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प्रधानमंत्री मोदी मुस्लिमों का भरोसा ऐसे कैसे जीत पाएंगे ?

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hastakshep
12 Jun 2019

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संसद के सेंट्रल हॉल में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की बैठक (Nda's meeting in the central hall of Parlament of India) में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Prime minister Narendra Modi) द्वारा अल्पसंख्यकों का विश्वास (confidence of minorities) जीतने का संकल्प लेना एक सकारात्मक राजनीति (Positive politics) की ओर इशारा करता है। एक ऐसे समय में जब कथित तौर पर हिन्दू संगठनों द्वारा मुस्लिमों पर हमले की खबरें सुर्खियों में रही हैं, एक ऐसे समय में जब मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग भाजपा और संघ द्वारा मुस्लिमों को हाशिए पर धकेलने की बात कर रहे हैं, तब प्रधानमंत्री द्वारा सभी धर्मों के लोगों को साथ लेकर चलने की प्रतिबद्धता दोहराना वाकई अल्पसंख्यकों को सुकून पहुँचाने वाला है। हालाँकि, खुले तौर पर अल्पसंख्यकों का विश्वास जीतने का संकल्प लेने में प्रधानमंत्री मोदी ने पांच साल की देरी जरूर कर दी है।

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यह पहला मौका है जब मोदी ने अल्पसंख्यक वोट बैंक पर प्रहार (Strike on minority vote bank) किया और इस रोग को राजनीति से खत्म करने की बात खुले तौर पर की। लेकिन, सच यह है कि देर से ही सही मोदी की यह प्रतिबद्धता कई मायने में दुरुस्त है।

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ऐसे में सवाल है कि प्रधानमंत्री मोदी मुस्लिमों का भरोसा कैसे जीत पाएंगे ?

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सवाल है कि ऐसे कौन से पहलू हैं जिनपर काम करके मोदी सरकार मुस्लिमों को यह भरोसा दिला पाएगी कि वे भी देश के सामाजिक-आर्थिक विकास में समान भागीदार हैं?

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दरअसल, शिक्षा की घोर कमी मुस्लिम समुदाय की दयनीय स्थिति की सबसे बड़ी वजह है। लिहाजा, मोदी सरकार को मुस्लिमों में शिक्षा की दयनीय स्थिति को बेहतर करने पर संजीदगी से पहल करनी होगी। आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण मुस्लिमों में शिक्षा का घोर है। देश की महज 57 फीसद मुस्लिम आबादी ही साक्षर हैं जबकि देश की सामान्य साक्षरता दर 74 फीसदी है।

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पसमांदा मुसलमानों की बात करें तो मुस्लिमों की कुल साक्षरता में इनकी भागीदारी तो और भी चिंताजनक स्थिति में है। बिहार में तो मुस्लिमों की साक्षरता दर महज 37 फीसद है।

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अगर राष्ट्रीय स्तर की बात करें तो, लगभग 43 फीसदी मुस्लिम निरक्षर हैं और यह किसी भी समुदाय में सर्वोच्च निरक्षरता दर है। हिन्दुओं में यह दर 36 फीसद, सिख में 32 फीसद जबकि इसाईयों में 25 फीसद है। इतना ही नहीं, उच्च शिक्षा का भी मुस्लिमों में घोर अभाव है।

6-14 साल उम्र वाले 25 फीसदी मुस्लिम बच्चे या तो स्कूल नहीं जाते या फिर शुरुआत में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। केवल दो फीसदी मुस्लिम युवक ही स्नात्कोत्तर तक की पढ़ाई कर पाते हैं।

दूसरी तरफ मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा की भी कमी है। मदरसों की पारंपरिक शिक्षा प्रणाली न तो मुस्लिम युवकों को मुख्यधारा में खड़ा कर पाती है और न ही वह रोजगार परक साबित हो पायी है। जाहिर है, मौजूदा वक्त की गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा में वे कहीं भी नहीं टिक पाते। नतीजतन, पहले वे बेरोजगारी की बेड़ियों में जकड़े जाते हैं और फिर सिलसिलेवार तरीके से समाज में हाशिए पर पहुँच जाते हैं।

