''मैंने सुबह की रोशनी में गंगा को मुस्कराते, उछलते-कूदते देखा है, और देखा है शाम के साये में उदास, काली सी चादर ओढ़े हुए, भेद भरी, जाड़ों में सिमटी-सी आहिस्ते-आहिस्ते बहती सुंदर धारा, और बरसात में दहाड़ती-गरजती हुई, समुद्र की तरह चौड़ा सीना लिए, और सागर को बरबाद करने की शक्ति लिए हुए। यही गंगा मेरे लिए निशानी है भारत की प्राचीनता की, यादगार की, जो बहती आई है वर्तमान तक और बहती चली जा रही है भविष्य के महासागर की ओर....
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'गंगा तो विशेषकर भारत की नदी है, जनता की प्रिय है, जिससे लिपटी हैं भारत की जातीय स्मृतियां, उसकी आशाएं और उसके भय उसके विजयगान, उसकी विजय और पराजय। गंगा तो भारत की प्राचीन सभ्यता का प्रतीक रही है, निशान रही है। सदा बदलती, सदा बहती, फिर भी वही गंगा की गंगा।''