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‘अपना टाइम आयेगा’ की कविता : कविता पर कवियों की बपौती के सिद्धांत की धज्जियाँ उड़ाती है ‘गली बॉय’

‘अपना टाइम आयेगा’ (apna time aayega) - जुनून की नैतिकता का आप्त कथन। प्रमाद ग्रस्त आदमी (laxity suffering man) विद्रोह के जरिये सामान्य नैतिकता को चुनौती देता है और जुनूनी अपनी आत्मलीनता से सामान्य के प्रति उदासीन होकर उससे इंकार करता है।

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अरुण माहेश्वरी
25 Feb 2019 एडिट 02 Apr 2023
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जोया अख्तर की बहुचर्चित फिल्म ‘गली बॉय’ की फिल्म समीक्षा

जोया अख्तर की बहुचर्चित फिल्म ‘गली बॉय’ की फिल्म समीक्षा

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‘अपना टाइम आयेगा’ (apna time aayega) - जुनून की नैतिकता का आप्त कथन। प्रमाद ग्रस्त आदमी (laxity suffering man) विद्रोह के जरिये सामान्य नैतिकता को चुनौती देता है और जुनूनी अपनी आत्मलीनता से सामान्य के प्रति उदासीन होकर उससे इंकार करता है। दोनों ही राजनीतिक सठीकपन के विरुद्ध रचनाशीलता की उड़ान की जमीन भी तैयार करते हैं। राजनीतिक सठीकपन यथास्थिति है तो विद्रोह और जुनून बदलाव। उत्पीड़ित जनों की मुक्ति का पथ। जैसे होता है प्रेम का अपना मुक्त संसार (Love's own free world)।

-अरुण माहेश्वरी

आज हमने जोया अख्तर की बहुचर्चित फिल्म ‘गली बॉय’ (Zoya Akhtar's well-known film 'Gully Boy') देखी। मुंबई के धारावी के नर्क में पलते प्रेम और जुनून की फिल्म। मुराद (रणवीर सिंह) और सोफिया (आलिया भट्ट) के प्रेम के मुक्त जगत के साथ ही मुराद के रैप संगीत (rap music) के जुनून की फिल्म। दोनों ने ही धारावी के परिवेश के दबाव से पिस रहे चरित्रों की अनोखी भूमिका अदा की है। आदमी की दमित कामनाओं की जुनूनी शक्ति को मूर्त कर दिया है। जुनून से व्यक्तित्वों के रूपांतरण को बखूबी उकेरा है।

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इस बेहतरीन फिल्म के जिस पहलू ने वास्तव में हमारा मन मोह लिया वह था - जीवन में कविता और संगीत की एक अदम्य लालसा का पहलू। रैप के उदय की प्रक्रिया को खोल कर यथार्थ और कविता के बीच के रिश्तों के जैसे एक बिल्कुल नये आयाम को रखा गया है। कविता पर कवियों की बपौती के सिद्धांत की धज्जियाँ उड़ाते हुए इससे पद्य में ही तमाम गद्य की गति का एक गहरा संदेश दिया गया है। न कविता कवि कहलाने वाले लोगों की और न ही संगीत किसी एकांतिक साधक की इजारेदारी का क्षेत्र है। जीवन के आनंद की खोज में कविता और संगीत के सोते तमाम बाधाओं के बीच भी स्वत: फूट पड़ते हैं।

इस फिल्म में रैप से पता चलता है कि क्यों पठनीयता बनाये रखने के लिये ही हर पाठ का काव्यमूलक कायांतरण ज़रूरी हेता है। क्यों कविता रचना में जीवन के यथार्थ की अभिव्यक्ति की एक सर्वप्रमुख माँग है।

जॉक लकान ने लिखा है कि यथार्थ का स्वरूप कितना भी प्रगट क्यों न हो जाए, उसका सबसे मुख्य मौलिक अंश साधारणत: छिपा रहता है। पर्दे के पीछे छिपे उस अंश को देखने के लिये ही आनंदवाद के सिद्धांत की, गुनने-समझने अर्थात केंद्रित होने की जरूरत होती है।

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वास्तव में यह यथार्थ से मुठभेड़ का खास क्षण होता है। रैप इस यथार्थ पर पड़े पर्दे को नोच फेंकने वाला संगीत है। यह एक झटके में जैसे आपको यथार्थ की भंवर में ठेल देता है। सत्य से साक्षात्कार का यही क्षण बताता है कि जिंदगी कोई सपना नहीं है, जैसा कि अक्सर कुछ लोग कहा करते है।

कहना न होगा, इस सुगठित फिल्म के एक-एक फ्रेम अनायास ही सत्यजीत राय, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन, विमल राय और श्याम बेनेगल की फ़िल्मों की याद दिलाते हैं। श्रेष्ठ फिल्में अन्तरनिहित यथार्थ के संगीत से निर्मित कविताओं की तरह होती है तो बाज़ारू फ़िल्में अध्यापकीय और अफ़सरान कवियों की कविताओं की अश्लीलताओं की तरह। यह फिल्म जोया अख्तर को हमारे समय के श्रेष्ठ फिल्म निदेशकों की कतार में खड़ा कर देती है।

गली ब्वाय’ में रचे गये रैप के प्रतिवाद के स्वरों का काव्य शास्त्र इस फिल्म को हमारे लिये बहुत विशेष बना देता है।

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25.02.2019

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