यह जिम्मेदारी न्यायाधीशों की है कि न्यायपालिका पर खतरे को स्पष्ट करे

author-image
hastakshep
06 May 2019
यह जिम्मेदारी न्यायाधीशों की है कि न्यायपालिका पर खतरे को स्पष्ट करे

न्यायपालिका (Judiciary,) एक स्त्री वाचक शब्द है। न्याय की विश्व प्रसिद्ध मूर्ति भी एक महिला की है। जिसे न्याय की देवी कहा जाता है। उसके एक हाथ में तराजू है आंखों पर पट्टी है। न्याय की मूर्ति वाली महिला लगता है अपनी आंखों से पट्टी नीचे उतार कर खुद ही तराजू के पलड़ों में अपने लिए न्याय तलाश कर रही है।

27 अप्रैल को पटियाला हाउस कोर्ट (Patiala House Court) में हमारे कुछ मुकदमों की सुनवाई थी। हमें मालूम पड़ा कि एक दूसरे कोर्ट रूम में 12:00 बजे एक महिला की बेल एप्लीकेशन पर भी सुनवाई थी। यह महिला वही थी जिन्होंने देश के प्रजातंत्र के महत्वपूर्ण खंबे सर्वोच्च न्यायालय के सर्वोच्च पदासीन व्यक्ति पर बहुत गंभीर इल्जाम लगाया था।

चुनावी माहौल में दो-चार दिन बाद ही खबर गायब हो गई। मगर अपने पीछे आजादी के बाद देश की न्यायपालिका पर बहुत बड़ा प्रश्न चिपका गई। महिला ने सब लिख कर बाकायदा एक शपथ पत्र सर्वोच्च न्यायालय के सभी न्यायाधीशों को भेजा था। उसके बाद जिस तरह आनन-फानन में उन्होंने ही कोर्ट बिठाई जिन पर इल्जाम था। उन्होंने ही सब तय किया।

देश भर में थोड़ी बात खुली तो फिर सर्वोच्च न्यायालय में एक जांच समिति बनी। फिर समिति में कमियों की बात उठी तो एक पुरुष जज महोदय खुद बाहर निकले और एक महिला जज को जांच समिति में जोड़ा गया।

पर न्यायपालिका पर बड़ा प्रश्न चिपका है वह यह कि निर्भया कांड के बाद पूरा देश दहला, न्यायपालिका ने स्वयं कठोर कदम उठाने की सिफारिशें दी। आज उसी न्यायपालिका के न्यायाधीश पर वही इल्जाम और इल्जाम के बाद उनका स्वयं का कार्य व्यवहार ?

ऐसा सब क्यों किया?

पूर्व में सर्वोच्च न्यायालय में पहली बार 4 पीठासीन न्यायाधीशों ने प्रेस वार्ता करके देश के इतिहास में सर्वोच्च न्यायालय के बड़े न्यायाधीश पर प्रश्नों की बड़ी लकीर खींची। एक औऱ नई लकीर आज फिर उन्हीं चारों में से एक ने खींच दी है। क्या ही अच्छा होता है कि न्यायाधीश महोदय पूरे प्रकरण से अपने आप को अलग करके अन्य न्यायाधीशों पर पूरी प्रक्रिया छोड़ देते। याचिकाकर्ता की यही पहली मांग थी।

तब शायद बात अलग होती। सच्चाई तो सामने आती। देश के वे तमाम लोग जो चीजों को बहुत साफ तरीके से देख रहे हैं वे जानते हैं कि न्यायमूर्ति लोया के विषय मे सत्ता अपना दुर्दांत चेहरा न्यायपालिका को दिखा चुकी है और न्यायपालिका के सामने आज भी तमाम मुद्दे सूचीबद्ध है। जिनसे सत्ता को खतरा है।

ऐसे में प्रतिवादी न्यायाधीश ने स्पष्ट रूप से कहा है कि न्यायपालिका को गंभीर खतरा हो गया है। बिल्कुल हम भी मांनते हैं की न्यायपालिका पर गंभीर खतरा तो आया ही है अब यह जिम्मेदारी न्यायाधीशों की है कि उस खतरे को स्पष्ट करे कि क्या खतरा है। डर ये है कि बीच में सत्ता फायदा ना उठा ले।

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ही कानूनों नियमों का पालन ना करते हुए जिस तरह से वादी महिला के शपथ पत्र पर संज्ञान लिया। यदि कोई नीचे की कोर्ट करती तो तुरंत सर्वोच्च न्यायालय में जा सकते थे। अब कहा जाए?