जाहिर है, प्रधानमंत्री मोदी को मुस्लिम साक्षरता पर गंभीर पहल करने की जरूरत है।

दूसरे पहलू की बात करें तो, मुस्लिमों में बेरोजगारी एक बड़ी समस्या है। आर्थिक धरातल पर पिछड़े मुसलमान लगातार पिछड़ते जा रहे हैं। गरीबी और बेरोजगारी की समस्या अपनी जड़ें जमा चुकी है।

सन् 2006 में जब सच्चर कमिटी ने पहली बार भारत के मुसलमानों के हालात पर खतरे की घंटी बजायी तो, भारत में मुस्लिम समाज की गरीबी और उसके पिछड़ेपन को लेकर चर्चा होनी शुरू हुई। पहली बार मुसलमानों को सिर्फ एक धार्मिक-सांस्कृतिक समूह के तौर पर देखने के बजाय उन्हें विकास के नजरिए से देखा गया। वाकई तब तस्वीर बेहद भवायह थी।

सच्चर कमिटी ने भी इस तथ्य पर मुहर लगायी कि न केवल सरकारी नौकरियों में मुस्लिम पिछड़े हैं बल्कि प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय औसत खर्च में भी वे निचले पायदान पर हैं। उच्च श्रेणी की सरकारी सेवाओं में मुसलमानों की मौजूदगी न के बराबर है। देश की कुल आबादी में मुसलमान लगभग 14.2 फीसदी हैं, मगर प्रशासनिक सेवाओं में केवल 3 फीसदी, पुलिस सेवा में 4 फीसदी और विदेश सेवा में महज 1.8 फीसदी मुस्लिम अधिकारी हैं।

कुल नौकरियों की बात करें तो सभी सरकारी सेवाओं में  मुस्लिमों की भागीदारी महज 2.5 फीसदी है और यह अनुसूचित जाति/जनजाति से भी बदतर है।

यहाँ गौर करने वाली बात है कि आजादी के वक्त जब भारत की आबादी में मुसलमानों की हिस्सादारी 9.8 फीसदी थी तब सरकारी नौकरियों में उनका प्रतिनिधित्व लगभग 30 फीसदी था। लेकिन, विडंबना देखिए कि मौजूदा वक्त में जब 14.2 फीसदी भारतीय मुस्लिम हैं तब सरकारी सेवाओं में इनकी हिस्सेदारी हाशिए पर चली गई है।

आर्थिक पिछड़ेपन का ही नतीजा है कि सरकारी सेवाओं में मुस्लिम अपने अधिकार के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं लेकिन, इजाफा भिखारियों की संख्या में हो रही है। 2011 की जनगणना बताती है भारत का हर चौथा भिखारी मुस्लिम है यानी 25 फीसद भिखारी मुस्लिम हैं। जाहिर है, तस्वीर बेहद दर्दनाक है।

अगर मुस्लिमों की सियासी हालात की बात करें तो, यहाँ भी स्थिति चिंताजनक है। आबादी के अनुपात में इनका प्रतिनिधित्व साल-दर-साल दूर की कौड़ी साबित हो रही है। हालाँकि, 17वीं लोकसभा में पिछले के बरक्स 5 मुस्लिम सांसदों की संख्या जरूर बढ़ी है। लेकिन, सवाल है कि क्या यह संख्या पर्याप्त हैं ? दरअसल, 2014 में जहाँ मुस्लिमों की संख्या 22 थी, वहीं 2019 में इनकी संख्या 27 हुई है। लेकिन विडंबना देखिए कि 2014 में जहाँ लोकसभा के इतिहास में सबसे कम मुस्लिम सांसद संसद पहुँचे थे, वहीं 2019 में निर्वाचित 27 दूसरी न्यूनतम संख्या है।

