मोदी-शाह ब्रांड की काट सभी पीड़ितों को एक करने में है
युवा, किसान, मजदूर, दलित, आदिवासी, महिलाओं किसी के लिए मोदी-शाह के पास ना तो कोई एजेंडा था और ना है. सिर्फ विवादित मुद्दों के दम पर राजनीति हो रही है. 2019 के लोकसभा चुनाव (2019 Lok Sabha Elections) के बाद इसमें और तेजी आई है. तीन तलाक (Tripple Talaq) और अब धारा 370 (Article 370) हटाने के बाद मीडिया ने ऐसा माहौल बना दिया है, जैसे इस फैसले से देश में क्रांतिकारी परिवर्तन आ जाएगा.
भाजपा एवं संघ के इस प्रोपेगंडा (Propaganda of BJP and Sangh) में मुख्यधारा का मीडिया बड़ी भूमिका निभा रहा है. उसने सारे देश में एक भ्रम खड़ा कर दिया है कि मोदी-शाह की जुगलबंदी अपने सारे निर्णय देश बहुसंख्यकों के हित में ले रहे हैं. और इससे कुछ लोगों को भले ही नुकसान हो रहा है तो हो, मगर इससे देश का फायदा है. मगर है इसका उलट स्थिति.
गौ-रक्षा से लेकर धारा 370 जैसे सारे मुद्दे ना सिर्फ बहुसख्यंक जनता के मुद्दे के दबाने की रणनीति है, बल्कि इसका असर भी सिर्फ मुस्लिम अल्पसंख्यक तक सीमित नहीं है. इसका विपरीत असर दलित, आदिवासी, महिला, किसान, युवा सब पर होता है.
मोदी-शाह की इस राजनीति का मुकाबला (Compete with Modi-Shah politics) करने की बजाए सारी क्षेत्रीय पार्टी, जो अपनी अलग राजनीतिक लाइन के चलते अस्तित्व में आई थीं, मोदी-शाह ब्रांड की राजनीति में डूब गई हैं. और कांग्रेस के नेता भी या तो एक-एक कर भाजपा में जा रहे हैं, या उसकी भाषा बोलने लगे हैं. ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे नेता भी इसका शिकार हो गए.
यह नेता भूल गए कि मोदी-शाह की जीत का रहस्य बहुसंख्यक के एक होने में नहीं बल्कि उनकी उग्र राजनीति का शिकार हुए वर्गों को एक साथ नहीं आने देने में है. आइए इसे समझते हैं.
असल में, जब कोई भी देश आर्थिक संकट के दौर में होता है, तो जैसे-जैसे यह संकट गहराता है नागरिकों में आपसी क्लेश बढ़ता है. वो जरा-जरा सी बात में हिंसक हो जाता है. यह समय दक्षिणपंथी, वाकपटु, बड़बोले, मर्दाना, राष्ट्रवाद का दम भरने वाले कट्टरपंथी सोच के नेता के उभार के लिए सही समय होता है. वो नेता इस संकट को हल करने की बजाए राष्ट्रवाद के नाम पर एक धर्म या नस्ल को दूसरे से वरीयता देता है, लोगों में आपसी डर और वैमनस्य पैदा करता है. वो एक वर्ग को यह बताता है कि उसका हक़ दूसरा वर्ग मार रहा है.
जर्मनी में हिटलर के उभार के लम्बे समय के बाद एक बार फिर पूरी दुनिया में इसका उभार देखा जा सकता है.
2019 लोकसभा चुनाव के परिणाम भारत में भी इस उग्र दक्षिणपंथी सोच के चरम की ओर इशारा कर रहे हैं.
एक तरह से 2019 के लोकसभा चुनाव के परिणाम एक पहले से लिखी गई पटकथा को यथार्थ बनाने का काम था. (नयनतारा सहगल ने इंडियन एक्सप्रेस में इसके बारे में विस्तार से लिखा है). https://indianexpress.com/article/opinion/columns/2019-election-outcome-once-upon-a-time-a-nation-5787244/
इस सोच के सामने विपक्ष का टिकना इतना असान नहीं है. क्योंकि, ऐसे दौर में तर्क और मुद्दे की बात करने वाला नेता, पार्टी और मीडिया सभी देशद्रोही करार दे दिए जाते हैं. उनकी वो लोग भी नहीं सुनते हैं जो इस चाल का शिकार होते हैं.
