जानिए भारत में एक जनवरी को काला दिवस भी क्यों मनाया जाता है
why black day is also celebrated on January 1 in India
कोल्हान के हो आदिवासियों का गौरवशाली इतिहास
The glorious history of the Ho tribal people of Kolhn
पूरे विश्व में एक जनवरी नया साल के रूप में मनता है और ऐसे में काला दिन वाली बात कुछ हजम नहीं होती। परन्तु हमें उसके लिए कोल्हान के हो आदिवासियों के गौरवशाली इतिहास को याद करना होगा। इतिहास कहता है कि 1820-21 में ‘‘हो’ विद्रोह हुआ था और 1831-32 में कोल विद्रोह हुआ था।
‘‘हो’ आदिवासियों ने अंग्रेजों को अपने जमीन पर कभी हक़ नहीं जमाने दिया था। फिर भी ‘हो’ आदिवासियों पर पूर्णतः नियंत्रण करने तथा सिंहभूम में अपना आधिपत्य स्थापित करने के ख्याल से अंग्रेजी हुकूमत ने गवर्नर जनरल के एजेंट कैप्टन विलकिंसन के नेतृत्व में एक सामरिक योजना बनाई। क्षेत्र के लोगों को अधीन करने के उद्देश्य से पीढ़ के प्रधान मानकी एवं ग्राम के प्रधान मुंडा को अपना कूटनीतिक मोहरा बनाने का प्रयास किया। लेकिन उनकी यह मंशा भी कामयाब न हो सकी और कई जगहों पर अंग्रेजी हुकूमत को लगातार ‘‘हो’ छापामार आक्रमणों का सामना करना पड़ा। ‘‘हो’ लोगों के जुझारू तेवर को देखते हुए कैप्टन विलकिंसन ने इस क्षेत्र में एक सैन्य अभियान चलाया और 1837 तक कोल्हान क्षेत्र में प्रवेश किया। परन्तु इस क्षेत्र के ‘‘हो’ जनजातियों के दिलों में अंग्रेजी सत्ता कभी भी स्थापित न हो सकी।
महान योद्दा पोटो हो के नेतृत्व में एक भयंकर विद्रोह का ज्वालामुखी कोल्हान में फूट पड़ा। अंग्रेजों को इस क्षेत्र से खदेड़ने के लिए जगह-जगह घने जंगलों में गुप्त सभाएं तथा रणनीति, शहीदी जत्था द्वारा बनाये जाने लगे। जगन्नाथपुर के निकट पोकाम ग्राम में इनकी गुप्त सभाएं हुआ करती थीं। पोटो हो के अतिरिक्त शहीदी जत्था में बलान्डिया का बोड़ा हो और डीबे, पड़सा ग्राम का पोटेल, गोपाली, पांडुआ, नारा, बड़ाए सहित इनके 20-25 साथी थे।
कोल्हान में यह विद्रोह लालगढ़, अमला और बढ़ पीढ़ सहित असंख्य ग्रामों में फैल गया और एक जन आन्दोलन के रूप में परिवर्तित हो गया। इस विद्रोह में बलान्डिया के मरा, टेपो, सर्विल के कोचे, परदान, पाटा तथा डुमरिया के पांडुआ, जोटो एवं जोंको जैसे वीर इस स्वतंत्रता संग्राम में कूद गए।
स्वतंत्रता संग्राम को दबाने के क्रम में अंग्रेजों ने कई ग्रामों को जला डाला। महिलाओं और बच्चों की निर्मम हत्या की गई।
पोटो हो के नेतृत्व में संचालित शहीदी जत्था का एकमात्र उद्देश्य राजनीतिक और आर्थिक बाहरी हस्तक्षेप से ‘हो’ आदिवासियों को सुरक्षित रखना और अंग्रेजों से इसका बदला लेना था, उन्हें कोल्हान से खदेड़ना था।
सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण सिरुंग साईं (सेरेंग्सिया) और बगाविला घाटी में स्वतंत्रता संग्राम सेनानिओं ने अपना आधिकार बनाये रखा और एक सुसंचालित एवं सुसंगठित लड़ाई अंग्रेजों के खिलाफ जारी रखा। 19 नवम्बर 1837 को सिरुंग साई घाटी में जब अंग्रेज सेना पहुँची तो पहले से घात लगाये पोटो हो के शहीदी जत्था ने उन पर अचानक तीरों की बछौर कर दी। दोनों ओर पहाड़ों से घिरी घाटी और जंगलों से पूर्ण होने के कारण ‘हो’ आदिवासियों को अंग्रेजों को हराने में दिक्कत नहीं हुई। असंख्य अंग्रेज मारे गए जिसका हिसाब अंग्रेजों ने भी देने में भलाई नहीं समझी।
अंग्रेजों को इस लड़ाई में भारी नुकसान उठाना पड़ा। हार से गुस्साये अंग्रेजों ने 20 नवम्बर 1837 को ग्राम राजाबसा में आक्रमण कर दिया और पूरे ग्राम को जला डाला। अंग्रेजी सेना ने पोटो हो के पिता एवं अन्य ग्रामीणों को गिरप्तार कर लिया परन्तु पोटो हो की गिरप्तारी में उन्हें सफलता नहीं मिली। तत्पश्चात अंग्रेजी सेना ने रामगढ बटालियन से 300 सैनिकों को कोल्हान क्षेत्र में बुलाया। सैन्य शक्ति से परिपूर्ण होकर पुन: कोल्हान में स्वतंत्रता सेनानिओं को पकड़ने का अभियान चलाया गया।
अंग्रेजों ने कई कूटनीतिक चालों एवं ग्रामीणों को प्रलोभन देकर तथा मानकी मुंडाओं को अपने वश में कर 8 दिसम्बर 1837 को पोटो हो और सहयोगी जत्था को गिरफ्तार कर लिया।
18 दिसम्बर 1837 को जगन्नाथपुर में इस आन्दोलनकारियों पर मुकदमा चलाया गया। एक सप्ताह के अंदर यह मुकदमा 25 दिसम्बर 1837 को समाप्त हुआ और 31 दिसम्बर 1837 को मुकदमे का फैसला भी सुना दिया गया।
ज्ञात हो इसकी सुनवाई ख़ुद कैप्टन विल्किंसन ने की, जो संविधान सम्मत तो बिलकुल ही नहीं थी। अंग्रेज चूंकि यह जानते थे पोटो हो और उनके सहयोगियो के जीवित रहते वे कोल्हान पर कभी भी स्थायी रूप से नहीं ठहर सकते, इसीलिए 1 जनवरी 1838 को विशाल जनसमूह के समक्ष जगन्नाथपुर में लोगों को आतंकित करने के लिए पोटो हो, बड़ाय हो, डेबाय हो को फांसी दिया गया। पुन: 2 जनवरी 1838 की सुबह, बाकी बचे नारा हो, पांडुआ हो, देवी हो एवं अन्य को सिरुंग साई (सेरेंग्सिया) ग्राम में फांसी दिया गया।
आजाद भारत में 1 जनवरी 1948 आदिवासियों के लिए काला दिन
आजाद भारत में 1 जनवरी 1948 को खरसावाँ हाट बाजार में असंख्य (2000 से ज्यादा) ‘हो’ आदिवासियों को जो ओड़िशा में अपने क्षेत्र को मिलाए जाने का विरोध कर रहे थे, को गोलियों से भून दिया गया था, उसी तरह दो जनवरी 2006 को कलिंगनगर ओड़िशा में अपना जमीन टाटा कंपनी को नहीं देने वाले 14 हो आदिवासियों को टाटा की सेनाओं ने गोलियों से भून दिया था। इस तरह से यह अभिशप्त दिन ’हो’ समाज एवं कोल्हान के लिए काला दिन की तरह रहा।
कोई भी सभ्य समाज अपने वीर सपूतों के शहादत पर खुशी नहीं मना सकता, इसीलिए इस दिन कोल्हान में काला दिवस के रूप में मनाया जाता है। आदिवासी जहाँ पर भी हैं काला बिल्ला लगा कर या अन्य माध्यम से इस शहादत पर श्रदांजलि अर्पित कर सकते हैं।
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