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Independence Day: Why only Bahujans need to take inspiration from freedom fight!
1947 में आज ही के दिन अर्द्धरात्रि में कांग्रेसी पंडित जवाहर लाल नेहरू (Pandit Jawaharlal Nehru) ने अंग्रेजों से भारत की आजादी (India's independence from the British) की घोषणा की थी। तबसे हम आज के दिन इस समय आजादी के जश्न में खो जाते हैं।
अंग्रेजों से आजादी दिलाने का श्रेय जिस पार्टी को है, अब उसके कृतित्व को लोग भूलते जा रहे हैं। अब बोलबाला उनका है, जिन्होंने आजादी की लड़ाई में न सिर्फ पूरी तरह उदासीनता बरती, बल्कि कुछ हद तक अंग्रेजों की दलाली की थी।
बहरहाल आजादी की लड़ाई में अग्रणी भूमिका निभाने वाली कांग्रेस (Congress played a leading role in the freedom struggle) ने इस कारण लम्बे समय तक देश पर राज करने का अवसर पाया। बाद में जब आजादी की लड़ाई की यादें धूमिल पड़ने लगी, इससे निर्लिप्त रहने वाले गुट के लोग विपुल प्रसार माध्यमों के जोर से राष्ट्रवाद के नशे में निरीह लोगों को मतवाला बनाकर उस भूमिका में आ गया, जिसमे कभी कांग्रेस रहा करती थी। अर्थात सत्ता पर कब्ज़ा जमा लिए।
आज आजादी की लड़ाई में नकारात्मक रोल अदा करने वालों की ही देश में तानाशाही सत्ता कायम हो गयी है। बहरहाल राष्ट्रवादियों के समक्ष पूरी तरह पस्त होने के बावजूद आज भी कांग्रेसी आजादी की लड़ाई से प्रेरणा लेने की समय-समय पर कोशिश करते रहते हैं। इस सिलसिले में लोकसभा चुनाव में बुरी तरह हार के बाद पिछले दिनों राहुल गाँधी ने एक नयी कोशिश की।
उन्होंने लोकसभा चुनाव की हार की समीक्षा के दौरान कांग्रेसी सांसदों को संबोधित करते हुए कहा कि ‘कांग्रेस के समक्ष आज वही स्थिति है जैसी अंग्रेजों के समय में थी। अंग्रेजी राज के समय कोई भी संस्था हमारा समर्थन नहीं कर रही थी। हमने संघर्ष किया और जीते इस बार भी हम वही कर दिखायेंगे।’
इसमें कोई दो राय नहीं कि तमाम संस्थाओं/ संगठनों के असहयोग के बावजूद कांग्रेस ब्रितानी शासन के खिलाफ लड़ी और जीती, जिसके फलस्वरूप देश की जनता ने आजाद भारत में उसे लम्बे समय तक शासन करने का अवसर दिया। लेकिन आज की तारीख में कांग्रेस को पुनर्जीवित करने के लिए अंग्रेज भारत से से प्रेरणा लेने की कोई गुन्जाइश नहीं: हालात में आमूल बदलाव आ चुका है। तब कांग्रेस अंग्रेजों के खिलाफ अपने संघर्ष में कोटि-कोटि भारतीयों को जोड़ने में इसलिए समर्थ हुई थी, क्योंकि अंग्रेजो का शक्ति के समस्त स्रोतों-आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक- पूरी तरह कब्ज़ा हो चुका था। जिस धर्म की शक्ति को डॉ. आंबेडकर जैसी विद्वान आर्थिक शक्ति के समतुल्य मानते हैं, उस धर्म को राज-सत्ता के जोर से उपेक्षित कर अपना निज धर्म (ईसाइयत) का समानांतर विस्तार करने लगे थे। यही नहीं राज-सत्ता की जोर से वे भारतीयों को अधिकारविहीन दोयम दर्जे का नागरिक बना दिए थे। कांग्रेस ने बेहद प्रतिकूल स्थितियों में भारत के जंनगण को इस अवस्था का अहसास कराने का अभियान छेड़ा। देखते ही आजादी की लड़ाई में कोटि-कोटि भारतीय उसके साथ जुड़ गए और इसने देश को आजाद कराने का लक्ष्य पूरा किया।
प्रतिदानस्वरूप जनगण ने आजाद भारत में कांग्रेस को एकछत्र शासन का अवसर प्रदान किया।
जिन हालातों में कांग्रेस ने अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की सफल लड़ाई लड़ी, वैसे ही हालातों में, उनके खिलाफ उनके द्वारा गुलाम बनाये गए तमाम देशों में कांग्रेस जैसे दलों के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई लड़ी गयी और वे अंग्रेजों से मुक्त होकर शक्ति के स्रोतों पर कब्ज़ा ज़माने में सफल हुए। इसका ताजा और उज्ज्वलतम मिसाल दक्षिण अफ्रीका है जहाँ एएनसी (अफ़्रीकी नेशनल कांग्रेस) पार्टी के नेतृत्व में मंडेला के लोग आजादी की सफल लड़ाई लड़कर उन शक्ति के स्रोतों पर कब्ज़ा जमाने में सफल हुए, जिस पर गोरों का लगभग दो सौ सालो तक एकाधिकार था। वहां जिन गोरों का शक्ति के स्रोतों पर 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा था, आज वे अब तमाम क्षेत्रों में अपने संख्यानुपात 8-9 प्रतिशत पर सिमटने के कारण दक्षिण अफ्रीका छोड़कर भागने लगे हैं।
Rahul Gandhi's Congress is in no position to repeat the history of British India.
