नेहरु जमाने का पटाक्षेप, लेकिन इसकी कीमत क्या, इसे भी बूझ लीजिये, बंधु! दरअसल दो दलीय वेस्टमिन्स्टर शैली (Two-party westminster style) की लोकतांत्रिक वर्चस्ववादी (Democratic supremacist) इस राज्यतंत्र (Monarchy) में संघ परिवार (RSS) का जैसे कभी अंत हुआ नहीं है, वैसे ही कांग्रेस का अंत भी असंभव है (The end of Congress is also impossible)। नेहरु गांधी वंश (Nehru Gandhi dynasty) अश्वत्थामा की तरह अमर है तो संघ परिवार उसी का प्रतिरूप है। भारतीय लोकतंत्र (Indian democracy) में इन दो विकल्पों के अलावा किसी तीसरे विकल्प को चुनने का कोई रास्ता अभी तक नहीं खुला है क्योंकि तीसरे विकल्प का दावा जो लोग करते हैं वे इन्हीं दो समूहों में समाहित हो जाने को अभिशप्त हैं। जैसे अटल शौरी आडवानी जमाने को खारिज करके मनमोहिनी प्रधानमंत्रित्व के माध्यमे आर्थिक सुधारों के अमेरिकी एजेंडे को परवान चढ़ाया जाता रहा है, वैसे ही मुक्त बाजार ने दूसरे चरण के जनसंहारी आर्थिक सुधारों के लिए नमो सुनामी की रचना कर दी।
याद करें कि वाम सहयोगे भाजपा ने भारत अमेरिका परमाणु संधि (India-US nuclear deal) को खारिज करने के लिए संसद में क्या हंगामा नहीं किया था, जिसकी नींव लेकिन अटल ने डाली थी। संसद के उस लाइव प्रसारण और देशभक्ति के उन महानतम उद्गारों को याद कीजिये। अब संघ परिवार के कार्यकर्ता बतौर प्रधान सेवक उसी भारत अमेरिकी परमाणु संधि को लागू करने की कवायद में हर अमेरिकी शर्त पूरी कर रहे हैं। एफडीआई, विनिवेश, निजीकरण, निर्माण-विनिर्माण, सेज-महासेज, स्मार्ट सिटी, औद्योगिक गलियारा, निरंकुश बेदखली और अबाध विदेशी पूंजी के साथ सरकार और सरकारी हर चीज के साथ संविधान और लोकतंत्र का सफाया हो रहा है तो नागरिक मानवाधिकारों की क्या बिसात।
अब दूसरे चरण के बाद गणितीय हिसाब ऐसे तीसरा चरण भी आयेगा। वैसे ही जैसे कंप्यूटर के बाद रोबोट चला आया। विकेंद्रीकरण के बाद केंद्रीकरण का महाविस्फोट हो गया।
तीसरे चरण के एजंडे को लागू करने में राजनीतिक वैचारिक बाध्यताओं से अगर फिर नीतिगत विकलांगकता का पुनरूत्थान हुआ, तो वैश्विक जायनी व्यवस्था मोदी को बख्शेगी नहीं तो फिर वही कांग्रेस ही विकल्प। वृत्त फिर घूमे जायेगा।
दरअसल यह नेहरू गांधी वंश का पटाक्षेप है नहीं, यह भारतीय इतिहास का महाप्रस्थान है। सशरीरे स्वार्गारोहण अभियान है यह। जिसे हम मुक्त बाजार का भारतीय जनगण और भारतीय लोकगणराज्य, भारतीय संविधान और भारत की संप्रभुता के विरुद्ध, प्रकृति और पर्यावरण के विरुद्ध परमाणु विस्फोट कहें तो कयामत का सही मंजर नजर आयेगा, जिसकी झांकियां हम पंजाब, यूपी, भोपाल, गुजरात, असम, मध्य भारत और बाकी देश में खंड-खंड विस्फोट मध्ये पिछले तेईस सालों से देखते-देखते अभ्यस्त हो गये हैं और किसी को न आंच का अहसास है और न किसी को तपिश महसूस होती है।
