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नई दिल्ली, 31 मई म019. चर्चित एंकर पुण्य प्रसून बाजपेयी ने अपने ब्लॉग में कांग्रेस के पुनरोद्धार को लेकर लंबी टिप्पणी करते हुए कहा है कि मोदी भी जानते हैं कांग्रेस मर नहीं सकती, लेकिन इसी के साथ बाजपेयी ने यह भी समझाने की कोशिश की है कि राहुल गांधी की कांग्रेस कैसी होगी।
पुण्य प्रसून बाजपेयी ने अपने ब्लॉग में जो लिखा उसका संपादित अंश हम यहां साबार दे रहे हैं -
कांग्रेस में सन्नाटा है। सन्नाटे की वजह हार नहीं है। बल्कि हार ने उस कवच को उघाड दिया है जिस कवच तले अभी तक बड़े-बड़े कांग्रेसी सूरमा छिपे हुए थे और अपने बच्चों के लिए कांग्रेस की पहचान और कांग्रेस से मिली अपनी पहचान को ही इन्वेस्ट कर जीत पाते रहे। पहली बार इन कद्दावरों के चेहरे पर शिकन दिखायी देने लगी है क्योंकि उनका राजा भी चुनाव हार गया। और बिना राजा कोटरी कैसी? चापलूसी कैसी? कद किसका? और बिना कद कार्यकत्ताओ की फौज भी नहीं। मान्यता भी नहीं। और चाहे अनचाहे कांग्रेसी राजा यानी राहुल गांधी ने उस सच को अपने इस्तीफे की धमकी से उभार दिया जिसे सुविधाओं से लैस कांग्रेसी राहुल गांधी की घेराबंदी कर अपनी दुकान को अरामपस्ती से अभी तक चलाते रहे।
कांग्रेस खत्म हो नहीं सकती इसे तो नरेन्द्र मोदी भी जानते हैं और रईस कांग्रेसियों का झुंड भी जानता समझता है। क्योंकि कांग्रेस की पहल किसी राजनीतिक दल की तर्ज पर कभी हुई ही नहीं। उसे शुरुआती दौर में आाजादी के संघर्ष से जोड कर देखा गया तो बाद में व्यक्तित्व का खेल बन गया।
गांधी परिवार से जो-जो निकला, उसका जादुई व्यक्तित्व जब-जब जनता को अच्छा लगा, उसने कांग्रेस के हाथों सत्ता सौंप दी।
नेहरु, इंदिरा, राजीव की राजनीतिक पारी में मुद्दों का उभरना और व्यक्तित्व का जादुई रूप ही छाया रहा। लेकिन सोनिया गांधी के दौर में विपक्ष के अंधेरे ने कांग्रेस को सत्ता दिला दी। और राहुल गांधी के वक्त गांधी परिवार के व्यक्तित्व की चमक को अपने नायाब नैरेटिव या कहें मुद्दों के काकटेल तले कहीं ज्यादा चमक रखने वाले मोदी उभर आये। लेकिन कांग्रेस की व्याख्या या कांग्रेस का परिक्षण का ये आसान तरीका है।
दरअसल कांग्रेस की यात्रा या कहें नेहरुकाल से भारत को गढ़ने का जो प्रयास गवर्नेंस के तौर पर हुआ, उसमें गांव या कहें पंचायत से लेकर महानगर या संसद तक कांग्रेस सोच बिना पार्टी संगठन के भी पलती बढती गई। सीधे समझें तो जिस तरह पन्ना प्रमुख से लेकर संगठन महासचिव के जरिये बीजेपी ने खुद को राजनीतिक दल के तौर पर गढ़ा उसके ठीक उलट देश की नौकरशाही <बीडीओ से आईएएस़>, देश में विकास का इन्फ्रास्ट्क्चर, औद्योगिक और हरित क्रातिं या फिर सूचना के अधिकार से लेकर मनरेगा तक की पहल को कांग्रेसी सोच तले देखा परखा गया।
