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जम्मू-कश्मीर पर सरकार का फैसला : कुछ तात्कालिक विचार... Government's decision on Jammu and Kashmir: some immediate thoughts
अब जम्मू-कश्मीर का संविधान की धारा 370 के तहत विशेष राज्य का दर्जा समाप्त (Special state status of Jammu and Kashmir under Article 370 of the Constitution ended) हो गया है. साथ ही धारा 370 से जुड़ा आर्टिकल 35ए भी निरस्त हो गया है. फैसले के मुताबिक जम्मू-कश्मीर पूर्ण राज्य भी नहीं रहेगा. पूरा क्षेत्र दो केंद्र शासित इकाइयों - जम्मू-कश्मीर (विधानसभा सहित) और लद्दाख (विधानसभा रहित) - में बांट दिया गया है. सरकार ने कश्मीर की जनता को सभी तरह के संपर्क माध्यमों से काट कर और राजनैतिक नेतृत्व को नज़रबंद करके कल राज्यसभा और लोकसभा में 'जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन विधेयक, 2019' ('Jammu and Kashmir Reorganization Bill, 2019') और राष्ट्रपति द्वारा हस्ताक्षरित आधिकारिक संकल्पों (ऑफिसियल रिजोलूशंस) को पारित कर दिया. सरकार के इस फैसले के कंटेंट और तरीके को लेकर पूरे देश में बहस चल रही है.
बहस करने वालों की तीन कोटियां हैं : पहली समर्थकों की है जो भावनाओं के ज्वार में है और सरकार के फैसले के खिलाफ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हैं. दूसरी कोटि में वे लोग आते हैं जो फैसले को सही लेकिन तरीके को गलत मानते हैं. तीसरी कोटि उन लोगों की है जो फैसले और तरीके दोनों को गलत बता रहे हैं. यहां इसी कोटि को ध्यान में रख कर सरकार के फैसले पर कुछ विचार व्यक्त किये गए हैं. इस कोटि के लोगों ने संविधान और लोकतंत्र के आधार पर ठीक ही सरकार के कदम को गलत बताया है. लेकिन संविधान और लोकतंत्र का आधार लेते वक्त वे यह नहीं स्वीकारते कि पिछले 30 सालों के नवउदारवादी दौर के चलते संविधान और लोकतंत्र जर्जर हालत में पहुंच चुके हैं.
भाजपा का भारतीय जनसंघ के ज़माने से ही धारा 370 समाप्त करने, समान नागरिक संहिता लागू करने और बाबरी मस्जिद की जगह राममंदिर बनाने का एजेंडा रहा है. लेकिन संविधान और लोकतंत्र की ताकत के चलते वह ऐसा नहीं कर सकी.
1991 में खुद कांग्रेस ने नई आर्थिक नीतियों के नाम से उदारीकरण की शुरुआत करके संविधान को कमजोर करने की शुरुआत कर दी थी. (जम्मू-कश्मीर के विषय में संविधान की तोड़-मरोड़ का काम पहले से ही हो रहा था, जिस पर एक तरह से राष्ट्रीय सहमति थी. भारत के बाकी प्रदेशों में लोकतंत्र की जो कुछ खूबियां सामने आईं, वैसी जम्मू-कश्मीर में फलीभूत नहीं हो पाईं. वहां कोई करूणानिधि, लालू यादव, मायावती नहीं उभरने दिए गए.) नतीज़ा हुआ कि आज़ादी के संघर्ष और संवैधानिक मूल्यों से निसृत भारतीय राष्ट्रवाद की जगह बाजारवादी राष्ट्रवाद ने ले ली. लोकतंत्र भी बाजारवाद के रास्ते चलने लगा.
