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Justice S.A. Bobade's priorities and challenges
जस्टिस शरद अरविंद बोबड़े (एस.ए. बोबड़े)- Justice Sharad Arvind Bobde, ने देश के 47वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्यभार संभाल लिया है और अब सभी की निगाहें उनके करीब डेढ़ वर्षीय कार्यकाल पर केन्द्रित रहेंगी। जस्टिस एस.ए. बोबड़े (Justice S.A. Bobde's retirement) 23 अप्रैल 2021 को सेवानिवृत्त हो जाएंगे और उनके इस छोटे से कार्यकाल के दौरान उनके समक्ष कई महत्वपूर्ण मुद्दे सामने आएंगे, जिन पर उन्हें अपना निर्णय सुनाना है। यह तय है कि उनका पूरा कार्यकाल चुनौतियों से भरा रहेगा।
Challenges before Justice S.A. Bobde
अदालतों में लंबित मामलों को निपटाने और मुकद्दमों में होने वाली देरी को दूर करने के लिए वर्ष 2009 में प्रक्रियागत खामी को दूर करना, मानव संसाधन का विकास करना, निचली अदालतों में बुनियादी सुविधाओं को बेहतर बनाना जैसे रणनीतिक नीतिगत कदम उठाए जाने की जरूरत पर विशेष जोर दिया गया था लेकिन इस दिशा में सकारात्मक प्रयास नहीं हुए। न्यायमूर्ति बोबड़े इस चुनौती से कैसे निपटेंगे, यह देखना दिलचस्प होगा।
All about Justice S.A. Bobde
महाराष्ट्र के नागपुर में 24 अप्रैल 1956 को जन्मे न्यायमूर्ति शरद अरविंद बोबड़े को वकालत का पेशा विरासत में ही मिला था। उनके दादा एक वकील थे और पिता अरविंद बोबड़े महाराष्ट्र के एडवोकेट जनरल रहे हैं जबकि बड़े भाई स्व. विनोद अरविंद बोबड़े सुप्रीम कोर्ट के जाने-माने वकील रहे थे। उनकी बेटी रूक्मणि दिल्ली में वकालत कर रही हैं और बेटा श्रीनिवास मुम्बई में वकील है।
शरद अरविंद बोबड़े ने नागपुर विश्वविद्यालय से एलएलबी करने के पश्चात् वर्ष 1978 में बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र की सदस्यता लेते हुए अपने वकालत कैरियर की शुरूआत की थी, जिसके बाद उन्होंने बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ में वकालत की और 1998 में वरिष्ठ अधिवक्ता मनोनीत किए गए। 29 मार्च 2000 को उन्होंने बॉम्बे हाईकोर्ट में बतौर अतिरिक्त न्यायाधीश पदभार ग्रहण किया और फिर 16 अक्तूबर 2012 को मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस बने। पदोन्नति मिलने के बाद 12 अप्रैल 2013 को उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में बतौर जज कमान संभाली।
सुप्रीम कोर्ट में जज बनने के बाद जस्टिस एस.ए. बोबड़े सर्वोच्च अदालत की कई महत्वपूर्ण खण्डपीठों का हिस्सा रहे।
वे अदालत की उस बेंच का भी हिस्सा थे, जिसने आदेश दिया था कि आधार कार्ड न रखने वाले किसी भी भारतीय नागरिक को सरकारी फायदों से वंचित नहीं किया जा सकता। बहुतप्रतीक्षित और राजनीतिक दृष्टि से सर्वाधिक संवेदनशील माने जाते रहे रामजन्मभूमि विवाद की सुनवाई कर रही मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली उस पांच सदस्यीय संविधान पीठ का भी वे अहम हिस्सा थे, जिसने अपने फैसले से देश की न्याय प्रणाली के प्रति हर देशवासी का भरोसा बनाए रखा है।
जस्टिस एस.ए. बोबड़े इस साल उस समय चर्चा में आए थे, जब उन्हें सुप्रीम कोर्ट की ही एक पूर्व महिला कर्मचारी द्वारा मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए जाने के बाद उस अति संवेदनशील मामले की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित हाउस पैनल का अध्यक्ष बनाया गया था, जिसमें न्यायमूर्ति एन वी रमन तथा इंदिरा बनर्जी शामिल थे। इस पैनल ने अपनी जांच के बाद जस्टिस गोगोई को क्लीनचिट दी थी।
जनवरी 2018 में जब सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ प्रेस कांफ्रैंस की थी, तब जस्टिस गोगोई, जे चेलमेश्वर, मदन लोकुर तथा कुरियन जोसेफ के बीच मतभेदों को निपटाने में अहम भूमिका निभाने के चलते भी जस्टिस एस.ए. बोबड़े चर्चा में आए थे। उस समय उन्होंने कहा था कि कोलेजियम ठीक तरीके से काम कर रहा है और केन्द्र के साथ उसके कोई मतभेद नहीं हैं।
जस्टिस एस.ए. बोबड़े ही वह न्यायाधीश हैं, जिन्होंने करीब छह साल पूर्व सबसे पहले स्वेच्छा से ही अपनी सम्पत्ति की घोषणा करते हुए दूसरों के लिए आदर्श प्रस्तुत किया था। उन्होंने बताया था कि उनके पास बचत के 2158032 रुपये, फिक्स्ड डिपोजिट में 1230541 रुपये, मुम्बई के एक फ्लैट में हिस्सा तथा नागपुर में दो इमारतों का मालिकाना हक है।
