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कश्मीरी पंडितों को घाटी से बाहर भेजने में थी जगमोहन की भूमिका, जानिए क्यों

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hastakshep
24 Mar 2016
कश्मीरी पंडितों को घाटी से बाहर भेजने में थी जगमोहन की भूमिका, जानिए क्यों

कश्मीरी पंडितों को घाटी से बाहर भेजने में जगमोहन की भूमिका, जानिए क्यों

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यहां हर हफ्ते हजारों लोग मांगते हैं आजादी, वह भी सुरक्षा बलों के सामने

अंबरीश कुमार

अप्रैल के अंतिम दिन श्रीनगर के मैसूमा इलाके से गुजर रहे थे तभी ड्राइवर इमरान ने बताया कि यह डाउन टाउन यानी श्रीनगर के पुराने इलाके का सबसे अशांत मोहल्ला है। झेलम के दोनों ओर बसा यह इलाका आज भी आजादी का नारा लगा रहा है। वितस्ता यानी झेलम को कश्मीरी लोग व्यथ कहते है। पर इस व्यथ के दोनों किनारों को सात पुल से जोड़ने वाले इस इलाके की व्यथा समझना आसान नहीं है। यहां तनाव भी जल्दी होता है और पथराव भी। नारे भी लगते हैं आजादी भी मांगी जाती है। हर हफ्ते और हजारों लोग मांगते हैं आजादी। वह भी पुलिस और सुरक्षा बलों के सामने। यह हुर्रियत के प्रभाव वाला इलाका है। जबकि एक दिन पहले नौहट्टा में जामा मस्जिद में हमेशा की तरह वही सब दोहराया गया जो हर शुक्रवार को होता है। जुमे की नमाज के बाद अलगाववादियों के एलान पर भारत विरोधी नारे और कई बार पथराव भी। पर अब यह सब उतार पर है। इसमें वह आग नजर नहीं आती जो पहले थी।

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फिलहाल सिमटता नजर आता है कश्मीर में अलगाववाद (Separatism in kashmir) का दायरा

वैसे भी यह चिनार से घिरा शहर है और माना जाता है कि चिनार की आग जल्द ठंडी नहीं पड़ती। पर कश्मीर में अलगाववाद का दायरा फिलहाल सिमटता नजर आता है जिसकी कई वजहें भी है। पर कश्मीर घाटी के लोग अभी भी अपने राष्ट्र की उम्मीद में हैं यह इसका दूसरा पह्लू भी है। अप्रैल के अंतिम हफ्ते से ही यहां के पर्यटन का सीजन शुरू हो चुका है और सैलानियों की भीड़ बढ़ने लगी है। किसी भी जगह चले जायें पहलगाम, सोनमर्ग या गुलमर्ग, सभी जगह उत्तर से लेकर दक्षिण भारत के सैलानी बड़ी संख्या में मिलेंगे। पर्यटन उद्योग से जुड़े कश्मीरी इनका स्वागत भी गर्मजोशी से करते है। आखिर वादी में कई सालों बाद सैलानियों की संख्या बढ़ी है और स्थानीय लोगों का कारोबार भी। चाहे शिकारा चलाने वाले हों या हाउस बोट वाले या फिर होटल रेस्तरां और टैक्सी चलाने वाले, सभी के लिये मई और जून का महीना ज्यादा कमाई का समय होता है। जुलाई अगस्त के बाद सैलानियों की आवाजाही बहुत कम हो जाती है और सितंबर अक्टूबर से मार्च तक तो बहुत ही कम सैलानी इधर आते हैं। इसलिये पर्यटन से जुड़ा कोई भी कश्मीरी इस दौर में शांति बनी रहे, यही दुआ करता है ताकि साल भर के लिये उनकी रोजीरोटी का इंतजाम बना रहे। ठीक उसी तरह जैसे वे ठंड के दिनों के खानपान का इंतजाम भी गर्मियों के इन्ही महीनों में करते हैं। सब्जी से लेकर मछली तक सुखा कर रखा जाता है। सीजन में जो आमदनी होती है उससे ही साल भर उनका खर्च चलता है।