इस दौरान सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस और समस्त अस्मितावादी दलों की राजनीति पतित (डीजनरेट) हो गई. वरिष्ठ कम्युनिस्ट नेता ज्योति बसु ने ऐलान कर दिया कि विकास का रास्ता पूंजीवाद ही है. विपक्ष के पतन की सच्चाई को अमित शाह ने लोकसभा में इस तरह कहा, "नरेंद्र मोदी सरकार पर भरोसा करो, विपक्ष अपनी राजनीति के लिए झूठ बोल रहा है, उनकी मत सुनो." यह उनका कश्मीर की जनता को संबोधन था.
कांग्रेस और अस्मितावादी राजनीति का पतन होने पर एक नई वैकल्पिक राजनीति की जरूरत थी. उसके लिए विचार और संघर्ष भी शुरू हुआ. लेकिन प्रगतिशील बुद्धिजीवियों ने वह धारा पनपने नहीं दी. वे अन्ना हजारे और केजरीवाल के पीछे कतारबद्ध हो गए, जो भ्रष्टाचार मिटाने का आह्वान करते हुए एनजीओ की दुनिया से आए थे. प्रकाश करात का 'लेनिन' जम्मू-कश्मीर पर लिए गए फैसले और उसके तरीके पर सरकार के समर्थन में है. यह माहौल और मौका आरएसएस/भाजपा के लिए मुफीद था. उसने पतित राजनीति के सारे अवशेष इकठ्ठा किये और तप, त्याग, संस्कार, चरित्र आदि का हवाई चोला उतार कर नवउदारवाद के हमाम में कूद पड़ा. लगातार दूसरी बार बहुमत मिलने पर उसे धारा 370 हटानी ही थी.
नए कानून के विरोधी आगे भयावह भविष्य की बात कह रहे हैं. अपने घरों में कैद कश्मीर की जनता के लिए यह वर्तमान ही भयावह है. आज जो वर्तमान है, वह 1991 में भविष्य था. यह नहीं होता, अगर भारत का इंटेलीजेंसिया लोगों को बताता कि नई आर्थिक नीतियां संविधान और लोकतंत्र विरोधी हैं. इनके चलते देश की जनता का भविष्य भयावह हो सकता है. हमारे दौर की केंद्रीय दिक्कत यही है कि इंटेलीजेंसिया इसके बाद भी नवउदारवादी नीतियों के विरोध में नहीं आएगा. जो विकास के पूंजीवादी मॉडल के विरोध की बात हमेशा करते पाए जाते हैं, अभी तक का अनुभव यही है, वे ऐसा फंडिंग और पुरस्कारों के लिए करते हैं. ताकि कार्यक्रम चलते रहें और नाम के आगे फलां पुरस्कार विजेता लगाया जाता रहे.
गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में बोलते हुए कश्मीरियों के लिए विकास का जो सब्जबाग दिखाया है, उसमें भारत के इंटेलीजेंसिया का यकीन है. अमित शाह जानते हैं कि जम्मू क्षेत्र के हिन्दुओं को घाटी में चल-अचल संपत्ति खरीदने की मनाही नहीं है. लेकिन पिछले 70 सालों में ऐसा कुछ नहीं हो पाया है. घाटी से विस्थापित कश्मीरी पंडित अलबत्ता तो लौटने से रहे; उनमें से कुछ लौटेंगे भी तो व्यापार करने नहीं. आगे चल कर अमित शाह कह सकते हैं कि घाटी में विदेशी निवेश आमंत्रित किया जाएगा. बड़ी पर्यटन कंपनियों के घाटी में आने की संभावना उन्होंने अपने भाषण में व्यक्त की ही है. यानी बाजारवादी राष्ट्रवाद अब घाटी और लद्दाख में भी तेजी से पहुंचेगा. हो सकता है अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प से इसकी अनुमति पहले ही ले ली गई हो!
