013 के अंत में राजधानी दिल्ली में खेती की बदहाली को लेकर हुए एक सम्मेलन में तत्कालीन कृषि सचिव ने लगभग साफ शब्दों में कहा था, कि सरकार के पास खेती के लिए कोई योजना नहीं है, लोग चाहें तो खेती छोड़ सकते हैं।

मोदी सरकार भी इससे जुदा नहीं है, हाल ही में केन्द्र सरकार के कार्यक्रम स्किल इंडिया में 2022 के लिए जो रणनीति बनाई गई है, उसके अनुसार रियल स्टेट में 31 फीसदी रोजगार की वृद्धि होने का अनुमान है, रिटेल में 17 फीसदी, दूसरी तरफ खेती में 25 फीसदी रोजगार कम होने का अनुमान है।

इस आकलन में केवल खेती की ऐसा क्षेत्र है, जिसमें रोजगार की कमी आएगी। साफ है, सरकार खेती की कीमत पर अन्य रोजगारों में बढ़ाना चाहती है, जिसमें सबसे बड़ी वृद्धि उस क्षेत्र में दिखाई गई है, जिसे लेकर हाल ही में एसौचेम की रिपोर्ट आई है, जिसके अनुसार एनसीआर में रिटल स्टेट क्षेत्र में 35 फीसदी की गिरावट है, एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार एनसीआर में करीब 3 लाख मकान खाली पड़े हैं, जिन्हें खरीददार नहीं मिल रहे हैं।

यह मजेदार है, इसके बाद भी हर दिन नए प्रोजेक्ट आ रहे हैं और रोज जमीन का अधिग्रहण हो रहा है।

खेती का संकट इसलिए है, क्योंकि सरकार के एजेंडे में खेती है ही नहीं। कुछ समय पहले शांताकुमार आयोग की जो रिपोर्ट आई थी, उसमें साफ कहा गया है, खाद पर सब्सिडी खत्म कर दी जाए, सरकार ने इस दिशा में कदम बढ़ाया भी है, जिससे खाद की कीमतों में कई गुना बढ़ोत्तरी हुई है।

आयोग की रिपोर्ट ने गेहूं की खरीद पर किसी प्रकार का बोनस देने का भी विरोध किया था, इस साल जो राज्य बोनस देते भी थे, उन्होंने नहीं दिया। सरकार खेती के नाम पर जो कर्ज देने की बात करती है, उसका भी बड़ा हिस्सा तो फूड प्रोसेसिंग कंपनी, वेयर हाउस और कोल्ड स्टोरेज के नाम पर बड़े कार्पोरेट हाउस को दिया जा रहा है, यह परंपरा मनमोहन सिंह सरकार के समय ही शुरु हो गई थी। छोटा किसान कर्ज के लिए साहूकारों पर ही निर्भर रहता है।

इस साल जो आत्महत्या के मामले सामने आए, वे ऐसे इलाकों से आए, जो सम्पन्न हैं और आत्महत्या करने वाले कई किसान भी आर्थिक रूप से ठीक हैं।

पिछले दिनों एक परंपरा और देखने को मिली है, छोटा किसान अपनी खेती ठेके पर या बंटाई पर उठाकर शहर मजदूरी के लिए चला जाता है, क्योंकि बढ़ती लागत में वह खेती करने में असमर्थ है। खेती उसे खाने का अनाज दे देती है और मजदूरी से वह अन्य खर्च निकाल लेता है। बड़ा किसान मजदूरी नहीं कर सकता, इसलिए वह सारी ताकत खेती में झोंक देता है। लगातार बढ़ती लागत और मौसम की मार उसे बड़े कर्ज में धकेल देती है, जो उसके आत्महत्या का कारण बन रही है। यह अलग बात है, सरकारें इन्हें आत्महत्या मानने को या किसी प्रकार की राहत देने को तैयार नहीं हैं।

सरकारों का रुख गजेन्द्र के पिता के शब्दों में साफ झलकता है, वे संघ परिवार के किसान संगठन किसान संघ से जुड़े रहे हैं, चुनाव के दौरान उन्होंने भाजपा की हर तरह से मदद भी की थी, जब गजेन्द्र ने आत्महत्या की, तब अमित शाह और राजस्थान की मुख्यमंत्री बसुंधरा राजे उनके घर भी गईं, पर राहत का जो वादा किया था, वह आज तक पूरा नहीं किया। यहां तक कि गजेन्द्र के बच्चों के लिए भी कुछ नहीं किया।

बहरहाल गजेन्द्र के पिता कुछ भी मानें, पर भाजपा के लिए वे न हिंदू हैं, न किसान संघ के नेता, यहां मामला वर्ग का है और वे उस वर्ग के नहीं हैं, जिसके लिए सरकार चिंता करे।

भारत शर्मा

भारत शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

Advertisment
Advertisment
Subscribe