Hindutva victims are only Muslims, this is a wrong concept.
हिन्दुत्व का शिकार सिर्फ मुस्लिम होते हैं, यह गलत अवधारणा है. हिंदुत्व की धारणा मनुस्मृति से निकलती है, ना कि ‘जय श्रीराम’ के नारे से. संघ और भाजपा नेतृत्व का मनु स्मृती में पूर्ण विश्वास है. यह वर्ण व्यवस्था की बात करती है. यह सोच मोदी जैसे पिछड़े को प्रधानमंत्री बनाने भर से नहीं बदलती.
अगर हम लोकसभा चुनाव के पहले, 2014 से 2019 के बीच, और आजतक हो रही घटनाओं को देंखे तो समझ आएगा कि भले ही दलितों, आदिवासी पर हमले के मामलों में ‘जय श्रीराम’ का नारा ना हो, लेकिन वो लगातार हिंदुत्व की सोच से उपजी हिंसा का शिकार हो रहे हैं; उनपर हमले बढे हैं. रोहित वेमुला की मौत से इसकी शुरुआत हुई थी.
गुजरात से लेकर उत्तर प्रदेश तक सारे ‘काऊ बेल्ट’ में दलितों को बांधकर मारना आम हो गया है. फर्स्ट पोस्ट में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार 2003 से 18 की बीच गुजरात में दलितों एवं आदिवासियों के खिलाफ अत्याचार के मामले में 70% का इजाफा हुआ है. और 2014-16 के बीच 5% मामलों में ही सजा हुई है. https://www.firstpost.com/india/atrocities-on-dalits-and-tribals-up-by-70-in-gujarat-between-2003-and-2018-conviction-rate-below-5-in-modis-first-3-yrs-as-pm-6551441.html.
यह स्थिति सारे देश में है. अनेक राज्यों में तो उन्हें घोड़ी पर बैठने से लेकर बाजू में बैठकर खाने-खाने पर मारा जा रहा है. बीफ बैन को भी सिर्फ मुस्लिम से जोड़कर देखा गया, जबकि काऊ बैल्ट के अनेक राज्यों और खासकर महाराष्ट्र में तो दलित भी बढ़ी मात्रा में इसका सेवन करते थे.
जहाँ आवारा पशुओं से हिन्दू-मुस्लिम सभी किसान त्रस्त हैं, वहीं दूध का धंधा करने वाले भी संकट में हैं. देश का ऐसा कोई शहर नहीं है, जहाँ आवारा पशुओं के कारण ट्रैफिक की परेशानी ना हो और इससे हुई दुर्घटना में किसी की मौत ना हुई हो.
इतना ही नहीं, एक तरफ दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को दिए जाने वाले आरक्षण को खत्म करने का नारा संघ से उठा. लेकिन वहीं सवर्ण को 10% आरक्षण दे दिया गया. इस तरह मोदी-शाह ने आरक्षण के सारे मायने बदल दिए.
यह सब यही नहीं रुकता है. जब समाज में किसी भी तरह की कट्टरवादी सोच लोगों के बीच पसरती है, तो फिर सही गलत का भेद मिट जाता है. जो आपको गलत लगे, या आपकी पसंद का ना हो, उसे सबक सिखा देने या मिटा देने की छूट सी हो जाती है. कट्टरपन से समाज में रुढ़िवादिता पनपती है. इसका शिकार अक्सर समाज के कमजोर वर्ग होते हैं, जिसमें छोटी मानी जाने वाली जातियां विशेष हैं. इसके चलते महिलाओं के खिलाफ भी हिंसा के मामले बढ़ते हैं.
वेलेंटाईन डे की खिलाफत से लेकर, लैला-मजनू स्क्वाड जैसे अनेक मामले हम देख चुके हैं. हाल ही में शिव सेना ने मुंबई में ब्रा और पेंटी की दुकानों के बहार रखे मेनेकिन को अश्लील बताकर तोड़ डाला. यह सोच युवा लोगों की आधुनिक सोच के खिलाफ भी खडी होती है, बल्कि यह कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी कि यह युवाओं में कट्टर सोच को जन्म देती है.