मुक्त बाजार ने रक्तरंजित यूरोप, तेल युद्ध में झुलस रहे मध्य पूर्व और भारतीय महादेश का साझा भूगोल बना दिया है और इसी भूगोल के मध्य खड़े हमारी इतिहास दृष्टि सिरे से विस्मृति विपर्यय है।आज के अखबारों में नेहरु जमाने के पटाक्षेप का कार्निवाल सजा है। टीवी पर तो यह सिलसिला मोदी के प्रधानमंत्रित्व की संघी उम्मीदवारी तय होते ही शुरु हो गया था। नेपाल में राजतंत्र की वापसी की कवायद में लगे तमाम तत्व तभी से बाग-बाग हैं। यह कार्निवाल और जश्न कोई मौलिक भी नहीं है।
आपातकाल उपरान्ते मध्यावधि चुनाव में इंदिरा गांधी की भारी शिकस्त के दिनों को याद करें या फिर नवउदारवाद के शुरुआती दौर में नरसिंह राव के शासनकाल को याद करें, तो बारबार हो रही पुनरावृत्तियों की ओर शायद ध्यान जाये।
बहरहाल नेहरु गांधी वंश के बदले मुखर्जी गोलवरकर वंशजों की जयजयकारमध्ये सच यह है कि शायद अंतिम तौर पर गुजराती पीपीपी माडल ने सोवियत नेहरु विकास के माडल का निर्णायक खात्मा कर दिया है। इसी परम उपलब्धि की वजह से मीडिया के अंदर महल में भी अश्वमेध अश्वों की टापें प्रलयंकर हैं। नौसीखिये पत्रकार बिरादरी केसरिया हुई जाये तो बाकी समाज अपनी पुरानी सारी विरासत तिलांजलि देने के मूड में है।
इसी के मध्य हैरतअंगेज ढंग से जनसत्ता में जो प्रभू जोशी जैसे लोग लिखने लगे हैं या मुक्तिबोध की विरासत पर चर्चा होने लगी है, वह राहत की बात है। हिंदी समाज इस वक्त के जनसत्ता के संपादकीय पेज को पढ़ने की तकलीफ करें तो सूचनाओं के महातिलिस्म से बाहर निकलने का रास्ता भी निकल सकता है।
हमने आज सुबह पहला काम यह किया कि समयांतर में छपे आनंद तेलतुम्बड़े का मोदी का नवउदारवाद वाला आलेख अपने ब्लागों में लगाने के बाद फेसबुक दीवालों पर भी उसे टांग दिया। इससे पहले कि मेल खुलने पर पंकजदा के सौजन्य से यह लेख मिलता, आज ही के जनसत्ता रविवारी में छपे मुख्य आलेख प्याली से थाली तक जहर के लेखक अभिषेक का अता पता खोजने के लिए अपने अभिषेक को फोन लगाया। एक कवि भी अभिरंजन हैं। गाजीपुर के रास्ते अभिषेक मिला तो ट्रेन में उनके साथ अपने महागुरु आनंद स्वरुप वर्मा भी थे। उनसे अरसा बाद बातें हुई और मैंने कह ही दिया कि सबकी उम्र हो रही है, कब कौन लुढ़क जाये, इससे पहले दिल्ली आकर एक और मुलाकात की मोहलत चाहिए। आनंदजी भी बोले कि गिर्दा के अवसान के बाद नैनीताल जाना नहीं हुआ। मैं एक बार गया था और हीरा भाभी से मिलकर भी आया। लेकिन सच तो यह है कि अब गिर्दा के बिना नैनीताल नैनीताल नहीं लगता। शेखर और उमाभाभी इन दिनों मुक्त विहंग हैं, जिनसे नैनीताल में मुलाकात की उम्मीद न रखिये। तो राजीव लोचन शाह भी अब शायद ज्यादातर वक्त हल्दानी में बिताते हैं। हरुआ भी वहीं बस गया है। बाकी पवन राकेश और जहूर से मिलने के लिए फिर भी नैनीताल जाने की तलब लगी रहती है, लेकिन गिर्दा बिना नैनीताल सचमुच सूना सूना है।
