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हिमालय में जलवायु परिवर्तन का बढ़ता खतरा-1
हिमालयी पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन - Himalayan Environment and Climate Change
आज मानव अति भौतिकवादिता तथा व्यक्तिगत स्वार्थों की इतनी निकृष्ट पराकाष्ठाओं पर पहुंच गया है कि वह स्वयं अपनी जाति तथा अन्य प्राणियों का शोषण करने के बाद प्रकृति का शोषण करने पर भी आमादा है। प्रकृति के अनुचित दोहन तथा शोषण के चलते पर्यावरण प्रदूषण (environmental pollution) जैसी समस्यायें विकराल होती जा रही है, जिनके कारण जलवायु परिवर्तन तथा ग्लोबल वार्मिंग (Climate change and global warming) जैसी अन्य विसंगतियां जन्म ले रही है।
विशेषज्ञों तथा वैज्ञानिकों की राय के अनुरूप अगर प्रदूषण की मौजूदा दर इसी प्रकार बढ़ती रही तो वह दिन दूर नहीं जब पृथ्वी समय से पूर्व ही जीवन विहीन हो जायेगी।
The melting of snow in the Himalayan regions will create problems of irrigation, drinking water and hydroelectricity.
बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण से आने वाले कुछ दशकों में ध्रुवों की बर्फ पिघल जायेगी, जिससे महासागरों के जल स्तर में वृद्धि होने से कई समुद्र तटीय शहर जल समाधि ले चुके होंगे। मौसम तथा जलवायु का चक्र टूट जायेगा, जिससे खाद्यान उत्पादन बुरी तरह प्रभावित होगा।
हिमालयी क्षेत्रों की बर्फ पिघलने से सिंचाई, पेयजल तथा जलविद्युत उत्पादन की समस्या विकराल रूप धारण कर लेगी। अनेक जीवन तथा वनस्पतियां विलुप्त हो जायेंगी। प्रदूषण, तापमान वृद्धि, अम्लीय वर्षा तथा अनियमित मौसम चक्र के कारण जहां परम्परागत रोगों का प्रकोप बढ़ जायेगा, वहीं कई अन्य रोग उत्पन्न हो जायेंगे। इसके अलावा पूरे विश्व में भयंकर ऊर्जा संकट पैदा हो जायेगा।
Increasing risk of climate change in Himalayas
विश्व का पुरातन इतिहास इस बात का साक्षी है कि, सभी धर्म व विचारधारायें यह मानती रही है कि, स्वच्छ वातावरण किसी भी समुदाय या स्थान विशेष के समग्र विकास के लिए अति आवश्यक है।
व्यावहारिक जीवन में हम देखते हैं कि कोई भी महत्वपूर्ण कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व अपने-अपने धर्म के अनुसार इष्टदेवों के आह्वान करने का प्रचलन पुराने समय से ही रहा है। इसके पीछे उन प्राकृतिक तत्वों, जैसे- वायु, जल, पृथ्वी, वन, खनिज सम्पदा आदि के प्रति आदर प्रकट करना भी था। सदियों से ऐसा करते-करते वर्तमान मंे हम दुर्भाग्यवश ऐसी स्थिति में आ पहुंचे हैं, जहां विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन अविवेकपूर्ण ढंग से हो रहा है।
सम्पन्नता की होड़ में प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुंध दोहन किया गया। उसका परिणाम आज शहरों व कस्बों में वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण एवं जल प्रदूषण, मौसम चक्रों में परिवर्तन, वैश्विक स्तर पर बढ़ता तापमान, जल स्तर का लगातार नीचे जाना आदि अनेक पर्यावरणीय विसंगतियों के रूप में दिखाई देने लगा है।
औद्योगीकरण की इस भोगवादी दौड़ में आम विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का जिस क्रूरता से दोहन किया जा रहा है, वहां मानवता का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। विकास के लिए हम प्राकृतिक परिणामों की चिन्ता किये बगैर प्रकृति के नियमों के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं, उसके परिणाम विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं के रूप में सामने आ रहे हैं।
आज मानव समाज की जो क्षीणता हमें नजर आती है, उसके पीछे हमारी सोच काम कर रही है कि प्रकृति की प्रत्येक वस्तु केवल मनुष्य मात्र के उपभोग के लिए ही है। विकास मानव की केवल भौतिक आवश्यकताओं से नहीं, बल्कि उसके जीवन की सामाजिक दशाओं में सुधार से संबंधित होना चाहिये।
स्पष्ट है कि विकास के लिए अनुकूल वातारण आर्थिक विकास की पहली शर्त मानी जा रही है, जो चिंता की बात है।
Development and environment are not opposed to each other, but complement each other.
