गाँधीजी अपना मैला साफ़ करते थे, न्यू इंडिया स्वच्छ भारत वाले 'फादर ऑफ नेशन' कर सकेंगे ऐसा ?

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hastakshep
01 Oct 2019

गाँधी का रास्ता? न्यू इंडिया तुमसे ना हो पाएगा।

सुनो नए भारत के नए लोगों। तुम बाज़ारवाद में डूबे लोग, तुम क्या लालच को और अपनी उपभोग की इच्छा को नियंत्रित कर सकोगे? तुम्हारे नेता और अफसर जंगलों को काटकर विकास लाने के इच्छुक हैं, तुम इंसानों के साथ बर्ताव तो सही कर ना रहे हो तुम पृथ्वी के बारे में क्या सोचोगे? सत्य अहिंसा तो दूर की बात हैं, खुद से हर काम के महत्व को भी समझ सकोगे क्या? इतनी पढ़ाई लिखाई कर के आने के बाद भी सब कुछ छोड़कर जो एक खादी धोती, शॉल में अंग्रेजों की हंसी उपहास झेल भी चलता जाता था क्या उसके जैसा सोच भी सकोगे?

पता है गाँधीजी और उनके साथी आश्रम में खुद लोगों का मैला साफ़ करते थे और खाद के लिए डालते थे ताकि हर काम के महत्व को लोग समझ सकें और एक ही जाति के लोगों से उस काम को मुक्त किया जाए और सबको उसके महत्व का पता चले। आज बड़े से बड़ा नेता चाहे प्रतीकात्मक गाँधी गाँधी कितना भी खेल ले कर सकेगा ऐसा?

Gandhi's path is very difficult for today's Indians

तो दो अक्तूबर (2 October) आने को है और गाँधी-गाँधी की बौछार होगी हर जगह, मगर उनकी राहों (Gandhi's way) पर चलने को कितने लोग इच्छुक होंगे? या उन्हें कितने लोग सही तरह से समझते हैं यह भी अपने आप में बड़ा सवाल है। असल में गाँधी की राह उतनी आसान है नहीं और आज के भारतीयों के लिए बड़ी मुश्किल है।

वैसे तो अभी गाँधी के ऊपर इतनी धूल जमा दी गई है कि बहुत से लोग उस धूल को सही समझते हैं और गाँधी के मार्ग पर चलने के इच्छुक ही ना होंगे पर जो उन्हें मानते भी हैं उनके लिए भी गाँधीवाद पर चलना बेहद जटिल कम है। अपने दुश्मन को बिना उसका बुरा चाहे उसकी बुराइयों के लिए आलोचना करना और उसके खिलाफ़ अपने मर पर अडिग रहते हुए विचार करना यह आसान काम नहीं है मगर फिर भी लोगों ने गाँधीजी के कहे अनुसार दांडी यात्रा में इतने बड़े नमक सत्याग्रह में लाख उकसाने, अपने साथियों को खोने के बाद भी खुद से हिंसा शुरू नहीं की। यह कहना कि लोग अहिंसा के साथ नहीं थे यह सही जानकारी नहीं होगी। अलग अलग राज्यों व शहरों में उनके कहे के अनुसार एकजुट होकर लोगों ने आन्दोलन किए थे।

अंग्रेजों को लगता था क्या चुटकी भर नमक उठाने से क्रांति होती है? परिवर्तन होता है? उस लाठी वाले बूढ़े ने जो साठ के पार की उम्र में भी दांडी यात्रा की मुख्य धुरी रहा उसने यह साबित किया कि चुटकी भर नमक उठाने से भी आज़ादी की लड़ाई ज़ोर पकड़ सकती है। क्योंकि यहाँ बात महज़ नमक की नहीं थी बात लोगों के आत्मविश्वास और खुद पर एकता व भरोसे को जगाने की थी। अपने हक़ के लिए खड़े होने की थी। ऊल जलूल कानूनों के खिलाफ़ लोहा लेने की थी और शांतिपूर्ण ढंग से भी अपनी बात मनवाने की थी।