2011 की जनगणना बताती है कि भारत में मुस्लिम आबादी 14.2 फीसद है। आबादी के लिहाज से लोकसभा में 76 मुस्लिम सांसदों की मौजूदगी होनी चाहिए थी लेकिन, विडंबना है कि मुस्लिम सांसदों की संख्या कभी भी आबादी के अनुपात में नहीं रही।

गौर करें तो, साल 1980 के लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा 49 मुस्लिम सांसद लोकसभा पहुँचे थे तब मुस्लिम आबादी लगभग 12 फीसद थी। यानी कि सबसे ज्यादा सांसद होने के बावजूद आनुपातिक प्रतिनिधित्व से 16 सांसद कम थे। जब 1980 में 49 और 1984 में 42 मुस्लिम सांसद लोकसभा पहुँचे होंगे, तब यकीनन मुस्लिम समुदाय को यह लगा होगा कि वह दिन दूर नहीं जब मुस्लिमों की सियासी भागीदारी उसकी आबादी के लिहाज से उचित स्तर पर आ जाएगी। लेकिन, दिलचस्प बात है कि जैसे-जैसे वक्त गुजरता गया, उम्मीद के मुकाबले सियासी भागीदारी में कमी ही आती गई। ऐसे में सवाल है कि मुस्लिमों की भागीदारी में लगातार आ रही गिरावट के लिए जिम्मेदार कौन हैं?

दरअसल मुस्लिम समाज प्रारंभ से ही सियासी दलों की ‘मौकापरस्त सियासत’ का शिकार रहा है। नाना प्रकार के वादे के साथ राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय दल मुसलमानों का इस्तेमाल एक वोट बैंक की तरह करते रहे हैं। लेकिन, सियासत में भागीदारी को लेकर ये दल मुस्लिमों के साथ हमेशा लुका-छिपी का खेल ही खेलते रहे हैं।

हालाँकि, कई राजनीतिक दलों पर मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप जरूर लगते रहे हैं। लेकिन, गौर करने वाली बात है कि अगर वाकई मुस्लिमों के हक में तुष्टिकरण की गई होती तो हालात जरूर सुधरते। पर सिलसिलेवार ढंग से मुस्लिमों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति खराब ही होती गई है।

खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाले दलों ने भी मुस्लिमों के लिए कुछ नहीं किया। अब जबकि मुस्लिमों का भरोसा जीतने की बात प्रधानमंत्री मोदी ने कही है तब उन्हें भी सोचना होगा कि मुस्लिमों को राजनीति में प्रतिनिधित्व देने के मामले में उनकी खुद की पार्टी कहाँ खड़ी है।

2014 मे जहाँ भाजपा ने 4 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया था, वहीं इस बार 8 उम्मीदवारों पर भरोसा जताया। देखा जाए तो,  मुस्लिमों की संख्या के लिहाज से यह आँकड़े उनके साथ न्याय करते नहीं दिख रहे। और यही कारण है कि 2014 और 2019 में भाजपा पहली ऐसी पार्टी बनी जिसके पास बहुमत मिलने के बावजूद कोई मुस्लिम लोकसभा सांसद नहीं है। राजनीतिक रूप से पिछड़े होने की वजह से मुस्लिमों में कोई बड़ा राजनीतिक नेतृत्व विकसित नहीं हो पाया और मुस्लिम समुदाय राजनीतिक रूप से एक अदृश्य समूह बन कर रह गया है।

दरअसल, अनुसूचित जाति/जनजाति को कमजोर वर्ग समझकर उसके उत्थान के प्रयास जरूर किए गए, लेकिन मुस्लिमों कमजोरी पर कभी विचार ही नहीं किया गया। यही कारण है कि आज अनुसूचित जाति/जनजाति को राजनीति में पर्याप्त प्रतिनिधित्व हासिल है, लेकिन मुस्लिम समुदाय इससे कोसों दूर हैं।

जाहिर है, जब तक इन मुश्किलों से इस समुदाय को बाहर नहीं निकाला जाएगा, तब तक इनका विश्वास नहीं जीता जा सकता।