ये निजी बातें इसलिए कि जिस पहाड़ की अभिव्यक्ति गिर्दा के हुड़के के बोल से मुखर हुआ करती थी, वहां अब मुक्तिबोध, प्रेमचंद और बाबा नागार्जुन के नामोल्लेख से बमकने लगे हैं लोग। गिर्दा की यादें सिर्फ मित्रमंडली की तसल्ली में तब्दील है, पहाड़ की चेतना पर उसका कोई चिन्ह नहीं बचा है। बाकी देश में भी वही हादसा है।
बांग्ला अखबारों में तो नेहरु गांधी वंश के अंत का आख्यान भरा पड़ा है। बंगाली होने की वजह से, खास तौर पर पूर्वी बंगाल से विस्थापित शरणार्थी परिवार की संतान होने की वजह से इस घृणा का वारिस मैं भी हूं। नेताजी के भारतीय राजनीति में हाशिये पर चले जाने से लेकर उनके मृत्यु रहस्य के बवंडर की वजह से बंगीय मानस राजनीति भले कांग्रेस की करें, लेकिन नेहरु गांधी वंश से अंतरंग हो ही नहीं सकता। फिर विभाजन का ठीकरा भी तो वही नेहरु-गांधी-जिन्ना पर फोड़ा गया है।
भारत विभाजन में मुस्लिम लीग के दो राष्ट्र सिद्धांत को भारत में धर्मांध राष्ट्रीयता का आलोक स्तंभ बना दिया गया है और पाकिस्तान को इस राष्ट्रीयता का मुख्य शत्रु। इस्लामी चूंकि शत्रुदेश है, इसलिए इस्लाम भी शत्रुओं का धर्म है और चूंकि भारत विभाजन में मुख्य भूमिका जिन्ना और मुस्लिम लीग की है, तो सारे मुसलमान पाकिस्तानी हैं। इसी दलील पर हिंदुस्तान में सारे विधर्मियों के हिंदू बनाये जाने का अभियान है। इतिहास विरोधी यह मिथ भारत विभाजन में हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उनसे नेहरु गांधी वंश वंशजों के अविरल संपर्क सूत्र की नजरअंदजी के तहत गढ़ा गया है।
दरअसल दो राष्ट्र सिद्धांत की रचनाप्रक्रिया में संघ की भूमिका, औपनिवेशिक काल में संघी सक्रियता और भारत विभाजन में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और हिंदू महासभा की खास भूमिका पर शोध धर्मनिरपेक्ष इतिहासकारों ने भी नहीं किया है। धर्मनिरपेक्ष वर्णवर्चस्वी नस्ली पाखंड का यह चरमोत्कर्ष है।
कल ही पंकजदा से मैंने कहा भी कि समझ लीजिये कि वाम कैडर और जनाधार पूरी तरह संघी कैडर और संघी जनाधार में अनूदित है, इतनी भयावह स्थिति है। वाम ने भी बंगाली राष्ट्रीयता की घृणा पूंजी अस्मिता के तहत राष्ट्रीय राजनीति करने की हिमालयी भूल धर्मोन्मादी तौर तरीके से की, जिसके नतीजतन बंगाल की भूमि सुधार आंदोलन की विरासत सिरे से गायब हो गयी है।अ
ब यह समझना जरूरी है कि भारत जो आज अमेरिकी उपनिवेश है, उसमें गैर कांग्रेसवाद की क्या भूमिका है। गैर कांग्रेसवाद (Non–Congressism) के समाजवादियों और वामदलों ने जो संघ परिवार के साथ आपातकालउपरांते चोली दामन का साथ बनाया, जो वीपी के मंडल के जवाब में केसरिया कमंडल मध्ये हिंदुत्व के पुनरूत्थान, सिखों का संहार और बाबरी विध्वंस के बाद गुजरात नरसंहार तक राजकाज और संसदीय सहमति के मध्य राजनैतिक समीकरणों के समांतर जारी रहा लगातार, उसी से मोदी का यह केसरिया नवउदारवादी कारपोरेट युद्द घोषणा है आम जनता के खिलाफ। अंबेडकरवादी तो इस अवसरवादी सत्ताखिचड़ी में दाल चावल आलू कुछ भी बनकर अंबेडकर की ही हत्या के दोषी हैं। मोदी के प्रधानमंत्रित्व के