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मोदीजी कॉमनसेंस और भीड़ संस्कृति : वे पहले भी बुद्धिजीवी नहीं थे

अडवाणी हों या मोदी : क्या फर्क पड़ता है?

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मोदीजी का व्यक्तित्व तो संघ में जैसा था वैसा ही आज भी है। वे पहले भी बुद्धिजीवी नहीं थे, बुद्धिजीवियों का सम्मान नहीं करते थे, औसत कार्यकर्ता के ढंग से चीजें देखते थे, हिंदू राष्ट्रवाद में आस्था थी, विपक्ष को भुनगा समझते थे, हाशिए के लोगों के प्रति उनके मन में कभी सहानुभूति नहीं थी, सेठों-साहूकारों के प्रति सहानुभूति रखते थे, साथ ही उनके वैभव को देखकर ईर्ष्या भाव में जीते थे। ये सारी चीजें उनके व्यक्तित्व में आज भी हैं बल्कि पीएम बनने के बाद ये चीजें ज्यादा मुखर हुई हैं। लेकिन एक बड़ा परिवर्तन हुआ है, जब तक वे पीएम नहीं बने थे, मध्यवर्ग का बड़ा तबका उनसे दूर था, बुद्धिजीवी उनके विचारों के प्रभाव के बाहर थे, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव के प्रचार ने उनके व्यक्तित्व और नजरिए की उपरोक्त खूबियों के प्रभाव में उन तमाम लोगों को लाकर खड़ा कर दिया जो पीएम होने पहले तक उनसे अप्रभावित थे।

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मोदीजी भारत नई दिल्ली से अहमदाबाद तक सीमित नहीं, सामने लाओ ट्रंप से 35 मिनट की बातचीत

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मसलन्, विश्वविद्यालयों -कॉलेजों के शिक्षक और बुद्धिजीवी उनसे कल तक अप्रभावित थे, लेकिन आज उनसे गहरे प्रभावित हैं। आप दिल्ली के दो बड़े विश्वविद्यालयों जेएनयू और डीयू में इस असर को साफतौर पर देख सकते हैं। यही दशा देश के अन्य विश्वविद्यालयों की है।

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सवाल यह है एक औसत किस्म के बौद्धिकता विरोधी नेता से बुद्धिजीवी समुदाय क्यों प्रभावित हो गया, इनको बुद्धिजीवी की बजाय भक्तबुद्धिजीवी कहना समीचीन होगा।

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वे कौन से कारण हैं जिनके कारण पीएम मोदी का यह वर्ग अंधभक्त बन गया।

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यह अंधभक्ति ज्ञान-विवेक के आधार पर नहीं जन्मी है, क्योंकि इससे तो मोदीजी के व्यक्ति्व का तीन-तेरह का संबंध है

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मोदीजी के सत्ता में आने के बाद असंवैधानिक सत्ताकेन्द्रों का नैटवर्क पैदा हुआ

मोदीजी का तर्क है कि देखो जनता क्या कह रही है, मीडिया क्या कह रहा है और मैं क्या कह रहा हूँ, हम तीनों मिलकर जो कह रहे हैं, वही सत्य है। यह मानसिकता और विचारधारा मूलतःअंधविश्वास की है। अंधविश्वासी इसी तरह के तर्क देते रहे हैं।

जरा इतिहास उठाकर देखें, सत्य कहां होता है, सत्य क्या भीड़ में, नेता में या मीडिया में होता है या इनके बाहर होता है ?

वास्तविकता यह है सत्य इन तीनों के बाहर होता है, सत्य वह नहीं है जो झुंड बोल रहा है, सत्य वह भी नहीं है तो नेता बोल रहा है या मीडिया बोल रहा है, सत्य वह है जो इन तीनों के बाहर हमारी आंखों से, हमारे विवेक से ओझल है।

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जरा उपरोक्त तर्कों के आधार पर परंपरा में जाकर देखें, मसलन्, राजा राममोहन राय के सतीप्रथा के विरोध को देखें, जिस समय उन्होंने सतीप्रथा का विरोध किया, बंगाल में अधिकांश लोग सतीप्रथा समर्थक थे, अधिकांश मीडिया भी सती प्रथा समर्थकों के साथ था, अधिकांश शिक्षितलोग भी उनके ही साथ थे। लेकिन सत्य राजा राममोहन राय के पास था, उनकी नजरों से देखने पर अंग्रेजों को भी वह सत्य नजर आया वरना वे भी सती प्रथा को बंद करना नहीं चाहते थे।