दरअसल, मुस्लिमों की मुख्य समस्या गरीबी है और इसे खत्म किए बिना मुस्लिमों को मुख्यधारा में शामिल नहीं किया जा सकता। गौर करें तो, सभी समस्याएँ एक-दूसरे से जुड़ी हैं।

मुस्लिम गरीब इसलिए हैं क्योंकि उनमें घोर बेरोजगारी है। बेरोजगारी इसलिए हैं क्योंकि उनमें रोजगार परक शिक्षा का अभाव है और शिक्षा इसलिए नहीं है, क्योंकि वे गरीबी के शिकार हैं। लिहाजा, वे बच्चों को स्कूल भेजने के बजाय काम पर भेजना ज्यादा पसंद करते हैं।

ऐसा नहीं है कि मुस्लिम युवकों में क्षमता की कमी है। लेकिन, जरूरत है तो उन्हें सही दिशा दिखाने की। आज जरूरत इस बात की है कि ‘स्किल इंडिया’ और ‘मेक इन इंडिया’ के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए मुस्लिमों में कौशल विकास को बढ़ावा दिया जाए।

समझना होगा कि प्रधानमंत्री मोदी ने 2022 में आधुनिक भारत का जो सपना संजोया है वह भारत के दूसरे सबसे बड़े समुदाय की प्रगति के बिना संभव नहीं है। इसके लिए प्रधानमंत्री मोदी को तीन महत्वपूर्ण रणनीतियों पर गंभीरतापूर्वक काम करने की जरूरत है।

इनमें पहला है- मुसलमानों का सामाजिक सशक्तीकरण। इसके तहत मुसलमनों की शिक्षा और ‘सामाजिक न्याय’ पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। मुस्लिम बच्चों के लिए छात्रवृति की व्यवस्था जरूर है, लेकिन वह नाकाफी है। शिक्षा की बदतर हालात को देखते हुए चुनिंदा नहीं बल्कि सामान्य तौर पर सभी बच्चों को शिक्षा में प्रोत्साहन की जरूरत है। समाज को जातिवाद के जकड़न से मुक्त करने की कोशिश करनी होगी ताकि हाशिए पर जा चुके समूहों को मुख्यधारा में लाना आसान हो सके। समाज में पसमांदा और दबे-कुचले मुस्लिमों को सम्मान दिलाना बड़ी चुनौती है।

दूसरा है- मुस्लिमों का आर्थिक सशक्तिकरण

दरअसल, सरकारी और निजी सेवाओं में मुस्लिमों को रोजगार देना आर्थिक समावेशन के लिए बेहद जरूरी है। देश की तरक्की तब तक मुकम्मल नहीं हो सकती जब तक इन हाशिए समूहों को समावेशित आर्थिक रणनीति का हिस्सा न बनाया जाएगा। इससे इतर राजनीतिक सशक्तिकरण के पहलू पर भी संजीदगी से पहल की जरूरत है।

समझना होगा कि यह एक ऐसा क्षेत्र हैं जिसमें किसी भी समुदाय की तरक्की के लिए उसका उचित प्रतिनिधित्व बेहद जरूरी है। लेकिन, राज्य विधानसभाओं से लेकर संसद तक मुस्लिमों की पहुँच का स्तर चिंताजनक स्थिति में है। लिहाजा, राजनीतिक रूप से मजबूत करना किसी इबारत लिखने से कम नहीं होगा। लेकिन, प्रधानमंत्री मोदी को यह रणनीति बनानी होगी कि यह कैसे मुमकिन हो सकेगा।

एक तरफ वह मुस्लिमों का भरोसा जीतने की बात कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ उनकी ही पार्टी के नेता मुस्लिमों विरोधी बयान देने से गुरेज नहीं करते। जाहिर है, ऐसे विरोधाभासी बयानों से किसी भी समुदाय का भरोसा तेजी से दरकेगा। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अल्पसंख्यकों का विश्वास जीतने का संकल्प लेना चुनौतियों से भरा है।

नूर फातिमा अंसारी

(शोध छात्रा, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ)

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