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लोग
भूले नहीं है करीब ढाई तीन साल पहले तक दिल्ली के जंतर मंतर (Jantar
Mantar of Delhi) से
लेकर रामलीला मैदान (Ramlila Maidan) तक अपना तिरंगा लहराता था और वंदेमातरम का
नारा गूंजता था। भ्रष्टाचार के खिलाफ अण्णा हजारे का लोकपाल आंदोलन (Anna
Hazare's Lokpal agitation against corruption) देश में दूसरी आजादी की लड़ाई लड़ने का दावा कर
रहा था। अण्णा हजारे को गांधी तो अरविंद केजरीवाल को उनका नेहरु तक माना जा
रहा था। रोज नये विशेषण नयी रणनीति सामने आती। जिसकी प्रतिक्रिया में देश के
विभिन्न हिस्सों में नौजवान खड़ा हुआ और एक बड़े बदलाव की उम्मीद बनी थी। हजारे जब जेल गये तो तिहाड़ ही घेर लिया
गया था।
चौहत्तर
के जेपी आंदोलन के बाद यह पहला बड़ा आंदोलन था। फिर आंदोलन का रास्ता बदला, साथी बदले और नौजवानों की एक टीम दिल्ली की
सत्ता तक पहुंच गयी। भाजपा के मौजूदा शीर्ष नेता नरेंद्र मोदी के उभार के दौर में
केजरीवाल ने भाजपा का दिल्ली में सफाया कर दिया। यह सब उस आंदोलन से पैदा हुई आग
का ही असर था। पर सत्ता में वे आये तो फिर और बदलाव आया। भाषा बदली, संस्कृति बदली तो कामकाज का तौर तरीका भी बदला।
फिर टूट हुयी और आंदोलन से जुड़ा दूसरा धड़ा भी आम आदमी पार्टी से निकल गया। योगेंद्र यादव, प्रोफ़ेसर आनंद कुमार से लेकर प्रशांत भूषण तक
बाहर चले गये। हालांकि जब इस पार्टी का चाल चरित्र और चेहरा बदला तो समाजवादी धारा
से निकले योगेंद्र यादव का समाजवाद भी बदल चुका था, कुछ पहले ही। बाद में वे तो समाजवाद शब्द तक को भी बदलने पर जोर देने
लगे थे।
खैर
इससे पहले जन आंदोलनों के कई बड़े चेहरे इस पार्टी के गठन से पहले ही आंदोलन से अलग
हो चुके थे। मेधा पाटकर,
संतोष हेगड़े, डा सुनीलम, राजेंद्र
सिंह से लेकर पीवी राजगोपाल तक। जो बचे उन्होंने जो रास्ता चुना उसके चलते हाल
ही में इस आंदोलन के नायक अण्णा हजारे ने रालेगण सिद्धि में कहा, 'मैं यह देख कर बहुत दुखी हूं कि दिल्ली के
मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के कुछ सहयोगी जेल जा रहे हैं, जबकि कुछ अन्य 'धोखाधड़ी में शामिल हैं।
हजारे
ने कहा,
'मुझे बहुत पीड़ा पहुंची है। वह
(केजरीवाल) जब मेरे साथ थे तो उन्होंने ग्राम स्वराज पर एक पुस्तक लिखी थी। क्या
हम इसे ग्राम स्वराज कहेंगे? इस
कारण मैं बहुत दुखी हूं। मैं जिस आशा के साथ केजरीवाल को देख रहा था, वह समाप्त हो गई।'अण्णा हजारे की यह टिप्पणी सब कुछ कह दे रही है, हालांकि इसके लिये वे भी कम जिम्मेदार नहीं है। जिस आंदोलन को बुनियादी बदलाव की दिशा
में ले जाना चाहिये था वह दरअसल सिर्फ लोकपाल तक सीमित कर दिया गया। देश के किसानों, मजदूरों और आदिवासियों को लेकर कोई दृष्टि नहीं थी। आंदोलन की राजनैतिक दृष्टि भी साफ़ नहीं
थी न ही हजारे की राजनैतिक दृष्टि साफ़ थी। जिसका नतीजा सामने है। जो भी मिला जैसा भी मिला सब आंदोलन से
लेकर सत्ता तक साथ आ गया। बदमिजाज भी तो बददिमाग भी। जब एक सांसद शराब पीकर संसद जाने लगे
तो समझ लेना चाहिये कि इस पार्टी ने किस तरह का रास्ता बनाया था।
पिछले
दो साल में पार्टी के कई नेताओं की टिपण्णी और सार्वजनिक व्यव्हार को देख ले तो
ज्यादा उम्मीद नजर नहीं आती। अरविंद केजरीवाल को अभी भी सोचना चाहिये कि
उनसे देश ने बहुत उम्मीद लगा रखी है। अगर उन्होंने अपने विधायको और नेताओं को नहीं
संभाला तो जो लोग उन्हें सत्ता तक ले आये हैx वे बाहर का रास्ता भी दिखा देंगे। सिर्फ ग्राम स्वराज पुस्तक लिखने से
कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। आप अपने जीवन में उसे किस रूप में ले रहे हैं यह ज्यादा
महत्वपूर्ण है।
केजरीवाल का ज्यादा समय एलजी से लड़ने भिड़ने में गया है। यह सही है कि केंद्र सरकार केजरीवाल सरकार को अस्थिर करने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं देती। पर इस सबके बावजूद अरविंद केजरीवाल को अपने अहंकारी और बडबोले नेताओं पर जिस तरह का अंकुश लगाना चाहिये था वह उन्होंने नहीं लगाया। जिस तरह के आरोप अब उनके विधायक, मंत्री और नेताओं पर लग रहे हैं उससे लोगों का आम आदमी पार्टी से मोहभंग हो रहा है। एक महिला को लेकर उनके मंत्री जिस तरह के विवाद में फंसे हैं वह दुर्भाग्यपूर्ण है। इसके बाद बचाव में जिस तरह का तर्क कुतर्क मीडिया से लेकर सोशल मीडिया पर किया जा रहा है उसकी उम्मीद इस पार्टी से लोगों को नहीं थी। क्योंकि यह एक जन आंदोलन से निकली पार्टी है। यह उन आम राजनैतिक दलों से अलग मानी जाती है जिसके नेता भ्रष्ट, व्यभिचारी, माफिया या बाहुबली भी होते हैं।यह तो आम आदमी की पार्टी है। इसमें तो आम आदमी की सुनी जानी चाहिये। वर्ना क्या फर्क रहेगा दूसरे दलों में और आप में। इस तथ्य को केजरीवाल को समझना चाहिये।
अंबरीश
कुमार
(शुक्रवार)