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तथ्यांवेषण रिपोर्ट (पिछले अंक से जारी)
झारखण्ड में सांप्रदायिक हिंसा का इतिहास History of communal violence in Jharkhand
इंडियास्पेंड हेट क्राइम वाच (IndiaSpend Hate Crime Watch) के अनुसार, नफरत-जनित अपराधों, विशेषकर धर्म से जुड़े नफरत-जनित अपराधों, के मामले में झारखण्ड देश में दूसरे नंबर पर है. राज्य में अब तक लकड़ा सहित 12 लोग लिंचिंग का शिकार हुए हैं, जिनमें से नौ मुसलमान और तीन आदिवासी थे. इंडियास्पेंड की रपट के अनुसार, 2016 से 2019 के बीच, राज्य में मॉब लिंचिंग की 15 घटनाएं (incidents of mob lynching in Jharkhand) हुईं. उनका संक्षिप्त विवरण निम्नानुसार है:
लातेहार, 18 मार्च 2016
सांप्रदायिक दृष्टि से संवेदनशील एक इलाके में मवेशियों को चराने वाले दो मुसलमानों को फांसी पर लटका दिया गया. इस मामले में एक स्थानीय गौरक्षक समूह के पांच सदस्यों को गिरफ्तार किया गया.
कोडरमा, 17 अप्रैल 2017
एक व्यक्ति तब घायल हो गया जब उस पर अपने लड़के की शादी के भोज में बीफ परोसने के शक में हमला किया गया.
गुमला, 30 मई 2017
गांववालों ने 20 साल के एक मुसलमान को पेड़ से बाँध कर उसकी तब तक निर्मम पिटाई की जब तक कि वह मर नहीं गया. उसका अपराध यह था कि वह एक हिन्दू युवती से प्रेम करता था. रजा कॉलोनी निवासी मोहम्मद शालिक के कथित रूप से पास के गाँव की एक हिन्दू महिला से सम्बन्ध थे.
धनबाद 6 जून, 2017
पैंतीस वर्ष के ऐनुल अंसारी पर इफ्तार पार्टी के लिए कथित तौर पर बीफ ले जाने के संदेह में लगभग 20 लोगों की भीड़ ने हमला कर दिया. हमलावरों ने पुलिस को सूचना दी और पुलिस को मजबूर किया कि वह मांस की जांच करे. परिवार वालों का दावा है कि वह व्यक्ति बीफ नहीं बल्कि मटन ले जा रहा था.
गिरीडीह, 26 जून, 2017
डेयरी का व्यवसाय करने वाले एक मुसलमान के घर के बाहर एक मरी हुई गाय पाए जाने के बाद, उसकी पिटाई की गयी और उसके घर को आग लगा दी गयी. शुरू में 100 लोग वहां इकठ्ठा हुए, जिनकी संख्या जल्दी ही 1,000 से ज्यादा हो गई. पत्थाबाज़ी में 50 पुलिस वाले घायल हुए.
रामगढ, 28 जून, 2017
करीब 100 लोगों की भीड़ ने अलीमुद्दीन उर्फ़ असगर अली की पीट-पीट कर जान ले ली. भीड़ को शक था कि वह बीफ ले जा रहा था. इस मामले में 11 लोगों को उम्र कैद की सजा सुनायी गयी. इनमें बजरंग दल और भाजपा की स्थानीय इकाईयों के नेता शामिल थे. तत्कालीन केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा ने इन सभी का फूलमालाएं पहना कर अभिनन्दन किया, जिससे यह पता चलता है कि अपराधियों को राजनैतिक संरक्षण हासिल था.
गढ़वा, 19 अगस्त 2017
स्व-नियुक्त गौसेवकों ने गढ़वा जिले के ओराँव आदिवासियों के एक समूह पर हमला किया. आदिवासियों में से एक, रमेश मिंज, की हमले के तीन दिन बाद गंभीर चोटें लगने के कारण मृत्यु हो गयी.
रांची, 1 जनवरी 2018
वासिम अंसारी, 19, नामक एक मुस्लिम युवक की तब पीट-पीट कर हत्या कर दी गयी जब उसने नए साल की पार्टी कर रहे कुछ लोगों से अनुरोध किया कि वे संगीत की आवाज़ कुछ धीमी कर दें.
कोडरमा, 25 मई, 2018
इफ्तार के समय, एक भीड़ ने करीब 20 मुस्लिम परिवारों के घरों पर हमला कर दिया. उन्होंने महिलाओं सहित सभी को पीटा. भीड़ ने मस्जिद में भी तोड़फोड़ की और मगरिब की नमाज़ अदा कर रहे मुसलमानों पर हमला किया.
