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प्रोफ़ेसर रोमिला थापर (Professor Romila Thapar) से जेएनयू प्रशासन ने उनका सीवी, अर्थात् उनके अकादमिक कामों का लेखा-जोखा माँगा है ताकि वह उनको दिये गये प्रोफ़ेसर एमिरटस के पद पर पुनर्विचार कर सके।
Eminent historian and Padma Bhushan awardee Romila Thapar has been reportedly asked by the Centre to submit her CV so that it can consider if she can continue as professor emeriti at Jawaharlal Nehru University (JNU).
जाहिर है कि यूनिवर्सिटी की यह माँग उनके द्वारा किसी प्रकार की जाँच या अपने रेकर्ड को अद्यतन करने का प्रस्ताव नहीं है। यह सीधे तौर पर भारत के एक श्रेष्ठ शोधकर्ता, दुनिया में प्रतिष्ठित इतिहासकार और एक प्रखर और निडर बुद्धिजीवी का आज के सत्ताधार्यों द्वारा किया जा रहा खुला अपमान है।
प्रोफेसर थापर दुनिया के उन चंद इतिहासकारों में एक हैं, जिनके भारतीय इतिहास के प्राचीन काल के तमाम शोधों को सभ्यता और आबादी संबंधी आधुनिकतम वैज्ञानिक प्रविधियों तक ने पूरी तरह से पुष्ट किया है।
हमें यह कहने में ज़रा भी हिचक नहीं है कि भारतीय इतिहास के प्राचीनकाल के बारे में प्रोफेसर रोमिला थापर के शोध कार्यों (Research works of Professor Romila Thapar) के बिना आज तक हम सचमुच अपने राष्ट्र के इतिहास के संबंध में बैठे-ठाले गप्पबाजों की कपोल-कल्पनाओं के अंधेरे में ही भटकते रहते। कोई हमें हज़ारों वर्षों से जंगलों में रहने वाले जीव-जंतुओं की श्रेणी में बताता रहता, तो इसके विपरीत कोई हमें हज़ारों साल पहले ही विज्ञान की अब तक की सभी उपलब्धियों का धारक, ‘विश्वगुरु’ होने के मिथ्या गौरव के हास्यास्पद अहंकार में फँसाये रखता, जैसा कि अभी किया जा रहा है।
इन सबके विपरीत, यह प्रोफेसर थापर के स्तर के इतिहास के लगनशील शोधकर्ताओं का ही कर्त्तृत्व है कि हम आज दुनिया की एक प्राचीनतम, भारतीय सभ्यता के तमाम श्रेष्ठ पक्षों को ठोस और समग्र रूप में वैश्विक संदर्भों में देख-परख पा रहे हैं।
The personality and gratitude of Professor Romila Thapar
प्रोफेसर रोमिला थापर का व्यक्तित्व और कृतित्व शुरू से ही भारत में आरएसएस की तरह की पोंगापंथी हिन्दुत्ववादी शक्तियों के लिये नफरत का विषय रहा है। उनकी युगांतकारी पुस्तकें (Professor Romila Thapar's epoch-making books), ‘भारत का इतिहास’, ‘Ashoka and the Decline of Mauryas’ ‘The Aryan : Recasting Constructs’ हमारे इतिहास के विकृतिकरण की हर मुहिम के रास्ते की सबसे बड़ी बाधाओं की तरह काम करती रही हैं। भारत में आर्यों के विषय में उन्होंने जिन पुरातात्विक, मानविकी, भाषाशास्त्रीय और जनसांख्यिकीय साक्ष्यों आदि के आधार पर सालों पहले जो तमाम सिद्धांत पेश किये थे, उन्हें आबादियों की गतिशीलता के बारे में अध्ययन के सर्वाधिक नवीन और वैज्ञानिक जेनेटिक (आनुवंशिक) जाँच के औज़ारों से किये गये अध्ययनों ने भी सौ फ़ीसदी सही साबित किया है।
इसके विपरीत, कुछ पश्चिमी पौर्वात्यवादियों, संघी प्रचारकों और आत्म-गौरव की उनकी झूठी, काल्पनिक अवधारणाओं से प्रभावित कई लोग इतिहास के अध्ययन को शुद्ध माँसपेशियों और आवेग की शक्ति से, अपने प्रतिक्रियावादी सामाजिक उद्देश्यों के लिये इतिहास का मनमाना पाठ तैयार करने में लगे हुए हैं। इनकी गलत भविष्य दृष्टि ही अतीत के प्रति इनके तमाम गलत पूर्वाग्रहों के मूल में काम कर रही है।
प्रोफेसर रोमिला थापर का काम न सिर्फ अपने गहन शोध कार्यों से इनके कोरे कल्पना-प्रसूत इतिहास के निष्कर्षों को खारिज करता है, बल्कि इतिहास को देखने-समझने की प्रो. थापर की वैज्ञानिक दृष्टि, जो अतीत के प्रति पूर्वाग्रहपूर्ण नज़रिये की कमियों को बताने वाली इनकी कई पुस्तकों, मसलन् ‘The Past as Present’ , ‘History and Beyond’ आदि से जाहिर होती है, इतिहासकारों की तमाम नई पीढ़ियों के लिये प्रकाश स्तंभ का काम कर रही है।
इसके अलावा प्रो. थापर ने हमेशा प्रकृत अर्थों में एक सार्वजनिक बुद्धिजीवी की भूमिका अदा की है। हाल में प्रकाशित पुस्तक ‘The public intellectual in India’ में भी उनके योगदान को काफी सराहा गया है।
भारत के एक ऐसे, लगभग किंवदंती का रूप ले चुके वयोवृद्ध, सत्तासी वर्षीय रोमिला थापर से उनके अकादमिक कामों का लेखा-जोखा माँगना सचमुच एक विश्वविद्यालय के प्रशासन की अज्ञता और उसके दर्पपूर्ण व्यवहार का एक चरम उदाहरण है। यह ज्ञान के क्षेत्र को नष्ट-विनष्ट कर देने के वर्तमान सता के मद का एक भी निकृष्ट उदाहरण है।
इसकी जितनी निंदा की जाए कम है।
अरुण माहेश्वरी
JNU wants to see Romila Thapar's CV,