यानी कांग्रेसी कार्यकर्त्ताओं ने या फिर कांग्रेसी संगठन ने जो भी काम किया वह कांग्रेसी सत्ता से निकली निकली नीति या देश में लागू किये गए निर्णयों की कारपेट पर ही चलना सीखा। और सत्ता के मुद्दे के साथ गांधी परिवार के व्यक्तित्व से नहायी कांग्रेस को इसका लाभ मिलता चला गया। जबकि इसके ठीक उलट ना तो जनता पार्टी की सरकार में ना ही वाजपेयी की सत्ता के दौर में कोई ऐसा निर्णय लिया गया जिसे कभी जनसंध या फिर बीजेपी को लाभ मिलता।
बीजेपी ने सत्ता में आने के बाद पहली बार मोदी कार्यकाल में ही नये तरीके से सत्ता के नैरेटिव को इतनी मजबूती से बनते देखा कि बीजेपी का संगठन या संगठन के साथ खडे स्वयंसेवकों की फौज यानी आरएसएस की चमक भी गायब हो गई। यानी एक वक्त मंडल को काउंटर करने के लिए कंमडल की फिलासफी। या फिर अयोध्या आंदोलन के जरिये बीजेपी-संघ परिवार को एक साथ मथते हुए देश को पार्टी से जोड़ने की कोशिश जिस अंदाज में हुई, वह बीजेपी को सत्ता मिलते ही गायब हो गई।
यानी बीजेपी को सत्ता हमेशा अपने राजनीतिक संगठन की मेहनत से मिली। पर सत्ता में आते ही संगठन को ही कमजोर या धता बताने की प्रक्रिया को भी बीजेपी ने ही जिया। लेकिन कांग्रेस ने कभी संगठन पर ध्यान दिया ही नहीं और संगठन हमेशा कांग्रेसी सत्ता के निर्णयों या कहें कार्यों पर ही निर्भर रहा। शायद इसीलिए पहली बार जब बीजेपी का अंदाज बदला। उसका सबकुछ नेतृत्व में समाया तो कांग्रेस के सामने संकट ये उभरा कि वह पारंपरिक राजनीति को छोडे या फिर पारंपरिक राजनीतिक करने वाले दिग्गज नेताओं को ही दरकिनार करें। क्योकि कांग्रेस मथने की जो पूरी प्रक्रिया है उसमें नेतृत्व को ना सिर्फ क्रूर होना पड़ेगा बल्कि निर्णायक भी होना होगा। और राहुल गांधी के इस्तीफे की पेशकश इसी की शुरुआत है। क्योंकि राहुल गांधी भी इस सच को जाने हैं कि जबतक उनके पास संपूर्ण ताकत नहीं होगी तब तक चिंदबरम या गहलोत या कमलनाथ के बेटे कहीं ना कहीं टकराते रहेगें। सिंधिया का महाराजा वाला भाव जाग्रत रहेगा। और चारों तरफ से चापलूस या गांधी परिवार के दरवाजे पर दस्तक देने की हैसियत वाले ही कांग्रेस के भीतर बाहर खुद को ताकतवर दिखलाकर कद्दावर कहलाते रहेंगे।
राहुल गांधी अब कांग्रेस के उस ठक्कन को ही खोल देना चाहते हैं जिस ढक्कन के भीतर सब कुछ गांधी पारिवार है। यानी सोनिया गांधी के आगे हाथ से राह दिखाते नेता, प्रियका गांधी के आगे खडे होकर रास्ता बनाते नेता या फिर खुद उनके सामने नतमस्तक भूमिका में खड़े होकर बड़े कांग्रेसी बनने कहलाने की सोच लिए फिरते कांग्रेसियों से कांग्रेस को मुक्त कैसे किया जाये अब इसी सवाल से राहुल गांधी ज्यादा जूझ रहे हैं।