आज के युग में सोचिए अगर दांडी जैसी कोई यात्रा किसी कानून के खिलाफ कोई कर दे तो सरकार के मंत्री, मीडिया और लोग उसे क्या कहेंगे? मान लीजिए कि गाँधीजी कश्मीरियों के हाल के लिए अगर वहाँ का दौरा करने आज के समय में जाते तो क्या होता? कहीं कोई चैनल वाला उन्हें कानून विरोधी, टुकड़े टुकड़े गैंग बताता, तो कहीं ट्विट्टर पे गलियाँ मिल रही होतीं। यकीन मानिए हम शारीरिक रूप से आज़ाद हों पर आज भी गुलाम मानसिकता के शिकार हैं। चाहे वह किसी नेता या पार्टी की अंधभक्ति के रूप में ही हो। क्योंकि अंधभक्ति में आप लॉजिक खो देते हैं और एक सतही तर्कबाज़ बन चुके होते हैं। और गाँधीजी ने ऐसे आज़ाद देश की कल्पना कभी नहीं की होगी जहाँ लोग सवाल पूछने व सही प्रश्न अहिंसक रूप से रखने व हक़ के लिए खड़े होने पर भी सरकार और कानून की नज़रों में दोषी हो जाएँ।

गाँधी के स्वराज का विचार Gandhi's idea of Swaraj 

काम को छोटा बड़ा समझने वाले हम लोग जो खुद की साहबी अकड़ में खुश रहते हैं, क्या हम लोग गाँधीजी का स्वराज समझने के इच्छुक भी हैं? वो तो हमेशा हर व्यक्ति की तरक्की पर ज़ोर देते थे कि व्यक्ति स्वस्थ्य और शिक्षित होंगे और कौशल से भरपूर होंगे तो वे खुद अपना रोज़गार प्राप्त व सृजन करेंगे और एक एक व्यक्ति के स्वस्थ्य व सम्पन्न होने से गाँव सम्पन्न होंगे और गाँव के साथ फिर समाज व देश भी स्वराज की ओर अपने आप बढ़ेगा। वे स्कूलों को एक प्रयोगशाला के रूप में देखते थे जहाँ उनके अनुसार नई तालीम के ज़रिए लोगों को काम और कौशल के द्वारा शिक्षा दी जाए जो हाथ, मस्तिष्क और हृदय के जुड़ाव और विकास पर बल दे।

जिसमें बच्चे और शिक्षक अपने विद्यालय के लिए खुद ही खर्च का निर्वाह और आर्थिक मजबूती का आधार रखें जिससे वे स्कूल की स्वायत्ता को भी दृढ़ करें ताकि किसी और का उसपे नियम कानून अधिक ना हो और सरकार का कुछ सहयोग हो पर पूरा थोपने वाले रवैये से स्कूल मुक्त हों। इसी तरह सरकार को स्वास्थ्य की सुविधाओं को बेहतरी से देने के भी वे पक्षधर थे। उनके स्वराज में चरखे का महत्व व्यापक था जिसमें वे मशीन और इंसान के सृजनात्मक सम्बन्ध को देखते थे और उससे शरीर व मस्तिष्क के साथ सक्रिय रहने का भी उदाहरण था।

वे मशीनों के विरोधी नहीं थे बल्कि मशीनों के अंधाधुंध और बिना सोचे समझे प्रयोग व केंद्रीकृत बड़े उद्योगों से उन्हें परेशानी थी। जिसके कारण उन्होंने हिन्द स्वराज किताब में बखूबी बताए हैं। कताई, सिलाई, बागवानी, कृषि, कसीदाकारी, लकड़ी के काम आदि कई कौशल आधारित काम हैं जिन्हें वो बच्चों को स्कूलों में सिखाने के पक्षधर थे। और इनके ज़रिए विभिन्न विषयों को जोड़ा जाए जैसे कपड़े के साथ कपास का इतिहास, उसके उगने के साथ भौगोलिक परिस्थितियों, कपड़ों के टुकड़ों से गणित के सवाल, और कपास या कपड़ों का वैज्ञानिक विश्लेषण आदि कई विषयों को काम के ज़रिए सिखाया जाए। पर इन सबके अंत में उनका ध्येय वही था कि सत्य और अहिंसा में विश्वास रखने वाला समाज इस मार्ग से जाकर निर्मित हो।

