कुंभ मेले(Kumbh Mela) में कल जगदगुरू स्वामी स्वरूपानंद (Jagadguru Swami Swarupananda) के आह्वान पर एक परम धर्म संसद (Dharma Sansad) का आयोजन हुआ। धर्म संसद के साथ परम शब्द को जोड़ कर जगदगुरू ने मान लिया कि उनके द्वारा आहूत यह संसद अब परा-सत्य का, परमशिव का रूप ले चुकी है ! इसके आगे अब और कुछ नहीं होगा। उनकी यह संसद ब्रह्मांड की सभी संसदों का आदि-अन्त, अर्थात् टीवी चैनलों से प्रसारण पर आश्रित होने पर भी अपौरुषेय, अनंत वैदिक मान ली जायेगी। और उनकी इस परम संसद में विचार का मुद्दा क्या था ? हिंदुओं के इष्ट (Favored by Hindus) श्री राम (Shri Ram) के लिये मंदिर बनाने का मुद्दा (issue of making temple) — एक ऐसा मुद्दा जिसे आरएसएस वालों ने पिछले अढ़ाई दशक से भी ज्यादा समय से एक शुद्ध राजनीतिक मुद्दे में बदल कर भाजपा के लिये राजनीतिक लाभ की खूब फसल काटी है। अर्थात परम धर्म संसद किसी पारमार्थिक विषय पर नहीं, एक ऐसे विषय पर हो रही है जिसने इस चौथाई सदी में एक शुद्ध राजनीतिक रूप ले लिया है। इस विषय से जुड़े आस्था और विश्वास की तरह के पवित्र माने जाने वाले परातात्विक विषय हिंसा और नफरत की तरह की तरह के भेद-प्रधान वासनाओं के विषय में परिवर्तित हो चुके हैं।
जगदगुरू के 'परम संसद' के विपरीत, दूसरी ओर आरएसएस के विश्व हिंदू परिषद ने भी आज कुंभ में इसी विषय पर एक और 'धर्म संसद' का आह्वान किया है। विहिप और संघ परिवार (VHP and Sangh Parivar), ये पूरी तरह से किसी राजनीतिक मंडल के अतिरिक्त और कुछ नहीं है, जिसका उद्देश्य हिंदू धर्म की संस्थाओं पर आरएसएस के पूर्ण राजनीतिक वर्चस्व को स्थापित करना है। जो भी विहिप के इतिहास से जरा सा भी परिचित है, वह जानता है कि आरएसएस के गुरू गोलवलकर ने इस संगठन की पूरी परिकल्पना ही हिंदू धार्मिक संस्थाओं को संघ के नियंत्रण में लाकर एक डंडे से उन्हें हांकने के लिये की थी। चूंकि उनके इस काम में शंकराचार्यों की तरह की सर्वोच्च और हिंदुओं के बीच सर्वाधिक मान्यता-प्राप्त पीठ पहाड़-समान बाधाएँ रहीं हैं, इसीलिये आरएसएस शुरू से ही उन सभी शंकराचार्यों की पीठों का धुर विरोधी रहा है जो उसके नियंत्रण को नहीं स्वीकारते हैं और अपनी स्वतंत्रता के मूल्य को परम समझते हैं।
आरएसएस विहिप के जरिये सनातन हिंदू धर्म को उसके अंदर से विकृत करने के अभियान में, उसके वैविध्यमय स्वरूप को नष्ट करके उसे अन्य पैगंबरी धर्म में तब्दील करने के घिनौने हिंदू धर्म विरोधी काम में लगा हुआ है और इसके लिये वह अपनी राजनीतिक और धन की शक्ति का भरपूर इस्तेमाल करता है। हिंदू धर्म में संघ परिवार की आज तक की भूमिका उसके अन्दर के वैविध्य के सौन्दर्य को नष्ट करके राजनीतिक उग्रवाद की जमीन तैयार करने में उसके प्रयोग की रही है।
सबसे दुख की बात है कि सनातन हिंदू धर्म के अपने सौन्दर्य को नष्ट करने के उपक्रम में संघ परिवार ने कुंभ मेले की तरह के भारत के हजारों-हजारों साल के विशाल महोत्सव को भी पूरी तरह से राजनीति के अखाड़े और साजिशों के अड्डे का रूप देना शुरू कर दिया है।
कुंभ मेला कोई खेल या क्रीड़ा नहीं है जिसमें एक दल पराजित होता है और दूसरा विजयी। यह जन-जन का एक विशाल समागम है। यह भारतवासियों का एक महा-उत्सव है और सनातन धर्म के प्रचारकों का सबसे बड़ा कर्मकांड। खेल या क्रीड़ाओं की भूमिका जय-पराजय के सिद्धांतों पर आधारित होने के कारण कहीं न कहीं प्रतिद्वंद्वितामूलक और एक प्रकार से विभाजनकारी भी होती है। आधुनिक काल में इसके अंतरनिहित विभाजन के तत्व पर कथित खेल-भावना की मरहम लगा कर उसके गलत प्रभाव से बचने की एक सामान्य नैतिकता का विकास किया गया है। लेकिन कोई भी उत्सव या कर्मकांड कभी भी विभाजनकारी नहीं हो सकता है। उसकी तात्विकता में ही मिलन के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता है। कुंभ मेला की परिकल्पना आदि शंकराचार्य ने इस विशाल भारत वर्ष के महामिलन के रूप में, यहां के वैविध्यमय रूप के महाविलय के उत्सव के रूप में की थी। यह सबके मिलन और भारतवर्ष की एकता का उत्सव है।
आरएसएस और संघ परिवार ने इस महान मिलन के पर्व को ही कलुषित करने, इसके जरिये समाज में मेल के बजाय हिंदुओं पर अपने राजनीतिक प्रभुत्व को कायम करने के उद्देश्य से उनके बीच ही आपसी वैमनस्य के बीज बोने का घिनौना कृत्य शुरू कर दिया है। दुनिया जानती है कि मोदी और आरएसएस 2019 में अपनी डूबती नैया को पार लगाने के लिये अयोध्या में राममंदिर के विवादित मुद्दे से लाभ उठाने की हर संभव कोशिश में लगी हुई है। इसी क्रम में वे इस बार के प्रयाग के कुंभ मेले का भी नग्न रूप में इसी उद्देश्य से इस्तेमाल करना चाहते हैं। इस उपक्रम में वे न सिर्फ हिंदू धर्म और कुंभ मेले को ही एक मजाक बना दे रहे हैं, बल्कि भारत के संविधान को भी खुली चुनौती दे कर आधुनिक भारत की एकता और अखंडता की मूल जमीन पर आघात कर रहे हैं।
कुंभ मेले में अभी आरएसएस ने धर्म के नाम पर राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का जो अभियान शुरू किया है, वह सचमुच भारतीय चित्त और हिंदू आस्था के खिलाफ उनका एक ऐसा अपराध है जिसके लिये किसी भी आस्थावान हिंदू को उन्हें कभी क्षमा नहीं करना चाहिए। उनकी ये सारी करतूतें राष्ट्र-विरोधी करतूतें भी है। कुंभ मेला भारतवासियों के लिये कोई मजाक का विषय नहीं है।
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