रांची, 10 जून, 2018
‘जय श्री राम’ कहने से इनकार करने पर, दो मुस्लिम मौलवियों पर हमला किया गया. मानवाधिकारों से सम्बंधित मुक़दमे लड़ने वाले एक वकील के अनुसार, जब मौलवी नमाज़ अदा कर अपने गाँव लौट रहे थे तभी एक एसयूवी में सवार 20 लोगों ने उन्हें रोका और उनसे जय श्री राम बोलने के लिए कहा. जब वे इसके लिए तैयार नहीं हुए तब उन पर लाठियों और हॉकी स्टिकों से हमला किया गया.
गोड्डा, 13 जून 2018
दो मुसलमानों - चिरागुद्दीन अंसारी (35) और मुर्तजा अली (30) - की 13 भैंसें चुराने के आरोप में पीट-पीट कर हत्या कर दी गयी. चोरी का आरोप कुल पांच व्यक्तियों पर लगाया था. तीन मौके से भाग निकले और दो को भीड़ ने पकड़ लिया. उन्हें तब तक पीटा गया जब तक कि उनकी जान नहीं निकल गयी.
ये सभी घटनाएं 2016 के बाद की हैं. इसी साल, झारखण्ड में मॉब लिंचिंग शुरू हुई. इसकी पहले - जब झारखण्ड बिहार का हिस्सा था - तब भी वहां सांप्रदायिक हिंसा आम थी. सन 1964 और 1979 में जमशेदपुर में हुए दंगे इसका उदाहरण हैं. इन दंगों व साम्प्रदायिक हिंसा की अन्य वारदातों के चलते, राज्य में मुसलमानों और आदिवासियों के बीच ध्रुवीकरण हो गया है और हिन्दू श्रेष्ठावादी मज़बूत हुए हैं. विभिन्न तथ्यान्वेषण समितियों और जांच आयोगों ने साम्प्रदायिकता भड़काने और सांप्रदायिक दंगों की भूमिका तैयार करने में हिन्दू श्रेष्ठावादियों की भूमिका को रेखांकित किया है.
जमशेदपुर, जेआरडी टाटा द्वारा स्थापित एक शहर है, जिसे योजनाबद्ध तरीके से बसाया गया है. वहां 1964 और 1979 में भयावह सांप्रदायिक हिंसा हुई. शहर में देश के विभिन्न भागों से रोज़गार की तलाश में आये लोग बस गए हैं. मुसलमान भी वहां बसे और स्थाई रोज़गार से उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति में इजाफा होने लगा. मुसलमानों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए हिंसा का सहारा लिया गया. सन 1964 के दंगों से आरएसएस और भाजपा के पूर्व अवतार, जनसंघ, को जबरदस्त लाभ हुआ और दोनों ने इस शहर में अपनी जडें जमा लें. सन 1967 के चुनाव में, जनसंघ को पहली बार जमशेदपुर में 10 प्रतिशत वोट हासिल करने में सफलता मिली.
सन 1979 के दंगे, मुख्यतः मुसलमानों व आदिवासियों के बीच हुए. सन 1964 के दंगों के बाद, मुसलमान, आदिवासियों द्वारा सबीरनगर और अन्य इलाकों में आदिवासियों द्वारा उन्हें बेची गयी ज़मीनों पर बस गए. इससे मुसलमान के रहवास के स्थल दिमनाबस्ती जैसे आदिवासी इलाकों के नज़दीक हो गए. सन 1978 में, आदिवासियों का हिन्दुकरण करने के अपने अभियान के तहत, आरएसएस ने दिमनाबस्ती से रामनवमी का जुलूस निकालने का प्रयास किया. यह पहली बार था जब दिमनाबस्ती से रामनवमी का जुलूस निकलने वाला था. आयोजकों ने सबीरनगर के रास्ते जुलूस निकलने का निर्णय किया. जिला प्रशासन ने उनकी मांग नामंज़ूर कर दी. परन्तु आयोजक अपनी जिद्द पर अड़े रहे और इस कारण पूरे एक वर्ष तक तनाव बना रहा. फिर, 7 अप्रैल 1979 को श्री रामनवमी केंद्रीय अखाड़ा समिति ने एक परचा जारी किया जो कि सांप्रदायिक हिंसा का आव्हान था. उसमें कहा गया था कि हिन्दू 11 अप्रैल को दिन के 11 बजे दिमनाबस्ती में एकत्र हों और वहां से मुस्लिम-बहुल सबीनगर के रास्ते निकलने वाले जुलूस में भाग लें. जुलूस पर पत्थर फेंके गए और इसके बाद भड़की सांप्रदायिक हिंसा में 108 लोग मारे गए और सैकड़ों मकान लूट लिए गए.