सर्वोच्च न्यायालय नहीं जब वादी महिला को कोई वकील नहीं खड़ा करने दिया। उनको अपने बयान की प्रति भी उसको नहीं दी। जबकि उनका कहना है कि उनके कान में समस्या है तो समिति की कार्यवाही क्या हुई, उनको नही समझ आई। विशाखा निर्देशों के अनुसार पूरी कार्यवाही की कोई वीडियो रिकॉर्डिंग भी नही की गई। तो कैसे एक महिला का व्यवस्था पर विश्वास हो। अब कहां जाएं?

सबको याद होगा कि आज जो मुख्य न्यायाधीश हैं उन्होंने प्रेस वार्ता में कहा था कि मुख्य न्यायाधीश अलग से कोई बड़ा पद नहीं होता बल्कि सर्वोच्च न्यायालय के सभी न्यायाधीश बराबर होते हैं। यह किसी पुरातन काल की बात नहीं। ये बात अभी साल भर भी पुरानी नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को यह बात जरूर ध्यान में रखनी चाहिए।

पूरे आदर और सम्मान के साथ और बहुत पीड़ा के साथ यह बात लिखना पड़ रहा है कि जब एक पढ़ी-लिखी और सर्वोच्च न्यायालय जैसी उच्चतम संस्था में काम करने वाली महिला जब यह आरोप किसी अखबार-पत्रिका में नहीं, किसी छुपे पत्र में नहीं, किसी वीडियो में चेहरा छुपा कर के नहीं, किसी चैनल को नहीं बल्कि सीधे देश के सर्वोच्च न्यायाधीशों को शपथ पत्र भेज रही है। और वह एक निष्पक्ष सुनवाई चाहती है। यदि उसकी भी सुनवाई न्यायालय नहीं करता तो देश की एक आम नागरिक महिला की स्थिति क्या होगी? महिलाओं के पक्ष में 2013 का कानून तथा विशाखा दिशानिर्देश जिनको सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं 1997 में बनाये थे और संविधान की धारा 14 और 21 का क्या अर्थ रह जाएगा?

देश के प्रबुद्ध लोग जानते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश के सामने देश के बहुत विवादास्पद और ज्वलंत मुकदमें सूचीबद्ध है।

देश, यह भी जानता है कि देश के प्रधानमंत्री ने कुछ ही महीनों पूर्व ही मुख्य न्यायाधीश के द्वारा दिए गए रात्रि भोज के समय कोर्ट नंबर 1 में जाकर कुछ समय बिताया और चाय भी पी थी।

इन सब के बावजूद भी एक आम नागरिक ये सब तरह से जाना जरूर चाहेगा कि क्या वादी महिला ने देश की सर्वोच्च संस्था को गिराने का प्रयास किया है? वादी महिला ने देश के सामने खड़े होकर इतनी बड़ी बात स्पष्ट रूप से कहने की हिम्मत जुटाई है।

वे जानती ही होंगी कि कितना ही सभ्य होने के बावजूद भी यह समाज इस तरह की शिकायतों में किसी भी पीड़िता का आंखों से एक्सरे कर लेता है। हमारी पुरुष सत्तात्मकता अभी भी उतनी ही प्रबल है जितने की किसी भी काल में सक्रिय रही होगी।

सर्वोच्च न्यायालय के सभी जजों को देश के 333 1Q1 महिला संगठनों, वकीलों, स्कॉलर्स, सिविल सोसायटी के सदस्यों ने वादी महिला के मुद्दे पर पत्र लिखा जब न्यायालय अपने ही बनाई गई प्रक्रियाओं को नजरअंदाज करेगा, कमजोर के पक्ष में खड़ा नही होगा तो कैसे व्यवस्था में लोग विश्वास करेंगे। मांग की गई है कि विश्वसनीय व्यक्तियों की एक विशेष जांच समिति बनाई है जाए जो जल्दी से गहन जांच करें। पारदर्शिता का माहौल बनाएं जिससे वादी का भरोसा आ सके।

विशेष जांच समिति आंतरिक समिति की शर्तों का पालन करें तथा प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करते हुए जांच करें।

भारत के मुख्य न्यायाधीश अपनी जिम्मेदारियों और कार्यालय कार्यों से जांच होने तक अलग रहे।

वादी को अपनी इच्छा के अनुसार व्यक्ति समर्थक व्यक्ति या वकील के द्वारा प्रस्तुत होने की इजाजत हो।

आज न्यायपालिका पर जो यह नया खतरा आया है उसको देखते हुए न्यायपालिका पर पूरा देश का भरोसा बना रहे और देश की आधी आबादी सर्वोच्च न्यायालय में अपने को असुरक्षित ना महसूस करें। इसके लिए जरूरी है कि यह जांच तुरंत पूरी हो।

यह भी सत्य है कि फिलहाल अब तक जिस तरह से प्रक्रिया चलाई गई है। उससे सर्वोच्च न्यायालय की लाल दीवारों पर एक धब्बा जरूर लग गया है।

विमल भाई

( लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

Subscribe