अगर न्यायमूर्ति बोबड़े की प्राथमिकताओं और उनके समक्ष आने वाली चुनौतियों की बात की जाए तो सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट तथा निचली अदालतों में लंबित मामलों के निपटारे, अदालतों में न्यायाधीशों की बड़ी कमी, विचाराधीन कैदियों की सुनवाई में विलम्ब, न्यायपालिका तथा कार्यपालिका के बीच टकराव जैसी स्थितियां इत्यादि उनके समक्ष कई ऐसी बड़ी चुनौतियां होंगी, जिनसे निपटते हुए उन्हें इनके समाधान के प्रयास करने होंगे। देश की सभी अदालतें न्यायाधीशों की भारी कमी से जूझ रही हैं। विधि आयोग ने वर्ष 1987 में सुझाव दिया था कि प्रत्येक दस लाख भारतीयों पर 10.5 न्यायाधीशों की नियुक्ति का अनुपात बढ़ाकर 107 किया जाना चाहिए लेकिन विड़म्बना ही है कि इन सिफारिशों के 32 साल भी यह अनुपात मात्र 15.4 ही है। सुप्रीम कोर्ट में फिलहाल 31 न्यायाधीश हैं, जहां आठ अतिरिक्त न्यायाधीशों की आवश्यकता है। इसी प्रकार हाईकोर्ट और निचली अदालतों में भी 5535 न्यायाधीशों की कमी है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने स्वयं इस तथ्य को रेखांकित करते हुए कहा था कि जिला और उपमंडल स्तरों पर अदालतों में ही स्वीकृत न्यायाधीशों की संख्या 18 हजार है लेकिन फिलहाल इन अदालतों में केवल 15 हजार के करीब ही न्यायाधीश हैं।
देशभर की अदालतों में लंबित मामलों के अंबार का एक बड़ा कारण अदालतों में न्यायाधीशों की संख्या पर्याप्त न होना भी है। अदालतों में इस समय करीब 3.53 करोड़ मामले लंबित हैं, जिनमें से सुप्रीम कोर्ट में ही करीब 58669 मामले लंबित हैं और उनमें 40 हजार से भी अधिक मामले तो ऐसे हैं, जो करीब तीस सालों से लंबित हैं। ‘नेशनल ज्यूडिशयरी डेटा ग्रिड’ के अनुसार उच्च न्यायालयों में 4363260 मामले लंबित हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने कहा था कि मामलों को जिस गति से निपटाया जा रहा है, उस हिसाब से लंबित मामलों को निपटाने में 400 साल लग जाएंगे और वो भी तब, जब और कोई नया मामला सामने न आए। देश में प्रतिवर्ष मुकद्दमों की संख्या जिस गति से बढ़ रही है, उससे भी तेज गति से लंबित मामलों की संख्या बढ़ रही है। सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2012 में ‘नेशनल कोर्ट मैनेजमेंट सिस्टम’ आरंभ किया था, जिसका आकलन है कि भारतीय अदालतों में वर्ष 2040 तक मुकद्दमों की संख्या बढ़कर 15 करोड़ हो जाएगी और इसके लिए 75 हजार और अदालतें बनाने की जरूरत है। यह न्यायमूर्ति बोबड़े की चिंता का प्रमुख विषय रहेगा।
विभिन्न मुद्दों को लेकर न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच अक्सर टकराव देखा जाता रहा है। सरकार द्वारा कई अवसरों पर कहा गया है कि न्यायपालिका ने जरूरत से ज्यादा सक्रियता दिखाते हुए अपनी सीमारेखा का उल्लंघन किया है और वह कार्यपालिका के क्षेत्र में दखल दे रही है। जस्टिस अरविंद बोबड़े की नियुक्ति पर भले ही कोई विवाद न रहा हो और न्यायपालिका तथा कार्यपालिका के बीच भी कोई टकराव नहीं देखा गया हो लेकिन प्रायः देखा गया है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में भी न्यायपालिका का सरकार के साथ टकराव रहा है। पिछले दिनों भी कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा था कि ऐसी उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि सरकार कॉलेजियम की सिफारिशों पर राजी ही होगी। हालांकि जस्टिस एस.ए. बोबड़े का कहना है कि सरकार के साथ उनके संबंध ठीक हैं और सरकार तथा न्यायपालिका को साथ चलना होगा।
भारत की न्याय वितरण प्रणाली को अच्छा बताते हुए चीफ जस्टिस बोबड़े का कहना है कि इसमें आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस जैसी अच्छी तकनीक शामिल करने जैसे कुछ मामूली बदलावों की जरूरत हो सकती है।
उनका कहना है कि किसी भी न्यायिक प्रणाली की शीर्ष प्राथमिकता समय पर न्याय मुहैया कराना है, जिसमें न तो ज्यादा देरी की जा सकती है और न ही जल्दबाजी। मुख्य न्यायाधीश के अनुसार न्याय में देरी से अपराधों में वृद्धि हो सकती है। बहरहाल, देखना होगा कि अपने समक्ष सामने आने वाली उपरोक्त चुनौतियों का मुकाबला करते हुए वे अपने इस डेढ़ वर्ष से भी कम समय के छोटे कार्यकाल में न्यायपालिका में सुधार (Reform of judiciary) के लिए कितना कार्य कर पाते हैं।
- योगेश कुमार गोयल
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं तथा तीन दशक से समसामयिक विषयों पर लिख रहे हैं)