कहने का आशय यह है सत्य वह नहीं होता जो भीड़ कह रही है। कल्पना करो आर्यभट्ट ने सबसे पहले जब यह कहा कि पृथ्वी घूमती है और सूर्य की परिक्रमा लगाती है तो उस समय लोग क्या मानते थे, उस समय सभी लोग यही मानते सूर्य परिक्रमा करता है, सभी ज्योतिषी यही मानते थे, उन दिनों राजज्योतिषी थे वराहमिहिर उन्होंने आर्यभट की इस धारणा से कुपित होकर आर्यभट को कहीं नौकरी ही नहीं मिलने दी, तरह-तरह से परेशान किया। लेकिन आर्यभट ने सत्य बोलना बंद नहीं किया, आज आर्यभट्ट सही हैं, सारी दुनिया इस बात को मानने को मजबूर है। जान लें आज भी जो ज्योतिष पढ़ाई जाती है उसमें आर्यभट्ट हाशिए पर हैं, वे न्यूनतम पढ़ाए जाते हैं लेकिन सत्य उनके ही पास था।

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कहने का आशय यह कि हमें भीड़, नेता के कथन और मीडिया की राय से बाहर निकलकर सत्य जानने की कोशिश करनी चाहिए। सत्य आमतौर पर हमारी आंखों से ओझल होता है उसे परिश्रमपूर्वक हासिल करना होता है, उसके लिए कष्ट भी उठाना पड़ता है। बिना कष्ट उठाए सत्य नहीं दिखता। सत्य को कॉमनसेंस के साथ गड्डमड्ड नहीं करना चाहिए।

मोदीजी, उनका भोंपू मीडिया और उनके भक्त हम सबके बीच में कॉमनसेंस की बातों का अहर्निश प्रचार कर रहे हैं।

अब पूरा देश गोडसे के राममंदिर में तब्दील है, यही आज का सबसे भयंकर सच है

कॉमनसेंस को सत्य मानने की भूल नहीं करनी चाहिए। सत्य तो हमेशा कॉमनसेंस के बाहर होता है। जीएसटी का सत्य वह नहीं है जो बताया जा रहा है सत्य वह है जो आने वाला है, अदृश्य है । भीड़चेतना सत्य नहीं है

मोदीजी की विशेषता यह नहीं है कि वे पीएम हैं, वे पूंजीपतिवर्ग से जुड़े हैं, उनकी विशेषता यह है कि उनके जैसा अनपढ़ और संस्कृतिविहीन व्यक्ति अब बुर्जुआजी की पहचान है।

बुर्जुआ संस्कृति-राजनीति के आईने के रूप में जिन नेताओं को जानते थे, जिनसे बुर्जुआ गौरवान्वित महसूस करता था वे थे गांधी, आम्बेडकर, नेहरू-पटेल-श्यामाप्रसाद मुखर्जी आदि। वे बुर्जुआजी के बेहतरीन आदर्श थे, उनकी तुलना में मोदीजी कहीं नहीं ठहरते।

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मोदी की विशेषता है उसने बुर्जुआजी को सबसे गंदा, पतनशील संस्कृति का प्रतिनिधि दिया।

आज का बुर्जुआ नेहरू को नहीं मोदी को अपना प्रतिनिधि मानने को अभिशप्त है। यही मोदी की सबसे बड़ी उपलब्धि है। बुर्जुआ राजनीति का सबसे निकृष्टतम अंश है जिसकी नुमाइंदगी मोदीजी करते हैं, आज बुर्जुआ मजबूर है निकृष्टतम को अपना मुखौटा मानने के लिए, अपना प्रतिनिधि मानने के लिए। इस अर्थ में मोदीजी ने बुर्जुआ के स्वस्थ मूल्यों की पक्षधरता की सारी कलई खोलकर रख दी है।

आज का बुर्जुआ, मोदी के बिना अपने भविष्य की कल्पना नहीं कर सकता। मोदी मानी संस्कृतिहीन नेता। यही वह बिंदु है जहां से मोदी की सफलता बुर्जुआवर्ग के सिर पर चढ़कर बोल रही है। मोदी जी का नजरिया बुर्जुआजी के ह्रासशील चरित्र की अभिव्यंजना है।

एक अन्य पहलू है वह है मोदीजी का पूरी तरह जनविरोधी, मजदूरवर्ग और किसानवर्ग विरोधी चरित्र। उनके इस चरित्र के कारण नए भक्त बुद्धिजीवियों को मोदी बहुत ही अपील करते हैं।

नया भक्त बुद्धिजीवी और नया मध्यवर्ग स्वभावतः मजदूर-किसान विरोधी है।

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नए भक्तबुद्धिजीवी का देश की अर्थव्यवस्था और वास्तव सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाओं से कोई लेना-देना नहीं है। यहां तक कि वे जिन वर्गों से आए हैं उन वर्गों के हितों की भी रक्षा नहीं करते। वे तो सिर्फ मोदी भक्ति में मगन हैं। यह मोदी की सबसे बड़ी उपलब्धि है।

जगदीश्वर चतुर्वेदी

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