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स्वप्निल को कभी स्वप्न में भी ख़याल नहीं रहा होगा कि खूंखार कवि अनिल जनविजय के रहते मुझ सा नौसिखिया उनकी कविताओं की समीक्षा लिख मारेगा और उसकी धज कुछ ऐसी होगी कि आज 40 साल बाद भी किसी पत्रिका में छपी वो समीक्षा उनके पास सुरक्षित है।
कुछ दिन पहले रंगकर्मी और हिंदी सिनेमा में अपना तम्बू ताने नन्दलाल सिंह और स्वप्निल दोनों ने बरसों बाद के मिलन का जश्न मनाने को मेरा गरीबखाना चुना तो यह किताब मुझे मिली।
शुरुआत कुशीनगर के एक कस्बे रामकोला से..
स्वप्निल के कैशौर्य से शरू होती दुनिया.. क्योंकि यह अपने लिए अजानी थी, इसलिए ब्रह्मराक्षस पीपल के पेड़ पर ही बैठा निहारता रहा.. लेकिन जैसे ही स्वप्निल पिलखुवा होते हुए हापुड़ में घुसे तो वो मेरी दुनिया थी। किताब में हापुड़-दिल्ली के जितने कवियों-लेखकों का ज़िक्र हुआ है, तो ब्रह्मराक्षस पेड़ से उतर आया और इस मेल मुलाकात में शामिल हो गया।
स्वप्निल ने जैसा भी जीवन देखा हो.. आखिरी के तीन अध्याय उनके लेखन का चरम है। एक था बरगद में तो जैसे मैं खुद उस वृक्ष की शवयात्रा में शामिल हो जार-जार विलाप कर रहा हूँ.. फणीश्वरनाथ रेणु की बट बाबा के समकक्ष वाला लेखन... उसी तरह पुरू की बगिया का उजड़ना.. जैसे एक और आत्मीय का दुःखद अंत.. फिर गांव की जीवनधारा वो पोखरा, जो भूमाफिया के हाथों मारा जाने से बचता है.. उसके साथ गहरा लगाव इसलिए भी कि इन आँखों के सामने न जाने कितने तालाबों, नहरों, नदियों, कुओं की समाधि बनी।
तो स्वप्निल, इसको पढ़ते हुए उतना ही जुड़ाव महसूस हुआ, जितना तुम्हारी उस कविता से हुआ था..और हाँ न उस पर समीक्षा के फॉर्मेट में लिखा था न इसको किसी विधा में बांध रहा हूँ..क्योंकि वैसा लेखन नहीं जानता।
राजीव मित्तल