सवाल है कि अगर चिंदबरम, कमलनाथ या गहलोत को राहुल गांधी रिटायर ही कर दें तो किसी पर क्या असर पड़ेगा। या फिर इस कतार में सलमान खुर्शीद हों या पवन बंसल या फिर श्रीप्रकाश जयसवाल या सुशील कुमार शिंदे या फिर किसी भी राज्य का कोई भी वरिष्ठ कांग्रेसी। सभी के पास खूब पैसा है। सभी के लिए कांग्रेस एक ऐसी राजनीति की दुकान है जहां कुछ इनवेस्ट करने पर सत्ता मिल सकती है यानी लाटरी खुल सकती है। और कांग्रेस कं पास अगर इन नेताओं का साथ ना रहेगा तो होगा क्या ? शायद पहचान पाये चेहरों की कमी होगी या फिर गांधी परिवार के सामने संकट होगा कि वह खुद को कद्दावर कैसे कहे जब वह कांग्रेसी कद्दावरों से घिरे हुए नहीं है तो।
लेकिन इसका अनूठा सच तो गुना संसदय सीट पर मिले जनादेश में जा छुपा है, जहां महाराज जी को उनका ही कारिंदा या कहें जनता से निकला एक आम शख्स हरा देता है। और वहीं से सबसे बडा सवाल भी जन्म लेता है कि बदलते भारत में पारंपरिक नेताओं को लेकर जनता में इतनी घृणा पैदा हो चुकी है कि वह उसकी रईसी से तंग आ चुका है। फिर युवा के मन में कभी कोई नेता आदर्श नहीं होता। और ना ही युवा किसी भी कद्दावर नेता को बर्दाश्त करता है।
युवा भारत जब बोलने की स्वतंत्रता को ना सिर्फ राजनीतिक मिजाज से अलग देखता है बल्कि क्रिएटिव होकर अब तो वह राजनीतिक पर किसी भी विपक्ष की राजनीतिक समझ से ज्यादा तीखा कटाक्ष करता है। तो ऐसे में नेताओं का भी संवाद सीधा होना चाहिये। साफगोई नीतियों के सामने आना चाहिये और ये समझ कैसे कांग्रेसी समझ ना पाये ये सिर्फ सिंधिया ही नहीं बल्कि मल्लिकार्जुन खड़गे की चुनावी हार से भी समझा जा सकता है। यानी कल तक संसद में कांग्रेस का नेता। विपक्ष का नेता। और भूमि अधिग्रहण से लेकर नोटबंदी और जीएसटी भी इन्हीं के काल में मोदी सत्ता ल कर आई तो फिर विपक्ष के नेता के तौर पर सिर्फ दलित सोच को उभारकर मल्लिकाजुर्जन खड़गे को आगे करने की जरूरत क्या थी।
क्या 2014 में कमलनाथ विपक्ष के नेता के तौर पर सही नहीं थे? तो फैसले गलत लिए गए या गलत होते चले गए। और एक वक्त के बाद कांग्रेसी ही जब गांधी परिवार से थक हार जाता रहा तो फिर उसका संयम सिवाय कांग्रेस से कमाई के अलावा कुछ रहा भी नहीं।
राजनीति और चुनाव के वक्त जो सामाजिक-आर्थिक या कहें राजनीतिक नैरेटिव भी चाहिये, उसपर क्या किसी ने कभी सोचा? और नहीं सोचा तो मल्लिकार्जुन खड़गे इतनी बडी पहचान के वाबजूद चुनाव हार गए? यानी जिनका पहचान ही रही कि कभी चुनाव नहीं हारते हैं, इसलिए मल्लिकार्जुन खड़गे को "सोल्लिडा सरदारा" भी कहते थे। लेकिन कांग्रेस जब सिर्फ गांधी परिवार के कंधे पर सवार होकर राजनीतिक चुनावी प्रचार ही देखती रही और राहुल गांधी अभिमन्यु की तरह लड़ते-लड़ते थके भी, तब भी कांग्रेस में अपनी गरिमा समेटे कौन सा नेता निकला? तो क्या राहुल गांधी अब अभिमन्यु नहीं बल्कि अर्जुन की भूमिका में आना चाहते हैं जहाँ उनके जहन में कृष्ण का पाठ साफ तौर पर गूंज रहा है कि कांग्रेस को जिन्दा रखना है तो कोटरी, चापलूस और डरे-सहमे रईस कांग्रेसियों का वध जरूरी है?