करीब तीन दशक तक उग्रवाद का लम्बा दौर देखने के बाद अब कश्मीर दूसरे दौर से गुजर रहा है। पकिस्तान और अन्य देशों की तरफ से जो रसद पानी यहां के और बाहर के अलगाववादियों को मिल रहा था, उसमें काफी कटौती हो चुकी है जिसके चलते बाहर से आये आतंकवादियों का घाटी से पलायन भी हुआ है। जानकारी के मुताबिक करीब दो सौ प्रशिक्षित आतंकवादी ही अब कश्मीर में बचे हुये हैं। पर कश्मीर की बड़ी आबादी आज भी अपनी आजादी की मांग कर रही है। कुछ मुखर हैं तो कुछ खामोश।

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कश्मीर का गाजा पट्टी

Ghaza Patti of Kashmir

हर शुक्रवार को कश्मीरी नौजवानों का प्रतिरोध पुराने श्रीनगर के विभिन्न इलाकों मसलन नौहट्टा, मैसूमा, राजौरी कदल। बोहरी कदल, हब्बा कदल से लेकर जैना कदल जैसे इलाकों में दिख सकता है। नौहट्टा की जामा मस्जिद में जुमे की नमाज के बाद यह हर हफ्ते की कवायद बन चुकी है। वैसे भी कश्मीरी इस इलाके की तुलना गाजा पट्टी से करते हैं। वे अपने प्रतिरोध के लिये हरा झंडा सामने रखते हैं, जिससे कई लोगों को पाकिस्तानी झंडा होने का भ्रम होता है।

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मैसूमा में एक नौजवान मोहम्मद इमरान ने कहा, यह हमारे विरोध का तरीका है। नारेबाजी और पथराव। पथराव से किसी को बहुत गंभीर चोट भी नहीं लगती खासकर हेलमेट और पत्थर से बचने वाली मजबूत पोशाक पहने सुरक्षा बल के लोगों को इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता। इस पथराव में स्कूली बच्चे भी होते हैं, जो सुरक्षा बलों की गोली से मारे गये नौजवानों की मौत का बदला लेने का प्रतीकात्मक तरीका इसे मानते हैं और कश्मीर की आजादी की मांग का प्रदर्शन भी।

दरअसल नमाज के बाद बड़ी संख्या में लोग रहते हैं तभी यह प्रदर्शन, नारेबाजी और पथराव होता है।

एक रोचक तथ्य यह भी नजर आया कि कश्मीर की आजादी की यह लड़ाई बेहद गरीब लोग लड़ रहे हैं जिनके पास पहनने के लिये ढंग का गर्म कपड़ा भी नहीं है आजादी की लड़ाई का जिम्मा उन्हीं के कंधो पर है।

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घाटी में एक तरफ वे पर्यटन स्थल और बाजार है जहां किसी सैलानी को महसूस भी नहीं होगा कि कश्मीर की आजादी की एक लड़ाई बगल में ही चल रही है। चाहे डल झील का इलाका हो या फिर भीड़भाड़ वाला लाल चौक या फिर श्रीनगर के बाहर के इलाके पहलगाम, गुलमर्ग से लेकर सोनमर्ग तक। कुछ वर्षों में यह बदलाव तो आया है कि किसी सैलानी को यह महसूस भी नहीं हो सकता कि यहां किसी देश की आजादी की लड़ाई भी चल रही है। सैलानियों से वे इस बारे में ज्यादा बात भी नहीं करते। पर जब आप झेलम पर सात पुलों वाले पुराने श्रीनगर के किसी हिस्से में किसी बुजुर्ग से देर तक बात करें तो बहुत कुछ समझ में आता है।