बहरहाल आज राहुल गांधी की कांग्रेस अंग्रेज भारत का इतिहास दोहराने की स्थिति में बिलकुल नहीं है। कारण, जिन सवर्णों के हाथ में शक्ति के स्रोत मुहैया कराने के लिए कांग्रेस शासक अंग्रेजों के खिलाफ स्वाधीनता संग्राम छेड़ी, वह लक्ष्य कब का पूरा हो चला है। शक्ति के स्रोतों के पुनरुद्धार के साथ आज सवर्ण किसी के सामने दोयम दर्जे के नागरिक भी नहीं है। ऐसे में कांग्रेस यदि अपनी राजनीतिक स्थिति सुधारना चाहती है तो किसी अन्य विकल्प पर ध्यान देना पड़ेगा।
किन्तु जिन हालातों में गांधी की कांग्रेस तथा मंडेला की एएनसी इतिहास रचने में सफल रही : सैकड़ों देश ब्रितानी उपनिवेशवाद से निजात पाए वह स्थिति पूरी दुनिया में अगर कहीं विद्यमान है तो सिर्फ और सिर्फ भारत में, जहाँ हजारों साल पूर्व के विशेषाधिकारयुक्त जन्मजात सुविधाभोगी तबकों का शक्ति के स्रोतों पर उसी तरह कब्ज़ा है जैसा गोरों का भारत और दक्षिण अफ्रीका में कभी कायम था।
शक्ति के स्रोतों पर इनके अतिशय कब्जे से आज भी यहाँ फुले-शाहूजी-पेरियार- आंबेडकर के लोग संवैधानिक अधिकारों के बावजूद शक्ति के स्रोतों से लगभग पूरी तरह बहिष्कृत हैं तथा उनको उसी तरह दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाता है, जैसा गोरे कभी गांधी और मंडेला को लोगों को समझते थे। आम तो आम इनके दबदबे से यूनिवर्सिटीयों के प्रोफ़ेसर, बड़े-बड़े हांस्पिटलों में तैनात काबिल से काबिल बहुजन डॉक्टर, आईएएस-आईपीएस तक घुट-घुट कर अपनी ड्यूटी करने के लिए विवश हैं।
बहरहाल ब्रितानी उपनिवेश काल में जो स्थिति भारत में गांधी के तथा दक्षिण अफ्रीका में मंडेला के लोगों की थी, कमोवेश वही स्थितियां और परिस्थितियाँ आज भारत में मूलनिवासी बहुजनों के समक्ष विद्यमान है।
आज पूरी दुनिया अगर आजादी की लड़ाई लड़ने लायक हालात किसी के समक्ष हैं तो वह सिर्फ और सिर्फ दलित,आदिवासी पिछड़ों और इनसे धर्मान्तरित बहुजन समाज है। जी हाँ, यह बात जोर गले से कही जा सकती है कि बिटिश उपनिवेशकाल आजादी की जो लड़ाई लड़ी, उस लड़ाई लायक हालत सिर्फ भारत में है।
इस स्थिति को देखते हुए भारत के बहुजन नेता/ एक्टिविस्ट यदि बहुजनों की आजादी की लड़ाई छेड़ते हैं तो उसमें बहुजनों की सापेक्षिक वंचना (relative deprivation) लोकतांत्रिक क्रांति घटित करने का चमत्कार कर सकती है। क्रांति का अध्ययन करने वाले तमाम समाज विज्ञानियों के मुताबिक़ जब वंचितों में सापेक्षिक वंचना का भाव पनपने लगता है, तब आन्दोलन की चिंगारी फूट पड़ती है।
समाज विज्ञानियों के मुताबिक़ ,’दूसरे लोगों और समूहों के संदर्भ में जब कोई समूह या व्यक्ति किसी वस्तु से वंचित हो जाता है तो वह सापेक्षिक वंचना है दूसरे शब्दों में जब दूसरे वंचित नहीं हैं तब हम क्यों रहें !’
