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मैं बहुत छोटा था, तभी एक बार गांव में हिमालय से आये एक साधु के दर्शन (Visitation of a monk from the Himalayas) की धूम लगी थी। गांव में तब पढ़ा लिखा कोई था नहीं। बंगाल के दलित शरणार्थी विस्थापितों की पुनर्वास कालोनी (Rehabilitation Colony of Dalit Refugee Migrants of Bengal) की युवा पीढ़ी का बचपन भारत विभाजन की त्रासदी (Tragedy of partition of india in Hindi) से खून सना था और उसमें कोई आखर दर्ज होने का वक्त मिला ही न था।
जब उस साधू ने मुझे देखकर कहा कि यह बालक कलम घसीटता रहेगा, तो पता नहीं हमारे गांव के लोगों ने क्या सोचा होगा।
मेरे पिता कम्युनिस्ट थे और अंबेडकरवादी भी। चाचा नास्तिक। ताऊ जी संगीत में रचे बसे रहते थे लेकिन धर्मांध नहीं थे। मां, चाची और ताई उस जमाने के हिसाब से दो चार दर्जे तक पढ़ी लिखी जरूर थीं और स्वभाव से किसान घरों की महिलाओं की तरह धार्मिक और कर्मकांडी थी। हमारी दादी तो तमाम पर्व और तीज मनाया करती थीं।
गांव वाले साधु के वचन को सत्य मानते रहे हैं और जानते रहे हैं कि मैं जरूर पढ़ने लिखने वाला हूं। पिता को न खुशी थी और न मायूसी।
मैं बचपन में अपने चाचा का चेला था। हमारा काम था, कर्मकांड में बाधा डालना और अंध विश्वास की धज्जियां उड़ाना।
मैंने तब गांव वालों को बताया था कि कलम का मतलब हल है। मुझे जिंदगी भर खेत जोतते रहना है, साधू यही कह रहे हैं।
मेरे पिता खुद पढ़ने लिखने का मौका बना नहीं सके, फिर भी बांग्ला, हिंदी, अंग्रेजी, उड़िया और असमिया के अलावा मराठी के पत्र पत्रिकाओं में रमे रहते थे। विभाजन से पहले सीमा पार आकर कैशोर्य में सिनेमा हाल में लोगों को सीटें दिखाने में कई वर्ष बिताने की वजह से वे सिनेमा के शौकीन भी थे। उन्हें भी घर और गांव के बच्चों के पढ़ाने लिखाने का सपना तंग किया करता था। मैंने इसी मौके का फायदा उठाया।
लेकिन मेरे पिता और मेरे गांव बसंतीपुर के लोग साठ के दशक तक पढ़ने लिखने से रोजगार को जोड़ते न थे।
स्कूल में बच्चे के दाखिला के लिए शिक्षक के सामने पेश करते हुए, ठेठ पूर्वी बंगाल की देशज भाषा में उनका निवेदन यही होता था, इस बच्चे के चक्षु खोलने का इंतजाम कर दीजिये। पीट पाटकर इसे मनुष्य बना दीजिये। जैसा वे कहते थे, उससे ज्यादा उनकी कोई आकांक्षा लेकिन होती न थी।
वे मानकर चलते थे कि इन बच्चों को आखिर खेत में ही खपना है। खेती में खपाने की प्रक्रिया में कोई छूट उस जमाने में किसान परिवारों के बच्चों को शायद ही मिलती थी।
हम बच्चे तब पालतू जानवरों के इंचार्ज हुआ करते थे और हमारी प्रिय सवारी भैंस होती थी। खेतों खलिहानों में कलेवा पहुंचाने की भी जिम्मेदारी हमारी और वहां हो रहे काम काज में सीखना, हाथ बंटाना हमारे लिए कम अनिवार्य न था। पुरस्कारों का रिवाज तो था नहीं, सजाएं जरूर मिलती थीं चूक हो जाने या बहाना बनाते हुए पकड़े जाने पर।
उस जमाने में बंगाल से आये तमाम दलित शरणार्थी आरक्षण के बेहद खिलाफ थे और वे सीधे रवींद्र, नेताजी और विवेकानंद के वंशज बताते थे अपने को।
अपढ़ घरों में साहित्य का भंडार हुआ करता था।
शायद अब लोगों को यकीन न हों, लेकिन तब भारत विभाजन की त्रासदी झेलने के बावजूद वे लोग इस उपलब्धि से खुश थे कि अब उन्हें कोई न चंडाल कहेगा और न पोद।