और जिन कांग्रेसियों से राहुल गांधी घिरे हुए हैं वह घबरा भी रहे हैं कि कही राहुल गांधी वाकई कांग्रेस को पूरी तरह बदलने ना निकल पड़ें। तो वो पंजाब, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ में कांग्रेस की जीत का सहरा भी अपने माथे बांध लेता है। लेकिन इस सच को कोई नहीं कहता है कि इन राज्यों में कांग्रेस की जीत से पहले बीजेपी की सत्ता की हार जनता ने चुनी। इसीलिए जब नारे लगते रहे कि "वसुंधरा तेरी खैर नहां, लेकिन मोदी से बैर नहीं" तो भी कांग्रेसी समझ नहीं पाये कि कौन सी व्यूहरचना मोदी ने अपने कद के लिए बना रखी है या अभी वह लगातार बना रह है।
बीजेपी में कद्दावर क्षत्रप भी मोदी को बर्दाश्त नहीं और कांग्रेस में खुद को मजबूत क्षत्रप के तौर पर मान्यता पाने की होड़ अब कैप्टन से लेकर कमलनाथ और गहलोत से लेकर बधेल तक में है। लेकिन कांग्रेस को पार्टी के तौर पर अवतरित सिर्फ 10 जनपथ या 24 अकबर रोड में डेरा जमाये कांग्रेसियों से मुक्ति भर से नहीं होगा, बल्कि मोदी की सत्ता काल में बीजेपी की कमजोरी को कांग्रेस कैसे ताकत बना सकती है और कैसे ग्राम सभा से लेकर लोकसभा तक की लकीर सबको साथ जोड़ने वाली विचारधारा के साथ लेकर चला सकती है, इम्तिहान इसी का है। और इस परीक्षा का पहला सामना तो राहुल गांधी को ही करना होगा जिनके पास अभी तक जमीनी राजनीतिक समझ ही नहीं बल्कि समाज को समझने वालो की टीम तक नहीं है। जो अभी तक ये नहीं समझ पाये हैं कि संगठन का विस्तार या कारगर रणनीति बनाते रहना या फिर जनता से सीधा संपर्क कैसे बनायें, इस समझ को अपनी कोर टीम में विकसित कर पायें।
अगर अतीत में ना भी झांके कि ममता और जगन ने कांग्रेस क्यों छोड़ी या फिर वह सफल क्यों हो गए लेकिन भविष्य तो देख समझ सकते हैं कि आखिर ममता का साथ छोड़ने वाले बीजेपी से पहले कांग्रेस की तरफ क्यों नहीं देख सकते हैं। वामपंथियो के 22 फीसदी वोट बंगाल में बीजेपी के पास क्यों चले गए जबकि वाम की पूरी फिलोस्फी ही कांग्रेस ने अपने मैनिफेस्टो में डाल दी। फिर भी कांग्रेस को भरोसा क्यों नहीं जागा?
इतना ही नहीं संगठन में बूथ लेबल पर काम करने वाल कांग्रेसी, जिन्हें एक वक्त वोट कलेक्टर माना जाता था, उन्हें बेहद सम्मान मिलता था वह कहां गायब हो गए। आलम तो ये हो गया कि बूथ पर बैठे कांग्रेसियों को ग्वालियर संभाग में तीन बजे के बाद खाना तक नहीं मिल पाया तो बीजेपी का बूथ लगाये लोगों ने भोजन दिया। और माहौल इस तरह बनता क्यों चला गया कि जिसने मोदी को वोट नहीं दिया वह भी बाहर आकर कहने लगा कि उसने मोदी को वोट दिया और जिसने कांग्रेस को वोट दिया वह भी कांग्रेस जिन्दाबाद के नारे लगाने में हिचकने लगा।
कहीं तो नैतिक पतन है या फिर कहीं तो राहुल गांधी को अकेले लड़ते छोड रईस कांग्रेसियो में राहुल को लेकर ही सवाल है, इसलिए सभी अपनी सुविधा बनाये रखने के लिए राहुल के इस्तीफे को भी नाटक मान रहे हैं और फैला भी रहे हैं।