यह फैसला नोटबंदी जैसा ही नाटकीय है. गृहमंत्री ने कहा कि जम्मू-कश्मीर में भ्रष्टाचार, गरीबी, आतंकवाद - सबके लिए धारा 370 जिम्मेदार है. देश में बड़ी संख्या में लोग मान रहे थे कि प्रधानमंत्री की दौड़ से अचानक बाहर धकेले गए लालकृष्ण अडवाणी को आरएसएस/भाजपा राष्ट्रपति बनाएगी. उन्हें लगता था कि 'परिवार' में बड़ों का सम्मान नहीं होगा तो कहां होगा! लेकिन ऐसा नहीं किया गया. जम्मू-कश्मीर को लेकर कल के फैसले और तरीके पर वे शायद तैयार नहीं होते.
जम्मू-कश्मीर के साथ पाक-अधिकृत कश्मीर और पाकिस्तान हैं. देश के भीतर हिंदू-मुसलमान और सीमा पर भारत-पाकिस्तान - बाजारवादी राष्ट्रवाद की यह स्थायी खुराक बनी रहेगी. वरना चीन के कब्जे में भारत की 20 हज़ार वर्गकिलोमीटर भूमि है, जिसे वापस लेने का संकल्प संसद में सर्वसम्मति पारित है. इस फैसले से यह फैसला भी हो गया है कि पाकिस्तान अब अधिकृत कश्मीर के साथ जो करना चाहे कर सकता है. फैसला होने से पहले तक जम्मू-कश्मीर विधानसभा में पाक अधिकृत कश्मीर के प्रतिनिधियों के लिए 24 खाली सीटें थीं. ताकि उसका भारत में विलय होने पर उन्हें भरा जा सके. सभी जानते हैं कि जम्मू-कश्मीर का मसला अंतर्राष्ट्रीय अदालत में है. वहां भी इस फैसले की गूंज पहुंचेगी. हो सकता है सरकार ने वहां मामला शांत करने के लिए अमेरिका की कोई शर्त मानने की स्वीकृति दी हो?
कश्मीर की जनता को अलगाववादियों की भूमिका पर भी सीधा सवाल करना चाहिए. राज्य में लोकतंत्र के खात्मे में सरकार के साथ उनकी भी बराबर की भूमिका है. अगर वे मानते हैं कि उनके पुरखों ने पाकिस्तान के बजाय सेक्युलर भारत में रहना चुना तो हिंदू-मुस्लिम अलगाव की खाई को पाटना होगा. अलगाववादी और आतंकवादी यह खाई बनाए रखना चाहते हैं. इस सब में जम्मू क्षेत्र के हिंदू नागरिकों की भूमिका अहम है. आशा करनी चाहिए कि वे यह भूमिका निभायेंगे.
यह सही है कि श्यामाप्रसाद मुखर्जी से लेकर मुरलीमनोहर जोशी तक अपना एजेंडा लेकर श्रीनगर जाते रहे हैं. लेकिन गांधीवादियों ने भी कश्मीरियों की सहायता और सहानुभूति के कम प्रयास नहीं किए हैं.
कश्मीर की जनता को यह समझना होगा कि इस फैसले के लिए केवल उन्हें ही नहीं, देश की बाकी जनता को भी भरोसे में नहीं लिया गया. ऐसी खबर है कि सरकार के कुछ मंत्रियों को भी पता नहीं था. उसे उत्तेजित होने की जरूरत नहीं है. वह नए नेतृत्व और राजनीति का निर्माण कर सकती है, जिसके लिए लोकतंत्र ही रास्ता है. उसे समझना होगा कि स्वायत्तता पूरे भारतीय राष्ट्र की दांव पर लगी हुई है. अपने संघर्ष को उसे नवसाम्राज्यवाद से लड़ने वाली देश की जनता के साथ मिलाना होगा. गांधी के देश में संघर्ष का अगला चरण अहिंसा और सत्याग्रह पर आधारित सिविल नाफ़रमानी हो, जिसमें पूरे राज्य के नागरिक हिस्सेदारी करें.
प्रेम सिंह