विकास और पर्यावरण एक-दूसरे के विरोधी नहीं है, अपितु एक-दूसरे के पूरक हैं। एक संतुलित पर्यावरण के माध्यम से ही विकास के प्रयास रह सकते हैं, तभी मानव जीवन सुखी रह सकता है। यह सही है कि विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन आवश्यक है, लेकिन विकास की इस अंधी दौड़ में मनुष्य प्रकृति के संसाधनों का दोहन इतनी तीव्रता से कर रहा है कि पृथ्वी के जीवन को पोषित करने की क्षमता तेजी से नष्ट हो रही है। वर्तमान समय में मनुष्य जमीन, जायदाद के पीछे खून-खराबा करता हुआ नजर आ रहा है, यदि हम अपने प्राकृतिक संसाधनों के लिए अब भी नहीं चेते तो शायद जल व खाद्य-पदार्थों के लिए भविष्य में लड़ते हुये नजर आयेंगे। प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग हमारे अस्तित्व को समाप्त कर देगा। अतः अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए हमें अपने प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण करने की सख्त आवश्यकता है।
Increasing danger of global warming
ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते खतरे से परेशान विश्व के सामने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन (Emissions of greenhouse gases) में कमी लाना आज सबसे बड़ी जरूरत बन गई है। विकासशील देशों की अपेक्षा विकसित देशों में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन अधिक हुआ है। इसके लिए सूखे प्रदेशों में जंगलों की रक्षा करना जरूरी है।
पर्यावरण अलग-अलग महाद्वीपों या देशों की तरह सीमाओं में नहीं बंटा है, सारी दुनियां का जीवन धरती के पर्यावरण पर निर्भर है। जीव-जन्तु और प्रकृति में बहुत नजदीकी संबंध है। सब एक-दूसरे पर निर्भर है। वृक्षों के बिना मानव जीवित नहीं रह सकता है, लोभ-लालच में वृक्षों का कटान जारी है।
नेपाल में देखें तो वहां हिमालय व घने जंगल हैं, परन्तु वह अपने जंगल अलग-अलग देशों को बेच रहा है, पिछले कुछ सालों में नेपाल के आधे से अधिक वृक्ष साफ हो गये हैं।
जरा सोचिये यदि पूरी दुनिया में उष्णकटिबंधीय जंगल नष्ट हो गये तो जीव-जगत को ऑक्सीजन कौन प्रदान करेगा? ऑक्सीजन न होने पर वातावरण में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ेगी, जिससे तापमान बढ़ेगा, इसके कारण हिमखण्डों का और तेजी से पिघलना शुरू हो जायेगा। यदि ऐसा ही रहा तो महासागरों का जल स्तर बढ़ जायेगा और अनेक तटवर्तीय इलाके डूब जायेंगे।
ऊर्जा की आवश्यकताओं को देखकर कहें तो कोयला आधारित ऊर्जा के बजाय दूसरे विकल्पों पर विचार करना होगा, जिसमें पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा, जैव ऊर्जा एवं लघु जल विद्युत ऊर्जा शामिल हो।
सुरेश भाई
सुरेश भाई, लेखक उत्तराखण्ड के जाने-माने पर्यावरण के सामाजिक कार्यकर्ता हैं।