संघी मानसिकता की बढ़ी ताकत ने भारतीय लोकतंत्र को खतरे में डाल दिया है
मेरा बचपन जिस सामाजिक माहौल में व्यतीत हुआ, उसने मुझे संघी मानसिकता को समझने में बड़ी मदद की है. मैंने शुरुआत से देखा है कि जो लोग धर्म के प्रति न सिर्फ कट्टर होते हैं, वरन् दूसरे धर्मों के प्रति द्वेष का भाव रखते हैं (ख़ास तौर पर मुसलमानों के प्रति ) वे सभी भारतीय जनसंघ के समर्थक होते थे. लेकिन जो लोग धर्म भीरू तो होते थे, लेकिन दूसरे धर्म के प्रति द्वेष का भाव नहीं रखते थे, उनमें से बहुत से जनसंघ को वोट देते थे लेकिन सांप्रदायिक नहीं थे. लेकिन इनमें से कुछ लोगों के कुप्रचार में बह जाने की गुंजाईश रहती थी.
उच्च जाति के ज्यादातर लोगों में जातिवाद गहरे रूप में जड़ जमाये हुए था और उनमें भी जिनमें अपनी जातीय श्रेष्ठता का गर्व था और निम्न समझी जाने वाली जातियों को घृणा की दृष्टि से देखते थे, छुआछूत उनके सामजिक आचरण का अनिवार्य हिस्सा था. दलितों ही नहीं पिछड़ी समझी जाने वाली जातियों से भी वे खान पान का सम्बन्ध नहीं रखते थे. ऐसे लोग प्रायः जनसंघ के समर्थक होते थे. हाँ, जिस जाति से उनका सम्बन्ध होता था, यदि वह जाति किसी पार्टी विशेष का समर्थन करती थी, तो वे भी उसका समर्थन करते थे, हालांकि उनकी मानसिकता संघी ही थी. औरतों के प्रति भी उनका नजरिया प्रतिगामी होता था. उनके घरों में पर्दा और घुघट आम बात थी. अपने बच्चों की शादी न सिर्फ अपनी जाति में वरन् जन्मपत्री का मिलान करके करते थे. और दहेज़ का लेनदेन बड़े गर्व से करते थे. इसे वे अपनी शान समझते थे. वे हिन्दू होने को ही अपनी देशभक्ति और राष्ट्रवाद की पहचान समझते थे. अन्यथा व्यापार में, नौकरी में किसी भी तरह का अनैतिक और गैरकानूनी काम करने से उन्हें कोई परहेज नहीं होता था.
रामजन्मभूमि आन्दोलन के बाद से ऐसे सारे लोग और समूह भाजपा के पक्ष में जा चुके हैं. शुरुआत से ही मैंने देखा है कि कांग्रेस के हर प्रगतिशील कदम का संघी विरोध करते थे. चाहे भूतपूर्व राजाओं को मिलने वाला privypurse हो, या बैंकों का राष्ट्रीयकरण. वे न सिर्फ पूंजीपतियों का समर्थन करते थे, वरन सामंतों का भी. नेहरू, पाकिस्तान, चीन और मुसलमानों से गहरी नफरत संघी मानसिकता की ठोस पहचान थी. नेहरू जी के बारे में आजकल सोशल मीडिया पर जो झूठी बातें फैलाई गयी हैं, वह आज़ादी के बाद के दशकों में भी फैलाई गयी थीं. कट्टर संघी जितना नेहरू से नफरत करता था उतना ही गांधी से भी. और उसकी नफरत की एक प्रमुख वजह गांधी द्वारा छुआछूत का विरोध किया जाना था. कांग्रेस को इसी वजह से मुसलमानों, दलितों और पिछड़ों की पार्टी समझा जाता था. राजस्थान में ब्राह्मणों का एक हिस्सा भी कांग्रेस का समर्थक था, लेकिन वह उन नेताओं के प्रभाव में जिन्होंने आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया था. व्यापारी जातियां, राजपूत, सिन्धी आमतौर पर जनसंघ के समर्थक होते थे. अपवाद सब जगह थे. खासतौर पर उन परिवारों में जहाँ किसी ने आजादी की लड़ाई में भाग लिया हो या स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रति झुकाव रहा हो.
प्रगतिशील लोग तब भी संघियों को पसंद नहीं करते थे. उनकी नज़र में वे पढ़े लिखे जाहिल, रुढ़िवादी, जातिवादी और सांप्रदायिक होते थे. देश और दुनिया के बारे में उनका ज्ञान बहुत कम होता था और अपने अज्ञान को ही वे सम्पूर्ण ज्ञान समझते थे. उनका साहित्य और कला से प्रायः कोई लेना देना नहीं होता था.
प्रायः संघी मानसिकता वाले लोगों में हीन भावना होती थी लेकिन रामजन्म भूमि आन्दोलन के बाद से उनमें अपने पिछड़ेपन के प्रति अहंकार का भाव आ गया है.
संघी मानसिकता बुनियादी तौर पर स्वतंत्रता, समानता और लोकतंत्र की विरोधी है.
धर्मनिरपेक्षता से उन्हें गहरी नफरत है. 1950-60 की संघी मानसिकता कमोबेश आज भी वैसी ही है. उनकी बढ़ी ताकत ने भारतीय लोकतंत्र को खतरे में डाल दिया है.
जवरीमल पारीख की फेसबुक टाइमलाइन से साभार