जिस जाति और नस्ली भेदभाव के वे सदियों से शिकार थे, उसकी जंजीरें अचानक टूट गयी थीं और पुरानी पीढ़ियों की दर्द भरी यादों की जुगाली वे भूलकर भी नहीं करते थे और न रिजर्वेशन के जरिये जाति और नस्ली अस्मिताओं में कैद होने को तैयार थे।
हालत यह थी कि बंगाल में करीब पैंतीस साल की उम्र में पहुंचने से पहले मुझे खुद अंदाजा न था कि हमारी जातीय हैसियत दरअसल क्या है।
पचास और साठ के दशकों में विभाजन त्रासदी से उबरने वालों के बच्चे सारी हीनता और कुंठाओं से मुक्त थे और बंगाल से बाहर देश भर में अन्य समुदायों के बच्चों के मुकाबले में वे किसी मामले में कम नहीं रहे।
अगर मैं यह दुस्साहस करूं और कहूं कि हमारे वे तमाम अपढ़ अधपढ़ बुजुर्ग दरअसल अंबेडकर अनुयायी सच्चे थे और जाति उन्मूलन के एजंडे के मुताबिक ही काम कर रहे थे, तो शायद हम पर जूतों चप्पलों की वर्षा होने लगे।
हमने नैनीताल की तराई में अपने गांव और दूसरे गांवों में कम से कम दो अनुष्ठान गैर वैदिकी निरंतर होते देखे हैं, जो शायद अब नहीं होते।
हांलांकि उन दिनों भी तराई में जंगल का वजूद कायम था और मेरे गांव में सुंदरवन वाले हिस्से के खुलना के लोग ज्यादा थे, तो वन बीबी की पूजा बहुत धूमधाम से होती थी।
कर्मकांड कुछ भी नहीं, जंगल में जीवन और आजीविका की सुरक्षा के लिए सारे गांव के लोगों का सामूहिक वनभोजन।
दूसरा अनुष्ठान था, प्रेत पूजा का।
खेतों और खलिहानों में दिवंगत आत्माओं के नाम मिष्ठान्न उत्सर्ग करने का गैरवैदिकी अनुष्ठान। इन अनुष्ठानों से मृतात्माओं को वैमन्स्य से बाज आने का आवाहन भी किया जाता रहा है।
इस अनुष्ठान का असली मतलब मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में मृतात्मा प्रसंग पढ़ने से समझ में आया।
उन दिनों बंगाल में महामारी से बचने के लिए प्रचलित रक्षाकाली और शीतला तो चप्पे चप्पे पर सांपों से सुरक्षा के लिए विषहरी मनसा पूजा की धूम लगी रहती थी।
बंगाल की साझा संस्कृति के धारक वाहक थे वे लोग तो ठाकुर पीर और फकीरों के नाम सिन्नी का भी खूब प्रचलन था।
मतुआ धर्म के प्रवर्तक हरिचांद ठाकुर (Harichand Thakur, promoter of Matua religion) और अस्पृश्यता मोचन के लिए बंगाल में कामयाब चंडाल आंदोलन (Chandacal movement) के महानायक गुरुचांद ठाकुर (Guruchand Thakur) दोनों कर्म कांड के खिलाफ थे, ब्राह्मणवाद के विरुद्ध थे और किसानों के हक हकूक की लड़ाई लड़ने वाले थे।
भूमि सुधार, मतुआ आंदोलन के एजेंडे पर सबसे ऊपर था स्त्री शिक्षा के साथ-साथ।
मतुआ आंदोलन धार्मिक नहीं, एकमुश्त कृषक और शिक्षा आंदोलन था। जिसकी कोई सानी नहीं थी।
खुद हरिचांद ठाकुर नील विद्रोह के नेता भी थे।
हरिचांद-गुरुचांद, दोनों ने हिंदू धर्म को ब्राह्मण धर्म बताया और दोनों धर्मांतरण के खिलाफ थे। उन्होंने तो बंगाल में ईसाई मिशनरी को मतुआ आंदोलन का सहयोगी बना लिया था। लेकिन खासकर गुरुचांद ठाकुर को बौद्धमय भारत के अवसान का खास अफसोस था और वे चीन जापान और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में जाति नस्ल के खात्मे के लिए बौद्ध धर्म की भूमिका के प्रशंसक थे।
दरअसल इस पर अभी तक कोई शोध हुआ ही नहीं है कि गौतम बुद्ध के शील का भारत में सामाजिक आंदोलनों पर क्या-क्या असर हुए हैं।
मतुआ आंदोलन के बारे में तो लोगों को बेहद कम मालूम है।