इन दंगों की जांच के लिए नियुक्त जितेन्द्र नारायण आयोग ने दंगा भड़काने में हिन्दू श्रेष्ठतावादी संगठनों की भूमिका पर प्रकाश डाला. आयोग ने जमशेदपुर में तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहब देवरस के भाषण का भी संज्ञान लिया और आरएसएस पर दंगों के लिए उर्वर भूमि तैयार करने का आरोप लगाया.
सन 1967 के अगस्त में रांची और हटिया शहरों में हिन्दुओं और मुसलमानों की बीच हिंसा भड़क उठी. रघुबर दयाल आयोग इस नतीजे पर पहुंचा कि इलाके में अप्रैल 1964 से ही तनाव बढ़ रहा था. सन 1965 के भारत-पाक युद्ध ने मुसलमानों के बारे में कई तरह के संदेह उत्पन्न कर दिए. मार्च 1967 में हुए आम चुनाव में उर्दू (जिस भाषा को अक्सर मुसलमानों से जोड़ा जाता है) के मुद्दे ने तनाव को और बढ़ाया. उर्दू को बिहार की दूसरी राजभाषा घोषित करने के प्रस्ताव के बाद, जनसंघ, आरएसएस और एक अन्य संगठन, बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन, द्वारा प्रदेशव्यापी उर्दू-विरोधी आन्दोलन चलाया गया. रांची में मुस्लिम आजाद स्कूल के पास विद्यार्थियों के एक उर्दू-विरोधी जुलूस पर पत्थर फेंके जाने से हिंसा की शुरुआत हुई. स्कूल पर हमला हुआ और इसके जवाब में एक हिन्दू की जान ले ली गयी. रघुबर दयाल आयोग के अनुसार, इसके बाद जो दंगे हुए, उनमें रांची में ही 184 व्यक्ति मारे गए जिनमें से 164 मुसलमान और 19 हिन्दू थे.
सन 2014 के बाद से, रामनवमी और शौर्य दिवस पर निकाले जाने वाले जुलूसों ने अत्यंत आक्रामक स्वरुप अख्तियार कर लिया और इनका उद्देश्य सांप्रदायिक तनाव बढ़ाना और दंगे भड़काना है.
सन 2016 में राज्य के हजारीबाग में हुई हिंसा में करीब 30 दुकानों को आग के हवाले कर दिया गया.
इस विवरण से यह साफ़ है कि झारखण्ड में सांप्रदायिक तनाव हमेशा बना रहता है जिससे धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण होता है. धार्मिक त्योहारों का उपयोग मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने के लिए किया जाता है.
मॉब लिंचिंग की घटना की मीडिया में रिपोर्टिंग Media reporting of mob lynching incident
मीडिया में छपी रपटों में बताया गया कि 10 अप्रैल, 2019 को डुमरी ब्लाक के जुरमू गाँव के पचास वर्षीय प्रकाश लकड़ा की निकट के जयरागी गाँव के निवासियों की एक भीड़ ने पीट-पीट कर हत्या कर दी. भीड़ में मुख्यतः साहू समुदाय के सदस्य शामिल थे. इस घटना में तीन अन्य व्यक्तियों - पीटर केरकेट्टा, बेलारिअस मिंज और जनेरिअस मिंज - को गंभीर चोटें आईं. यद्यपि यह साफ़ था कि एक बैल की खाल उतारने को लेकर उन पर हमला हुआ परन्तु मीडिया रपटों में घटना का अलग-अलग विवरण दिया गया. जिन मामलों में रपटों में अंतर था वे थीं: जिस जानवर की खाल उतारी जा रही थे वह बैल था या गाय; उस बैल / गाय को मारा गया था या वह पहले से ही मरा हुआ था, बैल / गाय की खाल किस स्थान पर उतारी जा रही थे और लिंचिंग / हिंसा के लिए कौन लोग ज़िम्मेदार थे.
आरोपियों का पक्ष
साहू समुदाय के सदस्यों, जिन पर पीड़ितों ने लिंचिंग की घटना को अंजाम देने का आरोप लगाया है, का कहना है कि उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया है. वे इस बात से इंकार करते हैं कि उन्होंने पीड़ितों पर हमला किया. उनका कहना है कि पीड़ितों ने एक गाय / बैल को काटा और हिन्दू शमशान घाट के पास वे उस जानवर की खाल उतार कर शमशान स्थल को अपवित्र कर रहे थे.