ऐसे ही एक बुजुर्ग शब्बीर से बात हुयी ह्ब्बाकदल इलाके में। वे बीते तीन दशक के अलगाववादी आंदोलन से दुखी थे। हजारों नौजवानों की जान इस दौर में गई। वे देश की आजादी के समय कश्मीर और भारत के बीच हुये करार की याद दिलाते हैं। पंडित नेहरु का वह वादा भी कि कश्मीर को रायशुमारी का अधिकार होगा। फिर इस वादाखिलाफी पर नाराजगी भी जताते हैं। उनसे जो बात हुयी उससे साफ़ था कि कांग्रेस ने बीते साठ साल में कश्मीर में मजबूत क्षेत्रीय नेतृत्व पनपने न देने की जो कोशिश की उससे ही हालात ज्यादा ख़राब हुये। शिक्षा स्वास्थ्य और विकास पर जो कुछ होना चाहिये था वह नहीं हुआ। विकास के पैसे की लूट ज्यादा हुयी। इस सबसे घाटी में ज्यादा हताशा पैदा हुयी।

कश्मीर का एक गुनाहगार जगमोहन
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Guilty of Kashmir, Jagmohan

अगर मजबूत क्षेत्रीय नेतृत्व होता तो कश्मीर में ये हालात तो न होते। रही सही कसर राज्यपाल जगमोहन ने पूरी कर दी। उन्होंने जो किया, उससे अलगाववादियों का रास्ता जरूर साफ़ हुआ।

नब्बे के दशक में वीपी सिंह की सरकार थी तो उस समय छात्र युवा संघर्ष वाहिनी का एक प्रतिनिधिमंडल श्रीनगर गया। राजीव हेम केशव भी इसमें थे, जिन्होंने श्रीनगर में विभिन्न अलगाववादी गुटों के नेताओं से बात की और वजह समझने की कोशिश की।

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राजीव हेम केशव ने कहा, कश्मीर में जनता पार्टी के दौर में जो चुनाव हुये वे तो निष्पक्ष रहे पर कांग्रेस ने अपने लोगों को जितवाने के लिये हर हथकंडा अपनाया। वर्ष 1987 का चुनाव आधार बना जब कांग्रेस ने फारुक अब्दुल्ला के साथ गठबंधन किया और उन्हें जितवाने के लिये बड़े पैमाने पर धांधली हुयी। इस बीच कश्मीर में नौजवानों की नयी पीढ़ी राजनीति में दखल दे चुकी थी। कालेज विश्वविद्यालय से निकले इन नौजवानों में चुनाव में दखल दिया और धांधली के चलते हार गये। मामला यहीं तक सीमित नहीं रहा बल्कि विरोध करने पर उन्हें जेल में डाल दिया गया। नौजवानों का उत्पीड़न भी हुआ जिससे लोगों में नाराजगी बड़ी। इस तरह जब लोकतंत्र का गला घोटा गया तो इन नौजवानों ने अपना रास्ता भी बदला।

कश्मीर में इसी के बाद अलगाववाद तेज भी हुआ जिसे मौके की तलाश में बैठे पाकिस्तान ने हवा भी दी। अलगाववाद को पाकिस्तान की शह मिली और बाहर से प्रशिक्षित आतंकवादी भी भेजने शुरू हुये। घाटी के नौजवान भी आजाद कश्मीर में प्रशिक्षण लेने जाने लगे। इसी के साथ कश्मीरी पंडितों पर हमले शुरू हुये। मकसद साफ़ था कश्मीरी पंडितों को घाटी से बाहर कर बदला लिया जाये। इस प्रक्रिया को बाद में राज्यपाल बने जगमोहन ने भी अपनी नीतियों से तेज किया।