इधर हमारे मित्र आनंद तेलतुंबड़े का एक अंगेजी लेख का हिंदी अनुवाद नेट पर जारी करने से तीखी प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं। बसपा के लोकसभाई प्रदर्शन के आधार पर उत्तर प्रदेश और बाकी देश में जाति अंक गणित बीज गणित का खुलासा किया है उन्होंने और जाति संघर्ष का मानचित्र भी पेश किया है।
जनसंख्या के हिसाब से उन्होंने साबित किया है कि मौजूदा राष्ट्रतंत्र में अस्मिताएं तो हैं, जनप्रतिनिधित्व सिरे से गायब हैं।
यह बेहद महत्वपूर्ण मुद्दा है, फेसबुक माध्यमे हमने टुकड़ा-टुकड़ा लाइन दर लाइन इस बहस को मोबाइल नेटवर्क जरिये फैलाने का प्रयास किया है।
लेकिन इस बहस को हमारे पढ़े लिखे लोग बसपा और बसपा विरोधी नजरिये से देख रहे हैं क्योंकि राष्ट्रतंत्र और राष्ट्रवाद के तिलिस्म से बाहर निकलकर अपढ़ गांव वालों की तरह सहज ज्ञान और विवेक से काम लेने के वे अभ्यस्त हैं नहीं।
मीडिया में पूरी जिंदगी खपा देने के बाद हमें यह तो मालूम है कि क्या लिखने, बोलने से तत्काल धनवर्षा हो सकती है और हम जानते हैं कि हमारे तमाम आदरणीय लोग किस दक्षता से धनवर्षा के लिए रेडीमेड डिजाइन माल मीडिया और साहित्य में खपाते रहे हैं। दिमाग धोने के धोनी हैं वे अब जो होनी है वे उन्हीं की कारस्तानी है और अनहोनी कतई नहीं होनी है।
हम मुद्दों को ठीक ठीक जनता के बीच ले जाने की दिशा भी खो चुके हैं। क्योंकि हमारा पढ़ा लिखा कामयाब मलाईदार तबका उग्र हिंदुत्व ब्रिगेड है, इसलिए देशबेचो जनसंहारी एजंडा की बल्ले बल्ले!
गौर फरमायेः
हस्तक्षेप पर मेरे आलेख की प्रतिक्रिया में फेसबुक पोस्ट का एक नमूनाः
Ranveer Ranveer
6:30am Jun 27
हिन्दुस्तान के हर गली, हर मुहल्ले, हर चौक, हर चौराहे, हर गाँव, हर शहर से हर कट्टर हिन्दू हमारे संगठन से जुडो साथियों हमारे इस संगठन में मैं अकेला नहीं बल्कि मेरे साथ 750 कट्टर हिन्दू युवा साथी मेरे साथ है... हम अगर चाहें तो पुरे देश में क्रान्ति ला सकते है... जरुरत है तो एक सोंच की एक उद्देश्य की हमारा उद्देश्य Facebook पर ग्रुप बना कर Like या Comment बटोरने की नहीं है ये तो एक जरिया है जिसके सहारे हम देश के हर कट्टर हिन्दू युवाओं को एक साथ जोड़कर अपने देश और अपने धर्म की रक्षा कर सके हमें अपनी मदद खुद करनी होगी हमें किसी सरकार किसी नेता पर भरोसा नही करना चाहिए की वो हमारा साथ देंगे अगर किसी की सरकार ने हम हिन्दुओं की मदद की होती तो आज हमारे देश में गो हत्या नहीं होती, सरकार का काम सिर्फ कागजो पर ही रह जाता है.. जो करना है हमें करना है.. मैं देश के हर कट्टर हिन्दू युवाओं से यही कहूँगा की हमारा साथ दे हमारा उद्देश्य क्या है आज आपलोगों से इसे Share कर रहा हूँ जिन्हें ये पसंद हो वो मेरा साथ दे..
- कश्मीर को धारा 370 से मुक्त करना है
- गो हत्या पर रोक लगाना है
- बलात्कार करने वालों को सिर्फ फांसी होना चाहिए चाहे वो बालिग हो या नाबालिग
- हिन्दुस्तान में पाकिस्तानी झंडा लहराने वाले को देशद्रोही घोषित कर फांसी दिया जाना चाहिए
- कश्मीर को पाकिस्तान और चीन के चंगुल से मुक्त करना है
- इन जिहादियों के खिलाफ हमारा एक ही जिहाद है जिहादी ख़त्म जिहाद ख़त्म
अब आप लोग तय कीजिये की कौन हमारा साथ देंगे जरुरत पड़ने पर हमें खून भी बहाना पड़ेगा चाहे अपना या फिर अपने मुल्क अपने धर्म के दुश्मनों का
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