जुरमू गाँव के चौकीदार ने क्या कहा
सुखु घासी, जो की बीट नंबर 1/2 का चौकीदार है, ने डुमरी पुलिस थाने में आरोपियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाई. एफआईआर नंबर 10/19, 11 अप्रैल को 6.05 बजे शाम - अर्थात घटना के करीब चौबीस घंटे बाद - दर्ज की गयी. एफआईआर में मॉब लिंचिंग के पीड़ितों को ही दोषी ठहराते हुए उन्हें (पीटर केरकेट्टा, प्रकाश लकड़ा, बेलारिअस मिंज और जनेरिअस मिंज) झारखण्ड गौवंश वध निषेध अधिनियम 2005 की धारा 12 और पशु क्रूरता अधिनियम 1960 के तहत अपराध करने का आरोप लगाया गया है. उन पर आरोप है कि उन्होंने एक गौवंश का वध किया, जो कि झारखण्ड में अपराध है.
एफआईआर, घासी को एक अज्ञात स्त्रोत से प्राप्त सूचना के आधार पर दर्ज करवाई गयी. यह घटना नदी के किनारे 10 अप्रैल की रात हुई थी. घासी घटनास्थल पर अगले दिन, अर्थात 11 अप्रैल, को पहुंचा.
पीड़ितों का पक्ष
पीड़ितों के पक्ष का विवरण सरोज हेब्राम, प्रकाश लकड़ा के परिवारजनों और जुरमू गाँव के निवासियों के कथनों और पीड़ितों द्वारा दर्ज करवाई गयी एफआईआर पर आधारित है. उनके अनुसार, बैल के मालिक जखेरिअस मिंज ने 9 अप्रैल को पाया की उसका बैल गायब है. अगले दिन, उसने बैल को नदी के किनारे मृत पाया. शव सड़ने लगा था और उस पर मक्खियां मंडरा रहीं थीं. इसके बाद, 10 अप्रैल को उसने पीटर केरकेट्टा, प्रकाश लकड़ा, बेलारिअस मिंज, जनेरिअस मिंज व अन्यों से संपर्क कर उनसे मृत बैल को ठिकाने लगाने के लिए कहा. आदिवासी पारंपरिक रूप से मृत जानवरों का मांस खाते हैं और उनकी खाल उतार कर, शव को ठिकाने लगा देते हैं. खाल का इस्तेमाल वाद्ययंत्रों आदि में किया जाता है.
साहू समुदाय के कुछ सदस्यों ने 10 अप्रैल की अँधेरी रात को करीब 8 बजे देखा कि आदिवासी नदी के किनारे किसी जानवर की खाल उतार रहे हैं. वे जयरागी गाँव पहुंचे और वहां के करीब 40 लोगों को साथ लेकर, नदी के किनारे आए. उन्होंने यह पता लगाने का प्रयास नहीं किया कि आदिवासी मरे हुए बैल की खाल उतार रहे हैं या उन्होंने बैल को मारा है. साहू समुदाय के लोग तलवारों, लोहे की मोटी छड़ों और बंदूकों से लैस थे. उन्होंने बेरहमी से चारों पीड़ितों की जम कर पिटाई लगाई. पीड़ितों में से एक की रीढ़ की हड्डी तोड़ दे गयी और उनके हाथ-पैरों में गंभीर चोटें आईं. हमलावर 8 बजे से लगभग 11 बजे तक पीड़ितों को मारते रहे. पीड़ितों द्वारा पानी मांगने पर उन पर पेशाब की गयी. बाद में, पीड़ितों को घसीट कर सड़क पर लाया गया और पुलिस को सूचना दी गयी कि वह उन्हें उठा ले जाये.
दल के निष्कर्ष:
पीड़ितों का पक्ष सबसे विश्वसनीय
दल ने पाया कि पीड़ितों का पक्ष सबसे विश्वसनीय है. एफआईआर से साफ़ है कि जयरागी गाँव के करीब 30-40 लोगों ने घटनास्थल पर पहुँच कर बैल की खाल उतारने के लिए पीड़ितों पर हमला किया. दल को साहू समुदाय का यह कथन विश्वसनीय नहीं लगा कि पीड़ित, शमशान के पास जानवर को ठिकाने लगा रहे थे और नदी को प्रदूषित कर रहे थे. दल ने घटनास्थल की यात्रा की और पाया कि जिस स्थान पर जानवरों को ठिकाने लगाया जा रहा था, वह नीचे था जबकि शमशान घाट ऊंचाई पर स्थित था. अर्थात, इस बात की कोई सम्भावना नहीं थी कि जानवर के अवशेष नदी में फेंके जाने पर भी, वे शमशान घाट को अपवित्र कर सकते थे क्योंकि नदी का बहाव शमशान घाट से घटनास्थल की ओर था. घासी की एफआईआर में और भी कई कमियां हैं.
-सीएसएस टीम
(अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)