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Meet with Fahmida Riaz
फहमीदा रियाज़ के साथ तीन दिन की मुलाकातें इलाहाबाद की यादों में हमेशा दर्ज रहेंगी। आठ, नौ और दस नवम्बर के दिन, दोपहर और शामें उनकी मौजूदगी से गुलज़ार रहे। यह कुछ फितरत साहित्यिक-सांस्कृतिक शहर इलाहाबाद की है और कुछ फहमीदा रियाज़ के लेखन और व्यक्तित्व का ज़बरदस्त असर कि इस दौरान हिन्दी और उर्दू साहित्य की दुनिया ने पाकिस्तान की इस जुझारू कवियित्री और लेखिका के लिए पलक पांवड़े बिछा दिए। इलाहाबाद में वैसे भी हिन्दी और उर्दू के साहित्य में कोई ख़ास दूरी नहीं है, इस बेहतर माहौल को फहमीदा रियाज़ के आगमन ने और ज़्यादा उत्साह से भर दिया। उनकी एक बहुत ही खूबसूरत नज़्म इलाहाबाद के विश्व प्रसिद्ध संगम पर है।
Meet with Fahmida Riaz in Allahabad
इलाहाबाद में हर दिन उन पर कार्यक्रमों का तांता लग गया। दिन भर कार्यक्रमों में शिरकत फिर साहित्य और संस्कृति के लोगों के साथ घंटों-घंटों अनौपचारिक बातें। तमाम पत्रकारों से लम्बी-लम्बी बातें, इलाहाबाद ने उनके साथ एक-एक पल को कई गुना बड़ा बना कर खूब जिया। फहमीदा जी ने भी किसी को मायूस नहीं किया। दिन भर कार्यक्रमों में व्यस्तता के बावजूद उनकी गर्मजोशी में जरा भी कमी नहीं महसूस हुई।
Pakistan is a country groaning with its wounds
फहमीदा जी से बात करना पाकिस्तान के दुखद वर्तमान के सफ़र पर जाने जैसा है। अपने देश से प्यार उनकी रगों में बहता है। पाकिस्तान की जो खतरनाक तस्वीर हिन्दुस्तान में दिखाई जाती है दरअसल वह वैसा भी नहीं है। वह अपने ज़ख्मों से कराहता एक देश है। आप उनसे कोई भी सवाल कीजिये बात घूम फिर कर पाकिस्तान की बदहाली के राजनीतिक कारणों पर लौट आती है।
उर्दू साहित्य की यह संवेदनशील लेखिका राजनीति को ज़रा भी नज़रअंदाज़ नहीं करतीं। वे बताती हैं ड्रोन हमलों को लेकर राजनीति हो रही है। जो तालिबान हैं वे गरीब और बेरोजगार नौजवान हैं, जो अतीत के अफगान युद्ध में मारे गए बदनसीब लोगों के अनाथ बच्चे हैं। उन्हें शिक्षा और रोज़गार मिले तो तालिबान की जड़ ख़त्म हो सकती है। पर यह करेगा कौन ? यह राजनीति के मंसूबों पर सवालिया निशान है।
वह कहती हैं धर्म के आधार पर देश नहीं बनाए जा सकते, भाषा के आधार पर भी नहीं क्योंकि एक इंसान धर्म और भाषा के अलावा भी बहुत कुछ और होता है।
वे इतने प्यार और ख़ुलूस से बात करती हैं कि बस... जो मिले उन्हें सुनता ही रहे। बातों में आधुनिकता, तहजीब और पूरा तर्क। बहुत ही साफ़ दिल से अपनी बात कहना, एकदम ओरिजिनल व्यक्तित्व , कोई भी हिस्सा जरा भी बनावटी नहीं, न प्यार, न हर वक्त चेहरे पर खिली मुस्कान, न बेतकल्लुफी, कुछ भी छिपाना नहीं, सब साफ़ शीशे सा। बड़े नाम होने का कोई दंभ नहीं, जरा भी असहजता नहीं, वे सबसे खुले दिल से मिलीं और हर मुद्दे पर बहुत साफगोई से चर्चा की।
जब वे बोलती हैं कुछ मधुर राग सा बहने लगता है कि बस आप शांत सुनते रहिये। उनकी बातों में वह सब आयेगा जो आप सुनना चाहते हैं, वे सब कुछ कहना चाहती हैं, सब कुछ कहती हैं। सिर्फ अपने बारे में नहीं पूरी दुनिया के बारे में। उनकी बातों के किरदार पूरी दुनिया छूते हैं, हिन्द-पाक, यूरोप, सऊदी अरब, अमेरिका। सब के समाजों और लेखन पर उनकी नज़र है।
वे इस बात पर अफ़सोस जताती हैं कि उर्दू में उन्हें उपेक्षित किया गया, जैसे फहमीदा रियाज़ का कोई वजूद ही न हो। क्योंकि उन्होंने बहुत से प्रतिबंधित माने जाने वाले सवाल अपने लेखन में उठाये हैं। वे कहती हैं उन पर जो कुछ लिखा गया है वह अंग्रेज़ी में लिखा गया है।
कुछ तो बिरादराना है कि हिन्दुस्तान -पाकिस्तान के साहित्यकार और कलाकार एक दूसरे की रूह को छूते हैं।
फहमीदा जी याद करती हैं रेशमा, इकबाल बानो, फरीदा खानम, आबिदा परवीन को।। और ऐसे तमाम कलाकारों-साहित्यकारों को जो किसी सीमा की बंदिशों में नहीं रहे।
