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...तो कश्मीरी किस के हैं? यह कश्मीरियों को बेदखल कर कश्मीर का अपहरण है

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hastakshep
09 Sep 2019
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...तो कश्मीरी किस के हैं? यह कश्मीरियों को बेदखल कर कश्मीर का अपहरण है

यह सिर्फ संयोग ही नहीं है कि जिस रोज कश्मीर में सुरक्षा जेलबंदी (Security prison in Kashmir) या कश्मीर में लॉकडाउन ( Lockdown in Kashmir) का एक महीना पूरा हुआ, उसी रोज मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट की बैंच ने अपनी तरह के एक पहले ही निर्णय में, सीपीआई (एम) के जम्मू-कश्मीर के शीर्ष नेता, यूसुफ तारिगामी को उपचार के लिए दिल्ली में एआइएमएस में लाने का आदेश जारी किया। सी पी आइ (एम) महासचिव, सीताराम येचुरी ने अपनी पार्टी की केंद्रीय कमेटी के सदस्य और चार बार निर्वाचित विधायक, तारिगामी के लिए सुप्रीम कोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की थी।

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तारिगामी को भी जम्मू-कश्मीर के अन्य प्रमुख राजनीतिक नेताओं के साथ, इस राज्य का विशेष दर्जा खत्म किए जाने तथा राज्य को तोड़े जाने के साथ, 5 अगस्त की पूर्व-संध्या में ही गिरफ्तार कर लिया गया था, हालांकि राज्य में ऐसी ज्यादातर गिरफ्तारियों की तरह, सरकार की ओर से उनका कोई अता-पता ही नहीं दिया जा रहा था।

वास्तव में येचुरी ने, अस्वस्थ्य बताए जा रहे तारिगामी तथा पार्टी के अन्य नेताओं से मुलाकात करने के लिए, अगस्त के पहले पखवाड़े में दो बार श्रीनगर की यात्रा भी की थी, लेकिन दोनों बार उन्हें श्रीनगर हवाई अड्डे पर ही हिरासत में लेकर, दिल्ली वापस भेज दिया गया था।

इसी पृष्ठभूमि में, येचुरी की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका (Habeas corpus) पर सुनवाई के क्रम में, सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के लिए आदेश जारी किया था कि येचुरी को श्रीनगर जाकर तारिगामी से मुलाकात करने दी जाए।

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अदालत ने येचुरी को लौटकर एक एफिडेविट के जरिए अपनी यात्रा के संबंध में, जानकारी देने का भी निर्देश दिया था।

सुप्रीम कोर्ट के इसी आदेश के आधार पर, येचुरी ने अगस्त की आखिरी तारीखों में श्रीनगर जाकर तारिगामी से मुलाकात की थी।

इस मुलाकात के बाद, दिल्ली लौटकर सुप्रीम कोर्ट में दिए गए उनके एफीडेविट के आधार पर ही, सुप्रीम कोर्ट ने तारिगामी को समुचित उपचार के लिए दिल्ली में ऐम्स में शिफ्ट करने का आदेश जारी किया है। वैसे यह किस्सा यहां खत्म होने वाला नहीं है।

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येचुरी ने अपने एफीडेविट में यह भी रेखांकित किया है कि तारिगामी को बिना किसी आरोप के और यहां तक कि बिना किसी समुचित आदेश के ही, सिर्फ अधिकारियों के मौखिक आदेश पर, घर पर नजरबंद कर के रखा जा रहा था। वास्तव में उनके साथ उनके परिवार के अन्य सभी सदस्यों को भी, व्यावहारिक मानों में नजरबंदी में रखा जा रहा था।

कश्मीर पर थोपे गए दमनचक्र (Daman Chakra imposed on Kashmir) में जिस तरह से सिर्फ संविधान तथा उसके तहत दी गयी स्वतंत्रताओं को ही नहीं, सारे कायदे-कानूनों को ही उठाकर ताक पर रख दिया गया है और खुल्लमखुल्ला निरंकुश राज चलाया जा रहा है, यह सब उसी की बानगी है।

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने येचुरी की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका में उठाए गए गैर-कानूनी नजरबंदी के इन नुक्तों पर, सरकार से एक हफ्ते में जवाब मांगा है।

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सरकार के जवाब के बाद, मूल बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर सुप्रीम कोर्ट क्या फैसला करता है, इसे लेकर अनुमान लगाना तो उचित नहीं होगा, पर इस सिलसिले में एक और संयोग की भी याद दिलाना अनुपयुक्त नहीं होगा।

जम्मू-कश्मीर में पीडीपी-भाजपा सरकार गठबंधन सरकार की मुख्यमंत्री रहीं और अब जेल में बंद, महबूबा मुफ्ती की बेटी इल्तिज़ा मुफ्ती को भी सुप्रीम कोर्ट ने लॉकडाउन का एक महीना पूरा होने के दिन ही, अपनी मां से मुलाकात करने की इजाजत दी है। इससे पहले, इल्तिजा मुफ्ती ने अपने दो वाइरल हुए वीडियो संदेशों के जरिए, अन्य बातों के अलावा राजनीतिक नेताओं के साथ उनके पूरे के पूरे परिवारों को ही सरासर गैर-कानूनी तरीके से घर पर नजरबंद कर के रखे जाने का मामला उठाया था।