अब बताइए आज के लोग ऐसा मानेंगे क्या कि उनके बच्चे ये काम स्कूलों में सीखें? कभी नहीं। क्योंकि उनका और उनके बच्चों का उद्देश्य परीक्षा आधारित बड़े संस्थानों में दाखिला, डॉक्टरी, इंजिनयरिंग आदि है जिससे वे बढ़िया नौकरी और सुखद जीवन बिता सकें। ये सब छोटे मोटे काम स्कूल में सिखाने का भला लोग क्यों समर्थन करेंगे। जब नई तालीम के शुरू में सामने आने के समय लोगों का यहाँ तक बहुत से नेताओं का समर्थन नहीं अधिक था तो अब क्या होगा। अब तो इन सब विचारों पे सोचना भी एक मुश्किल काम है। अब बताइए तमाम विदेशी ब्रांड्स की जकड़ में पड़े कपड़ों के शौकीन लोग भला चरखा और कतली चला कर कपड़े बनाएंगे और पहनेंगे। यह सब आज का विदेशी निवेश में विकास के सपने देख रहा भारत कहाँ करने में इच्छुक होगा। कोई बात नहीं, प्रयोग करना तो असम्भव सा है पर चाहें तो गाँधी के इन सब बातों के पीछे के बड़े विचारों को ही समझ लें तो भी बहुत है।

गाँधीजी की स्वच्छता

मार्जोरी साइक्स, जो सेवाग्राम में बहुत समय तक काम करती रहीं वे गाँधीजी की नई तालीम और स्वच्छता, भाईचारे और हर काम के महत्व को बखूबी स्टोरी ऑफ़ नई तालीम (marjorie sykes nai talim) किताब में बताती हैं। गांधीजी की स्वच्छता आस पास की स्वच्छता, तन की स्वच्छता से होते हुए मन की सफाई पर अधिक ज़ोर देती है। और उसमें झूठ व हिंसा से भी खुद को साफ़ रखने का विचार शामिल है। ना कि आज की सतही स्वच्छता जो प्रतीक बन कर रह गई है। जिसमें झाड़ू पकड़ खड़े होकर फोटो खिंचाना आसान है मगर अपनी ही पार्टी के लोगों के हिंसक विचारों और हिंसा के खिलाफ खुलकर बोलना कठिन है।

जहाँ नेता अहिंसा भड़का कर संसद और विधान सभा के रास्ते पर आसानी से बढ़ जाते हैं। और लोग उन्हें वोट भी देते हैं क्योंकि आप मानें या ना मानें हिंसा में लोगों का विश्वास अधिक है। और कुछ समूह इस हिंसा को बढ़ाने में लगे हैं, उसे जायज़ ठहराने में लगे हैं यह कहकर कि हमें अहिंसा से क्या मिला, हमारा देश कायर नहीं, आदि।

पर यह सब बहादुरी की सतही बातें हैं क्योंकि बहादुरी तो वह भी थी जब लोग स्कूल कॉलेज छोड़, नौकरियां छोड़ सड़कों पर असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े थे। जब लोग दांडी मार्च के समय में देश के अलग अलग हिस्सों में खुद पुलिस बल का निहत्थे सामना करते थे और वो भी बिना द्वेष के।

हिंसा का मार्ग दरअसल आसान होता है। पर गाँधी का अहिंसा का मार्ग खुद को जलाने, नियंत्रित करने वाला है जिससे असल में लोग डरते हैं। और इसलिए उसे निराधार बताते हैं, आज के समय में काम का नहीं बताते हैं या उससे बच कर निकलते हैं।

अभी स्वच्छता के नाम पर कई खबरें आई थीं जिनमें किसी ने किसी के खुले में शौच करने की फोटो खींच कर ज़लील किया या अधिकारियों ने उन्हें अपमानित किया। और अभी तो हद ही हो गई जब दो मध्य प्रदेश में दलित बच्चों को खुले में शौच करने के कारण पीट कर मार दिया गया। ये क्या स्वच्छता है? हिंसा पर आधारित काम स्वच्छता है क्या? मन से हिंसा गई नहीं तो सतही स्वच्छता किस काम की? जब हम किसी विचार को प्रतीक मात्र बना देते हैं तो लोगों को विचार और लोगों से ज़्यादा प्रतीक प्यारे हो जाते हैं। ऐसी स्वच्छता हमें नहीं चाहिए जिसमें लोग एक दूसरे को मार कर देश को साफ़ रखें।