कश्मीर के जानकार मानते हैं कि उनकी रणनीति थी कश्मीरी पंडित को बाहर कर अलगाववादियों से आर-पार की लड़ाई लड़ना। जिन पुराने इलाकों में कश्मीरी पंडित रहते थे, वहां किसी भी कार्यवाई का अर्थ पंडितों का भी नुकसान होना जिसकी प्रतिक्रिया ज्यादा होती खासकर जम्मू और अन्य जगहों पर। इसलिये कश्मीरी पंडितों को घाटी से बाहर भेजने में दोनों तरफ की भूमिका रही।

दरअसल अलगाववादी भी नहीं चाहते थे कि उनके इस्लामीकरण के अभियान में कोई स्थानीय बाधा पड़े। इसी वजह से कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया गया और उन्हें बाहर भेजने पर मजबूर किया गया। इस बात को लेकर आज भी बहुसंख्यक कश्मीरी बिरादरी को कोई अफ़सोस भी नहीं है। वे इसे भी आजादी की लड़ाई के एक हथियार के रूप में देखते हैं।

अलगाववादी मानते हैं कि आज भी वे अपने देश के लिये लड़ रहे हैं। हुर्रियत कांफ्रेंस के अध्यक्ष मीरवाइज उमर फारूक के मुताबिक कश्मीरी तो 29 अप्रैल 1865 से दमन और उत्पीड़न के खिलाफ लड़ रहे हैं। यह वही दिन था जब डोगरा सेना ने 28 कश्मीरियों को मार डाला था।

मीरवाइज बीते 29 अप्रैल को नौहट्टा में जुमे की नमाज के बाद जामा मस्जिद परिसर में इकठ्ठा लोगों को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने आगे कहा कि यह 29 अप्रैल का दिन हमारे लिये बहुत महत्वपूर्ण है। इसी दिन से हमने दमन के खिलाफ संघर्ष की शुरुआत की थी।

मीरवाइज के निशाने पर पीडीपी भी रही तो नेशनल कांफ्रेंस भी। उन्होंने आगे कहा कि जो हमारे अपने होने का दावा करते थे वे भी दमन करने वालों के साथ खड़े हो गये। पर उन्हें यह समझ लेना चाहिये कि सेना से हमारे आंदोलन को दबाया नहीं जा सकता।

मीरवाइज के इस वक्तव्य से बहुत कुछ समझा जा सकता है। कश्मीर आज अगर इस तरफ है तो सिर्फ सेना की वजह से। आज आजाद कश्मीर हो या पाकिस्तान दोनों से घाटी के लोगों का रोटी और बेटी का रिश्ता बना हुआ है। मुजफ्फराबाद से महिलाओं के कपड़े आते हैं तो पाकिस्तान से शहद से लेकर अंजीर तक आपको श्रीनगर में मिल जायेगा। पर बड़ा कारोबार वे जिन सैलानियों से करते हैं वे उत्तर और दक्षिण भारत के होते हैं। लाल चौक में जो लोग सस्ता कश्मीरी शाल खरीदते हैं उन्हें यह पता नहीं होता कि वह लुधियाना का बना है।

बहरहाल पीडीपी और भाजपा गठबंधन सरकार अगर कुछ बेहतर कर सके और कश्मीरी लोगों का भरोसा जीत सके तो शायद नयी पहल हो।

मुफ़्ती मोहम्मद सईद की छवि कश्मीर में एक बहुत ईमानदार नेता के रूप में रही है और महबूबा मुफ़्ती को इसका फायदा भी मिल सकता है।

दरअसल शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और विकास का मुद्दा हाशिये पर रहा है। शहर के बीच बन रहे एक फ्लाई ओवर ब्रिज को लेकर सड़क जाम होने पर एक ड्राइवर चिल्ला कर बोला, यह तीन साल से बन रहा है पैसा नहीं आ रहा। जम्मू में होता तो साल भर में बन जाता। फिर भी वे लोग बोलते हैं कश्मीर हमारा है। क्या यही हमारा होता है।

(May 24,2016 10:57 को प्रकाशित)

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