साथ ही मनमोहनी अधूरे दूसरे चरण के आर्थिक सुधारों के एजंडे को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जा रही है जो दरअसल अमेरिकी हितों को ही सर्वोच्च प्राथमिकता है। परमाणु संधि लागू करने से पहले प्रतिरक्षा, बीमा, मीडिया, खुदरा कारोबार समेत तमाम क्षेत्रों में एफडीआई अमेरिकी युद्धक अर्थव्यवस्था की जमानत की सबसे बड़ी शर्ते हैं। तो आतंक के विरुद्ध जो अमेरिका का युद्ध है, मध्यपूर्व में तेल युद्ध जो अनंत है और गाजापट्टी में इस्लाम के खिलाफ जो धर्मयुद्ध है, उसमें साझेदार केसरिया सत्ता की भूमिका की जाच करें तो कश्मीर, पंजाब, यूपी या असम में बदलते मंजर का रहस्य समझ में आयेगा और इसका बंग कनेक्शन भी खुलता जायेगा।
इस पूरे जनविरोधी तंत्र मंत्र यंत्र को समझने के लिए जो इतिहास बोध, वैज्ञानिक दृष्टि, विवेक, साहस, आर्थिक समझ, लोक विरासत, सांस्कृतिक जमीन और साहित्यिक मानवता की आवश्यकता है, शिक्षा मंत्रालय के डायरेक्ट टेकओवर और एफडीआई पर जी रहे मीडिया के मिथ्या अभियान से वह हर स्तर पर खत्म होने को है।
अब नागार्जुन, मुक्तिबोध और प्रेमचंद को, माणिक और मंटो को, भीष्म साहनी को और भाषाई बहुलता को खत्म करने का वक्त है। जो दरअसल जनपक्षधर हैं, उनको ही राष्ट्रद्रोही और जनशत्रु बनवाने के तंत्र को मजबूत करने का यह कुरुक्षेत्र बन गया है सारा भारत। वे तमाम लोग अब ब्रह्मराक्षस हैं।
मुक्त बाजार में अब सचमुच इतिहास का अंत है। मुक्त बाजार में अब सचमुच अर्थव्यवस्था और उत्पादनप्रणाली, श्रमशक्ति और कृषि का अंत है।मुक्त बाजार में अब सचमुच प्रकृति और पर्यावरण का अंत है।
मुक्त बाजार में अब सचमुच जनचेतना, जनांदोलन, विचारधारा, विवेक और साहस का अंत है।
मुक्त बाजार में अब सचमुच भाषाओं, सौदर्यशास्त्र, विधाओं का अंत है।
मुक्त बाजार में अब सचमुच संस्कृति, अस्मिता, राष्ट्रीयता, स्वतंत्रता और संप्रभुता का अंत है।
मुक्त बाजार में अब सचमुच नागरिककता, निजता, बहुलता, नागरिक और मानवाधिकारों का अंत है।
मुक्त बाजार में अब सचमुच अब राष्ट्र और राष्ट्रीय सरकार का अंत है। बाकी बचा पद्म प्रलय अनंत गाथा।
बाकी बचा रामायण, महाभारत और कुरुक्षेत्रे धर्मक्षेत्रे अनंत विनाशलीला।
बाकी बचा हिमालयी जल सुनामी का अनंत सिलसिला।बाकी बचे वे विद्वतजन जो मारे जा रहे जनगण, मारे जाने वाले जनगण की कीमत पर संस्थानों, विश्वविद्यालयों में नये-नये विमर्श और नये-नये सौंदर्यशास्त्र की रचना कर रहे हैं। जनता के हक में पल छिन संध्या सकाले हर शब्द में गुरिल्ला युद्ध की तैयारी कर रहे नवारुण दा के इस मृत्यु उपत्यका से महाप्रस्थान के बाद मैंने लिखा था, यह सत्ता दशक का अंत है।
लीजिये, लाल किले की प्राचीर से अंततः घोषणा हो गयी कि यह भारत का अंत है और महाभारत का पुनरूत्थान है।
पलाश विश्वास।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना। पलाश जी हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।