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डर मुझे भी लगता है। शुरुआत में जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने थे तो अपरिचित भक्त तो गालियां दे ही रहे थे, कुछ परिचित भक्त भी नीचता पर उतारू हो गए और उन्हें फेसबुक पर ब्लॉक करना पड़ा। तमाम शुभचिंतकों ने लिखने से मना भी किया।
हालांकि आरएसएस बीजेपी समर्थक, जो मित्र हैं, ठंडे पड़े हैं और उस कदर नहीं पगलाते। भक्त भी कुछ ठंडे पड़े हैं।
फिर भी नौकरी, सम्बन्ध खराब होने को लेकर डर लगता है, लेकिन उतना नहीं। यह फीलिंग आती है कि मरना होता तो 3 साल पहले मर गए होते, मरने से क्या डरना। जो उचित लगता है वो लिख देता हूँ। नौकरी से डर तो है, लेकिन उतना नहीं क्योंकि मैंने अपने लिए समाज को खड़े होते पाया है।
रवीश कुमार को भी डर होगा। लेकिन उतना नहीं होना चाहिए जितना वो कह रहे हैं। मुझे अच्छा लगता है कि पत्रकारों या सामाजिक सरोकारों के जिन मसलों पर विरोध प्रदर्शन में मैं जाता हूँ, वो भी अक्सर कहीं कोने में आम पत्रकार की तरह खड़े मिल जाते हैं। न मैं उनको जानता हूँ न वो मुझे व्यक्तिगत जानते हैं, हालांकि एक ही मोहल्ले में रहते हैं।
उनके एक सहकर्मी ने उनके भय पर कुछ लिखा है। पठनीय है। वैसे संस्थान के अंदर और बाहर रवीश का व्यवहार अलग होना मुझे आश्चर्यजनक नहीं लगता। इस मामले में छोटा से लेकर बड़ा, हर पत्रकार स्प्लिट पर्सनालिटी माना जा सकता है। मै भी हूँ।
बकिया डरने की जरूरत बहुत ज्यादा नहीं हैं। मैं तो मानता हूँ कि मेरे मित्र, परिजन, प्रशंसक, सब वैसे ही रहेंगे, साथ रहेंगे।
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वैसे भी पत्रकारों के बारे में एक चुटकुला चलता है।
एक सम्पादक के दरवाजे पर रोज कोई टट्टी करके चला जाता था। संपादक ने देखा कि कोई नियमित रूप से टट्टी करके चला जाता है। आजिज आकर संपादक एक रोज पूरी रात निगरानी करता रहा।
उस रोज उन्होंने टट्टी करने वाले को दबोच लिया।
वह उनके मातहत काम करने वाला पत्रकार निकला। उसे संपादक जी ने कुछ रोज पहले नौकरी से निकाला था।
संपादक ने डपटते हुए पूछा कि ऐसा क्यों करते हो।
पत्रकार ने जवाब दिया - आपको दिखाना चाहता था कि आपने नौकरी से निकाल दिया, तब भी जिंदा हूँ। खाना भी खाता हूं, उसका सबूत देकर जाता हूं।
(सत्येंद्र पीएस की फेसबुकिया टिप्पणी)