झूठ पर टिके अपने राजनैतिक दलों के सोशल मीडिया समूहों से सत्ता की रोटी सेंकने वाले नेता भी देश विदेश में गाँधी गाँधी करते दिखते हैं क्योंकि आज भी देश में गाँधी का महत्व कम नहीं हुआ है। यह भले सही हो कि आज एक तबका मजबूत है जो गोडसे को हीरो बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा पर इतिहास झूठ नहीं बोलता। आप लाख इतिहास को झुठलाने की कोशिश करो पर मानसिक गुलामों को छोड़कर बाकी लोग सच की ओर ही बढ़ते हैं। और सच यही है कि एक निहत्थे बूढ़े पर गोलियाँ चलाई गई थीं जो कि हमारी आज़ादी के सूत्रधारों में से एक था। आज शायद उसके ही सपनों की वजह से हम ऐसे भारत में हैं जहाँ लोग अपनी बात रख सकते हैं। विविधता का सम्मान हमारे सम्विधान में है। गोड्से समर्थक भी खुलकर अपनी बात बोलने को स्वतंत्र हैं। पर सोचने की बात है कि आज इसी देश में गाँधी की हत्या के दृश्य की एक पुनर्रचना भी की जाती है बेशर्मी के साथ। हिंसा को दोहराया जाता है और लोग हिंसा के समर्थन में भी खड़े दिखते हैं।

सामाजिक सौहार्द्र व सद्भाव

गाँधीजी को विविधता से बहुत प्रेम था। उनके साथ दक्षिण अफ्रीका का टॉलस्टॉय फार्म हो या चम्पारण, दांडी या सेवाग्राम आश्रम, हमेशा विभिन्न बोली भाषाओँ, जाति, धर्म व क्षेत्र के लोग रहे और वे उन सबके सम्मान का ध्यान भी रखते थे। पर आज हमारे देश के हालात देखिए, कहीं किसी समुदाय के खिलाफ झूठी अफवाहें सोशल मीडिया में घूमती हैं तो चैनल व अखबार भी लोगों में धर्मनिरपेक्षता और भाईचारे पर संशय बिठा रहे हैं। और तो और हमारे नेता खुलेआम किसी धर्म सम्प्रदाय पर हमला बोलते हैं और बड़े भारी वोट पाकर जीत भी रहे हैं। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि जनता में हिंसा, गुस्सा और एक दूसरे के प्रति संशय को बढ़ावा जानबूझ कर भी दिया जा रहा है। लोग सड़कों पर लिंच किए जा रहे हैं और हम गाँधी का नाम तो सुन रहे हैं पर उनके कामों व विचारों का उदाहरण कहीं देखने को नहीं मिल रहा। आज अगर हम कुछ कर सकते हैं तो गाँधी के स्वास्थ्य, शिक्षा और स्वराज के विचारों को प्रसारित और आने वाली पीढ़ी में संचारित कर सकते हैं। गाँधी भी एक इन्सान ही थे। उनके कामों में भी हमें कमियां दिख सकती हैं। जिन्हें तार्किक रूप से बिना हिंसक हुए भी आलोचना हेतु लाया जाना चाहिए पर उससे उनके जो परिवर्तनकारी विचार हैं उन्हें ठुकराया तो नहीं जा सकता और ना ही कुतर्क और हिंसा के ज़रिए गाँधी के हत्यारों का महिमा मंडन किया जाना जायज़ होगा। ऐसे भ्रामक कुतर्कों से हम अपना और देश का ही नुक्सान करेंगे।

बाकी ऊपर लिखी बातों पर मैं यही कहूँगा कि देश के लोगों और नेताओं आप बस फोटो, पोस्टर, नारे लगा कर चिल्ला लो, थोड़ा फूलमाला गाँधीजी की तस्वीर (Gandhiji's picture) पे लगा दो और दो चार “वैष्णव जन तो” जैसे भजन वजन गा लो वही काफी है दो अक्टूबर के लिए। क्योंकि गाँधी के विचारों पर चलना...... वो तो तुमसे ना हो पाएगा।

मोहम्मद ज़फ़र

http://www.hastakshep.com/oldkashmir-will-become-indias-vietnam-war/

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