वे कहती हैं लेखक को सच हर हाल में सच का साथ देना चाहिए। वह सच लिखे, अपने दिल की आवाज़ सुने। उन्होंने कहा पाकिस्तान में फ़ौजी हुकूमत रही है। खराब समय में पाकिस्तान के लेखकों ने सत्ता की ज्यादतियों के
खिलाफ आवाज़ उठाई है। देश निकाले बर्दाश्त किये हैं। पाकिस्तान में लेखकों ने बहुत राजनीतिक लेखन किया है। कई बार सीधे लिखा है, कई बार प्रतीकों का सहारा लिया है। खराब कानूनों के खिलाफ आवाज़ उठाई है।
फहमीदा रियाज़ साहिबा से प्रगतिशील लेखक संघ ने कार्यक्रम रखने की दरख्वास्त की जो उन्होंने बहुत ही सरलता से स्वीकार की। इसके पहले इलाहाबाद विश्वविद्यालय के महिला छात्रावास में उनका कार्यक्रम बहुत ही शानदार रहा। उन्हें सुनने के लिए छात्र-छात्राएं सैकड़ों की तादाद में उमड़ पड़े।
हाल खचाखच भर गया। न फहमीदा जी ने बोलने में कोई पक्ष छोड़ा, न युवा साथियों में उन्हें सुनने में उत्सुकता और लगाव की कमी दिखी। बातें, फिर नज्मे... फिर बातें, फिर नज्मे, फहमीदा जी अपनी ज़िंदगी के वर्क युवाओं से साझा करती रहीं और लड़कियां बहुत दिलचस्पी से उन्हें सुनती रही। तालियों की गड़गड़ाहट कई बार गूंजी। आटोग्राफ और फोटो सेशन भी खूब हुए। मिक्का और हनी सिंह के ज़माने में किसी गंभीर लेखक के आने पर इतना शानदार स्वागत-सत्कार और प्यार बहुत कम ही देखने को मिलता है।
उन्होंने एक समय भारत में रजिया सज्जाद ज़हीर और सज्जाद ज़हीर की पहल पर छपी किताब “अंगारे” का ज़िक्र किया कि किस तरह उस किताब ने उस समय के समाज में तूफ़ान ला दिया।
उन्होंने फैज़, साहिर की शायरी का ज़िक्र किया कि तरक्कीपसंद और सही बात करना अदब की ज़िम्मेदारी है।
भारत पाकिस्तान रिश्तों में साहित्य की भूमिका पर वह कहती हैं जहां तक पोएट्री है उसकी हमारे कल्चर में बहुत इम्पोर्टेंस है। हर कोई गीत गाता है, एक रिक्शावाला भी गीत गाता चला जाता है। लोग अपनी बातचीत में शेर को कोट करते हैं, यह बड़ी अच्छी चीज़ है। वहां अपने सूफी कवि हैं। जिन्हें बहुत आदर से पढ़ा जाता है। यह हमें आपस में जोड़ता है।
फहमीदा जी खूब रस लेकर मज़े से बातें करती हैं।
यह पूछने पर कि पाकिस्तान में किस लेखक को पढ़ा जाना चाहिए, शरारत से मुस्कुराती हैं - पाकिस्तान में जो बहुत अच्छा लिखती हैं वो एक महिला हैं, उन्हें भारत में पढ़ना चाहिए - उनका नाम है फहमीदा रियाज़। और फिर जोर का ठहाका लगाती हैं।
लेकिन मामला इतना सा नहीं है। फहमीदा रियाज़ का लेखन देश, भाषा और जेंडर के बंधन को तोड़ चुका है। “तुम बिलकुल हम जैसे निकले अब तक कहाँ छिपे थे भाई ...” इस नज़्म को किस दायरे में कैद करेंगे जिसे पढ़-सुन कर इलाहाबाद के युवा हैरान होने लगते हैं –अरे ये तो हमारी तरह बोलती हैं। यह तो बिलकुल हमारी ज़ुबान है।
समकालीन लेखकों में वे कहती हैं- सिन्धी में लिखती हैं – अमर सिन्धु, जो युवा कवियित्री और मार्क्सिस्ट हैं। बहुत ही उम्दा लेखक हैं- अली अकबर नातिक। ये लघु कहानियां लिखते हैं और मजदूर के बेटे हैं। इन्हें नौकरी करने मध्य पूर्व जाना पड़ा। नातिक ने सऊदी अरब को लेकर बहुत ज़बरदस्त राजनीतिक लेखन किया है। हालांकि ऐसे ईमानदार लेखकों को हर जगह उपेक्षित किया जाता है। आपको उन्हें अपने यहाँ बुलाना चाहिए।
भारत में मैला आँचल बड़ी ज़बरदस्त किताब है। रेणु की अन्य कहानियां भी बहुत बेहतरीन हैं। उदय प्रकाश की कहानियाँ बहुत अच्छी हैं। ये सब पाकिस्तान में भी छपती हैं। अलका सरावगी- कलिकथा वाया बाईपास अच्छी है। अरुंधती राय की मैं दिल से बड़ी इज्ज़त करती हूँ। वह सिर्फ लेखक नहीं उससे भी कहीं ज्यादा हैं। उनको अपनी किताब से जो शोहरत और पैसा मिला वह उन्होंने सामाजिक कामों में लगाया।
फहमीदा रियाज़ तीन दिन इलाहाबाद रहीं। इलाहाबाद से उन्हें हमेशा बहुत प्यार रहा है और इलाहाबादियों को भी उनसे बेशुमार मुहब्बत है। उनकी इस यात्रा ने एक बार फिर इस जज्बे को ताकत दी है।
संध्या नवोदिता