फिर ये सवाल अब भी अनसुलझा सा है क्या वाकई राहुल गांधी बतौर राजनीतिक कार्यकर्त्ता रह सकते हैं, या फिर सिर्फ अध्यक्ष के तौर पर रह सकते हैं, या फिर गांधी नाम रखे हुए अध्यक्ष की कुर्सी संभालते हुए उस कांग्रेसी कटघरे से बाहर निकल कर कांग्रेसियों को ये पाठ पढा सकते हैं कि जो उनके अगल-बगल खडा होकर खुद को मजबूत मानता है दरअसल वह सबसे भ्रष्ट है। क्योंकि सच तो ये भी है कि दिन भर राहुल के इर्द गिर्द मंडराते रईस, चेहरे वाले कांग्रेसी रात में मोदी तक बात पहुंचा कर अपने नंबर सुबह शाम में जोडते हैं और हमेशा खुश-खुश नजर आते हैं और जब युद्ध की मुनादी राहुल गांधी करते हैं तो पहले सभी समझाते हैं युद्ध से कुछ नहीं होगा। फिर खुद को युद्ध से बाहर कर नजारा देख हसंते ठिठोली कर खुश होते रहते हैं। और जब राहुल गांधी कहते हैं तुम्ही संभालो कांग्रेस को तो रुआँसा सा चेहरा बनाकर कहते हैं "राहुल गांधी हैं तो कांग्रेस है।"
तो बदलाव की बयार कांग्रेस में बहेगी या फिर कांग्रेस धीरे-धीरे सिर्फ नाम भर में तब्दील हो कर रह जायेगी ये नया सवाल है। जबकि इतिहास में राहुल गांधी के पास सबसे बेहतरीन मौका कांग्रेस को संवारने का है। और इसकी सबसे बडी वजह मोदी सत्ता में बीजेपी-संघ परिवार की सोच के खत्म होने का है। सिर्फ मोदी की गरिमामय मौजूदगी और लारजर दैन लाइफ का जो खंल खुद मोदी ने बीजेपी के 11 करोड कार्यकर्त्ता और 60 लाख स्वयंसेवक के साथ-साथ सवा सौ करोड़ भारतीय के नाम पर शुरु किया है, वह भारतीय राजनीति के उस संघर्ष को ही झुठला रहा है जो कभी नेहरू-इंदिरा के खिलाफ लोहिया-जेपी ने किया।
आज की तारिख में पुराने लोहियावादी हों या जेपी संघर्ष के दौर में तपे समाजसेवी, सभी खुद को अलग-थलग पा रहे हैं। मोदी काल में उनकी जरूरत ना तो बीजेपी को है ना ही संघ परिवार को।
तो कांग्रेस ने जब अपनी आर्थिक नीतियों में परिवर्तन कर कारपोरेट इक्नामी को नकारना सीखा है। ग्रामीण भारत और किसान-मजदूरों के साथ न्याय को जोडा है। वामपंथी-समाजवादी एंजेंडों को अपने लोकप्रिय अंदाज में समेटा है। और जिस तरह मोदी सत्ता अब अपने जनादेश को मंडल के खत्म होने के साथ जोड रही है और क्षत्रपों के सामने आस्तितव का संकट है, उसमें कांग्रेस के लिए खुद को खडे करने का इससे बेहतरीन मौका कुछ हो नहीं सकता।
तो आखरी सवाल यही है कि क्या राहुल गांधी भी कांग्रेस के इस ब्लूप्रिट को समझ रहे हैं और उसे जमीन पर उतारने के लिए अब उन्हें बिल्कुल नये सिपाही चाहियें। नये सिपाहियो के जरिये संघर्ष की मुनादी से पहले सिर्फ गांधी पारिवार का नाम नहीं बल्कि सारे अधिकार चाहियें और जब राहुल गांधी कांग्रेस के उस ढक्कन को खोल कर बोतल में बंद राजनीति को आजाद कर कांग्रेस को भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों से जोड कर बीजेपी के छद्म राष्ट्रवाद, मोदी मैजिक और भावनात्मक हिन्दुत्व से मुक्ति दिलाने की दिशा में बढ़ना चाहते हैं तो फिर सफेद कुर्ते-पजामे में खुद को समेटे गांधी परिवार की चाकरी कर कांग्रेसी होने का तमगा पाये लोगों से मुक्ति तो चाहिये ही होगी।
Modi knows that Congress can not die, but how will Rahul Gandhi's Congress be