वैसे लॉकडॉउन के जरिए तो सारे कश्मीरियों को ही घर पर नजरबंद कर के बल्कि कहना चाहिए कि कश्मीर को ही जेल बनाकर, रख दिया गया है।

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याद रहे कि लॉकडाउन के हिस्से के तौर पर, मीडिया से लेकर तमाम संचार साधनों पर थोपी गयी पाबंदियों को चुनौती देने वाली याचिकाएं भी सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन हैं और सुप्रीम कोर्ट भी लॉकडाउन को कोई अनंतकाल तक चलते नहीं रहने दे सकता है।

बेशक, देश में बढ़ती विरोध की आवाज से बढक़र, खासतौर पर कश्मीरियों के राजनीतिक-जनतांत्रिक तथा नागरिक अधिकारों के छीने जाने के खिलाफ बढ़ते अंतर्राष्ट्रीय दबाव के चलते, मोदी सरकार को बार-बार यह भरोसा दिलाना पड़ रहा है कि पाबंदियां, कुछ ही समय के लिए हैं।

वैसे सच तो यह है कि प्रचार के अपने सारे साधनों को झोंककर मोदी सरकार पहले ही दिन से बाकी देश और दुनिया को यह समझाने की कोशिशों में लगी रही है कि कश्मीर में सब कुछ ‘सामान्य’ है। मोदी सरकार के ‘साहसिक’ फैसले का कहीं कोई खास ‘विरोध’ नहीं हो रहा है! यहां तक कि कश्मीर में महीने भर में एक भी नागरिक की मौत नहीं हुई है, आदि, आदि। लेकिन, शेष भारत के मीडिया से बढक़र, शेष दुनिया के मीडिया ने इस गोयबल्सीय प्रचार में बड़े-बड़े छेद कर दिए हैं।

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वैसे इस झूठ का सबसे बड़ा छेद तो इसका आधार ही गायब होने में है--अगर सब कुछ सामान्य है, तो एक महीने के बाद भी लॉकडाउन क्यों? (If everything is normal, why lockdown even after a month?) राजनीतिक नेताओं की छोडि़ए, कश्मीर में लॉकडाउन के चलते लोगों के बिगड़ते हालात पर सवाल उठाने वाले मीडियाकर्मियों से लेकर, डॉक्टरों तक की गिरफ्तारियां क्यों? लैंडलाइन फोन लाइनों से लेकर, स्कूलों तक पाबंदियों में ढील के दावों का जमीनी सचाइयों से कोई मेल नहीं है। उल्टे राज्यपाल से सत्यपाल मलिक से लेकर विदेश मंत्री, जयशंकर तक के बयानों से यह साफ है कि इंटरनैट-सैलफोन आदि आधुनिक संचार माध्यमों की बहाली तो, लॉकडाउन के महीने भर बाद भी मोदी सरकार के एजेंडे पर भी नहीं है।

मोदी सरकार में नंबर तीन माने जाने, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, अजीत डोवाल ने कश्मीर में लॉकडाउन का एक महीना पूरा होने के मौके पर, मीडिया से अपनी मुलाकात में न सिर्फ इन पाबंदियों के लंबे अर्से तक बने रहने की पुष्टि कर दी है बल्कि यह भी साफ कर दिया है कि खुद मौजूदा सरकार को कश्मीर में किसी भी अर्थ में सामान्य स्थिति अभी आस-पास दिखाई तक नहीं दे रही है।

डोवाल ने सुरक्षा मशीनरी के संचालकों के खास अंदाज में और वास्तव में इस भरोसे के आधार पर कि अदालतों के लिए सरकार के इस तरह के कदमों को अवैध करार देना आसान नहीं होगा, सरकार के अविचारपूर्ण तथा असंवैधानिक कदमों का अदालत की आड़ लेकर, सिर्फ इस दलील से बचाव करने की कोशिश की है कि सरकार ने जो कुछ किया है, उसमें अगर कुछ भी गलत है तो उसे अदालत में चुनौती दी जा सकती है और कुछ भी अदालत द्वारा समीक्षा के दायरे से बाहर नहीं है।

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इसके साथ ही डोवाल ने जहां एक ओर घाटी के तमाम प्रमुख राजनीतिक नेताओं को बंदी बनाए जाने को यह कहकर हल्का करने की कोशिश की है कि किसी नेता पर कोई आरोप नहीं लगाया गया है और उन्हें सिर्फ निवारक नजरबंदी में रखा जा रहा है और वह भी सिर्फ इसलिए कि उनकी जनसभाओं का शरारती तत्व गड़बड़ी फैलाने के लिए फायदा नहीं उठा सकें, वहीं उन्होंने इस संबंध में कोई मोटा अनुमान तक देने से इंकार कर दिया है कि सरकार कब तक इन नेताओं को इसी तरह से बंद रखने का इरादा रखती है। उल्टे राजनीतिक नेताओं की रिहाई से लेकर, संचार माध्यमों की बहाली तक, सामान्य स्थिति के न्यूनतम तत्वों की बहाली तक के खिलाफ डोवाल पाकिस्तान की ओर से गड़बड़ी की कोशिशों का बहाना बनाते नजर आए।

वास्तव में उन्होंने तो एक तरह से कह ही दिया है कि जब तक पाकि स्तान का रुख नहीं बदलेगा, कश्मीर में लॉकडॉउन खत्म नहीं होगा। यानी कश्मीर अभी और काफी देर तक जेल ही बना रहेगा!

याद रहे कि यह तब है जबकि मोदी सरकार की सारी कूटनीतिक भागदौड़ के बावजूद, दुनिया भर में जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक-नागरिक स्वतंत्रताओं व अधिकारों पर पाबंदियों के खिलाफ और खासतौर पर संचार के माध्यमों पर रोक तथा राजनीतिक नेताओं की गिरफ्तारियों के खिलाफ, बढ़ती हुई आवाज उठ रही है। अमरीका तक से सैलफोन-इंटरनैट आदि की पाबंदियां खत्म करने और जल्द से जल्द चुनाव पर आधारित व्यवस्था बहाल करने की ठोस मांग आयी है।

जाहिर है कि तथाकथित निर्वाचित पंचायती प्रतिनिधियों को आगे कर के, राजनीतिक पार्टियों के दमन की ओर से ध्यान हटाने की मोदी सरकार की तिकड़म, खास कारगर साबित नहीं हो रही है।

वैसे सीमित तथा नियंत्रित लैंडलाइन सेवा को छोड़ दिया जाए तो, सुरक्षा बलों द्वारा नियंत्रित सीमित आवाजाही और रोजी-रोटी कमाने की सीमित गुंजाइश बनाने तक की मोदी सरकार को खास जल्दी नहीं है, जो कश्मीर को एक वास्तविक मानवतावादी संकट की ओर धकेल रहा है।

लॉकडाउन के इस एक महीने में बाकी सब के अलावा पर्यटन समेत तमाम कारोबार और रोजगार पूरी तरह से ठप्प ही रहे हैं। खासतौर पर मेहनत-मजदूरी करने वाले लाखों गरीबों के लिए इसका सीधा सा अर्थ है--भूखों मरने की नौबत। यह संकट इसलिए और भी बढ़ गया है कि लॉकडाउन के चलते, राशन आदि की आपूर्ति, वितरण, लोगों के लिए खरीदने का मौका, सभी कुछ बंद है। इसके ऊपर से इलाज-उपचार के लिए लोगों के लिए अस्पताल तक पहुंचना ही मुश्किल है। उसके अलावा अस्पतालों में दवाओं से लेकर उपचार की अन्य सुविधाओं तक की भारी तंगी पैदा हो गयी है।

Rajendra Sharma राजेंद्र शर्मा। लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं। Rajendra Sharma राजेंद्र शर्मा। लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं।

एक जानकारी के अनुसार, प्रधानमंत्री आयुष्मान भारत स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत उपचार कराने वालों का आंकड़ा गिरकर शून्य पर आ गया है। कुछ खबरों के अनुसार, इंटरनैट आदि के अभाव में इस योजना को स्थगित ही करना पड़ गया है। और यह सब सत्ताधारी संघ परिवार की गतिविधियों के अलावा, बाकी तमाम राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियां बंद किए जाने और विरोध की हर आवाज को, सूचना ब्लैकआउट की ओट में बर्बर दमन से कुचले जाने के ऊपर से है।

कश्मीर में मोदी सरकार 2019 में जो कुछ कर रही है, उसके आगे इंदिरा गांधी की इमर्जेंसी तो बच्चों का खेल नजर आती है। अगर यही कश्मीर का भारत के साथ पूर्ण-एकीकरण है, तो यह सिर्फ जमीन के एक टुकड़े का बंदूक के बल पर भारत के साथ जोड़ा जाना है। यह कश्मीरियों को बेदखल कर के कश्मीर का अपहरण है। अलवर में कश्मीरी छात्र पर हुए हमले ने इसे और गाढ़े रंग से रेखांकित कर दिया है कि संघ परिवार द्वारा देश पर थोपे गए इस आख्यान में कश्मीर हमारा है जरूर है, पर कश्मीरियों समेत नहीं, कश्मीरियों के बिना। पर कश्मीर अगर भारत का है, तो कश्मीरी किस के हैं? कश्मीरी अगर पराए हैं, तो कश्मीर हमारा कैसे हो सकता है?

0 राजेंद्र शर्मा

 

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