जिस तरह से कुछ वर्ग विशेष के खिलाफ खुले-आम हिंसा का उपयोग हो रहा है, इससे समाज में एक तरह से अपने विरोधी के खिलाफ हिंसा को मान्यता मिल रही है. इतना ही नहीं, कला एवं आप फिल्मों के निर्माण में भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर इसका असर पड़ा है. पद्मावत को लेकर जिस तरह से सेट पर हिंसा हुई और सरेआम सड़कों पर धमकी दी गई; उग्र प्रदर्शन हुए, वो कलाजगत को एक सन्देश था.
लेकिन इस सोच की चुनावी सफलता के लिए यह जरूरी था कि दक्षिण पंथी सोच के शिकार लोगों को एक नहीं होने दिया जाए. और, यही काम मोदी-शाह ने बखूबी किया. उन्होंने “काऊ बेल्ट” में जितने भी अल्पसंख्यक हिंदुत्व का शिकार थे – जैसे खासकर दलित, आदिवासी, मुस्लिम को एक साथ नहीं होने दिया.
उनकी यह रणनीति इस हद तक सफल रही कि भाजपा ने दलितों के लिए आरक्षित 84 में से 47 सीटों पर विजय प्राप्त की एवं आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित 47 में से 32 सीटों पर. यानी इस वर्ग के लिए आरक्षित लगभग दो तिहाई सीटों पर भाजपा ने विजय हासिल की.
इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश में पिछड़ों, मुस्लिम एवं दलित के नाम पर बने महागठबंधन में पिछड़ों-पिछड़ों एवं दलित-दलित में भेदकर उसे असफल कर दिया. “जय श्रीराम” के नारे के सहारे बंगाल में फिर एक बार मुस्लिम और दबी हुई जाति के तृणमूल के गठबंधन में सेंध लगा दी.
कट्टरता चाहे मुस्लिम धर्म में हो या हिन्दू धर्म वो हमेशा कमजोर वर्ग को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचती है. यह गरीबों को एक नहीं होने देती है. अंग्रेजों ने इस कट्टरता को हवा देकर “फूट डालो और राज करो” की नीति ईजाद की. आजादी की लड़ाई में गांधी जैसे नेताओं ने इसे तोड़ा; आजादी के बाद कट्टरवादी सोच ने उन्हें मुस्लिम और पाकिस्तानी परस्त करार देकर मार डाला. भारत-पाकिस्तान विभाजन में लाखों लोग कत्ल कर दिए गए.
इस सोच को पीछे छोड़कर आगे विकास का राह पर बढ़ने और भारत देश को एक शक्ल देने में नेहरु, आम्बेडकर और उस समय के सभी नेताओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. आज यह सोच एक बार फिर यह कट्टर सोच अपना सर उठा रही है.
इस बार यह और खतरनाक है, क्योंकि इसके पास अपना प्रोपेगंडा करने के लिए एक बड़ी आर्थिक ताकत है. साथ में मीडिया है और कर्मठ कार्यकर्ताओं की एक बड़ी फ़ौज.
अगर विपक्ष और इस कट्टर सोच का विरोध करने वाले लोगों को सफलता पानी है, तो उन्हें इसे सिर्फ हिन्दू-बनाम मुस्लिम की सोच तक सीमित ना कर मोदी-शाह ब्रांड की राजनीति से पीड़ित सभी वर्गों को साथ लाना होगा. लोगों को यह समझना होगा कि असल राष्ट्रवाद क्या है. और यह काम ट्विटर पर नहीं हो सकता. लोगों के बीच जाना होगा. मजदूर, किसान, दलित, आदिवासी, खासकर युवाओं को, एक जुट करना होगा. उन्हें उग्र नीति के खतरे समझाना होगा. और सबसे बड़ी बात मीडिया के प्रोपेगंडा में बहे बिना अपनी सोच पर डटकर खड़े रहें.
अनुराग मोदी
जाने-माने सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता Anurag Modi अनुराग मोदी समाजवादी जन परिषद् के राष्ट्रीय कार्यकारणी सदस्य हैं।