सापेक्षिक वंचना का यही अहसास बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में अमेरिकी कालों में पनपा,जिसके फलस्वरूप वहां 1960 के दशक में दंगों का सैलाब पैदा हुआ,जो परवर्तीकाल में वहां डाइवर्सिटी लागू होने का सबब बना।
दक्षिण अफ्रीका में सापेक्षिक वंचना का अहसास ही वहां के मूलनिवासियों की क्रोधाग्नि में घी का काम किया, जिसमें भस्म हो गयी वहां गोरों की तानाशाही सत्ता।
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हजारों साल के विशेषाधिकारयुक्त व सुविधासंपन्न सवर्णों के शक्ति के तमाम स्रोतों पर ही 80-90 प्रतिशत कब्जे ने बहुजनों में सापेक्षिक वंचना के अहसास को धीरे-धीरे विस्फोटक बिन्दु के करीब पहुंचा दिया है और इतिहास गवाह है कि जब बहुसंख्य लोगों में यह भाव चरम पर पहुंच जाता है तो क्रांतिकारी आन्दोलन भड़कने में देर नहीं लगती। ऐसे में भारत में जिस मात्रा में सापेक्षिक वंचना की व्याप्ति है, वह बैलेट बॉक्स में क्रांति घटित करने का सबब बन सकती है। इसके लिए बहुजन नेताओं और एक्टिविस्टों को सर्वव्यापी आरक्षण की लड़ाई को तुंग पर पहुंचना होगा।
स्मरण रहे दुनिया में जहां- जहां भी गुलामों ने शासकों के खिलाफ खिलाफ मुक्ति की लड़ाई लड़ी, उसकी शुरुआत आरक्षण से हुयी। काबिले गौर है कि आरक्षण और कुछ नहीं शक्ति के स्रोतों से जबरन दूर धकेले गए लोगों को शक्ति के स्रोतों में कानूनन हिस्सेदारी दिलाने का माध्यम है। आरक्षण से स्वाधीनता की लड़ाई का सबसे उज्ज्वल मिसाल भारत का स्वाधीनता संग्राम है।
अंग्रेजी शासन में शक्ति के समस्त स्रोतों पर अंग्रेजों के एकाधिकार दौर में भारत के प्रभुवर्ग के लड़ाई की शुरुआत आरक्षण की विनम्र मांग से हुई। तब उनकी निरंतर विनम्र मांग को देखते हुए अंग्रेजों ने सबसे पहले 1892 में पब्लिक सर्विस कमीशन की द्वितीय श्रेणी की नौकरियों में 941 पदों में 158 पद भारतीयों के लिए आरक्षित किया। एक बार आरक्षण के जरिये शक्ति के स्रोतों का स्वाद चखने के बाद कांग्रेस ने सन 1900 में पीडब्ल्यूडी, रेलवे, टेलीग्राम, चुंगी आदि विभागों के उच्च पदों पर भारतीयों को नहीं रखे जाने के फैसले की कड़ी निंदा की।
कांग्रेस ने तब आज के बहुजनों की भांति निजी कंपनियों में भारतीयों के लिए आरक्षण का आन्दोलन चलाया था। हिन्दुस्तान मिलों के घोषणा पत्रक में उल्लेख किया गया था कि ऑडिटर, वकील, खरीदने-बेचने वाले दलाल आदि भारतीय ही रखे जाएँ। तब उनकी योग्यता का आधार केवल हिन्दुस्तानी होना था, परीक्षा में कम ज्यादा नंबर लाना नहीं। बहरहाल आरक्षण के जरिये शक्ति के स्रोतों का स्वाद चखते-चखते ही शक्ति के स्रोतों पर सम्पूर्ण एकाधिकार के लिए देश के सवर्णों ने पूर्ण स्वाधीनता का आन्दोलन छेड़ा और लम्बे समय तक संघर्ष चलाकर अंग्रेजो की जगह काबिज होने में सफल हो गए।
ऐसा ही दक्षिण अफ्रीका में हुआ, जहां गोरों को हटाकर मूलनिवासी कालों ने शक्ति के समस्त स्रोतों पर कब्ज़ा जमा लिया और संविधान में संख्यानुपात में अवसरों के बंटवारे का प्रवधान कर गोरों को प्रत्येक क्षेत्र में उनके संख्यानुपात 9-10 % पर सिमटने के लिए बाध्य कर दिए। इससे गोरे वहां से पलायन करने लगे हैं।
बहरहाल इतिहास की धारा में बहते हुए मूलनिवासी एससी, एसटी, ओबीसी और इनसे धर्मान्तरित तबके के लोग भी आरक्षण के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं, किन्तु वह लड़ाई अपने-अपने सेक्टर में आरक्षण बचाने; निजीक्षेत्र और न्यायपालिका में आरक्षण बढ़ाने, प्रमोशन में आरक्षण इत्यादि की लड़ाई तक सीमित है।
यदि बहुजनों को देश के सुविधाभोगी वर्ग की गुलामी से मुक्ति पानी है, जैसे हिन्दुस्तानियों ने अंग्रेजों से पाया तो उन्हें आरक्षण की लड़ाई को सरकारी और निजीक्षेत्र की नौकरियों से आगे बढ़कर मिलिट्री, न्यायपालिका के साथ –साथ सप्लाई, डीलरशिप, ठेकेदारी, फिल्म-टीवी, निजी और सरकारी क्षेत्र के शिक्षण संस्थानों इत्यादि तक आरक्षण की लड़ाई को विस्तार देना होगा।
एचएल दुसाध
(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष)