Advertisment

सावरकर का वो सच जो सरकार आपको नहीं बताएगी

New Update
गणवेशधारियों के चिट्ठीवीर सावरकर, अंग्रेजों से माफी मांगते- मांगते अंगुलियां घिस गईं !

Advertisment

स्तंभकार डॉ. राम पुनियानी का आलेख "नेताजी बोस, नेहरू और उपनिवेश विरोधी संघर्ष" मूलतः 08 नवंबर 2018 को हस्तक्षेप पर प्रकाशित हुआ था। आज 28 मई को विनायक दामोदर सावरकर की जयंती (Veer Savarkar Jayanti: Facts, Quotes) पर हस्तक्षेप के पाठकों के लिए पुनर्प्रकाशन....

Advertisment

Netaji Bose, Nehru and anti-colonial conflict

Advertisment
-

Advertisment

यदि आधुनिक भारत एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्ट्र है तो उसमें देश में चले उपनिवेश विरोधी संघर्ष का प्रमुख योगदान है। विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं वाले लोग इस संघर्ष में शामिल हुए और सभी ने अपने-अपने तरीके से भारत को अंग्रेजों से मुक्त कराने के इस अभियान में योगदान दिया। लेकिन कुछ ऐसे लोग, जो धर्म को ही राष्ट्र का आधार मानते थे, इसमें शामिल नहीं हुए और आज वे चुनाव जीतने के लिए या तो इसमें भाग लेने के झूठे दावे करते हैं या स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं, विशेषकर नेहरू, को बदनाम करने के लिए तत्कालीन घटनाक्रम को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करते हैं।

Advertisment

ऐसा ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आजाद हिंद सरकार की 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर ध्वजारोहण करते समय किया। उन्होंने कहा कि सत्ता में रहने के दौरान नेहरू-गांधी परिवार ने बोस, पटेल और अंबेडकर के योगदान को नजरअंदाज किया।

Advertisment

इससे बड़ा झूठ कोई हो नहीं सकता। हम जानते हैं कि अंबेडकर को भारत की प्रथम मंत्रिपरिषद का सदस्य बनाया गया था, उन्हें संविधान सभा की मसौदा समिति का अध्यक्ष बनाया गया था और हिन्दू कोड बिल तैयार करने का काम भी उन्हें सौंपा गया था। सरदार पटेल, उपप्रधानमंत्री बनाए गए थे और उन्हें गृह मंत्रालय का जिम्मा दिया गया था।

Advertisment

घनिष्ठ संबंध थे नेहरू और पटेल के

प्रसिद्ध पत्रकार दुर्गादास ने ‘सरदार पटेल करसपांडेंस‘ नाम से उनके पत्रों का संकलन किया है। इस पुस्तक को पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि नेहरू और पटेल के घनिष्ठ संबंध थे (Nehru and Patel had close relations) और जब तक पटेल जीवित रहे, ज्यादातर निर्णय उनकी सहमति से या उनकी पहल पर किए गए। पटेल, नेहरू को अपना छोटा भाई एवं अपना नेता दोनों मानते थे।

पूर्व में मोदी ने यह झूठा दावा किया था कि नेहरू, पटेल की उपेक्षा करते थे एवं उन्होंने बंबई में पटेल के अंतिम संस्कार में भाग नहीं लिया था। लेकिन मोरारजी देसाई की आत्मकथा एवं उस समय के समाचारपत्रों से यह सिद्ध होता है कि नेहरूजी ने पटेल के अंतिम संस्कार में भाग लिया था।

Nehru and Bose were very close to each other in terms of ideology

जहां तक नेताजी सुभाषचन्द बोस का सवाल है, नेहरू और बोस विचारधारा की दृष्टि से एक-दूसरे के बहुत करीब थे। दोनों समाजवादी थे एवं कांग्रेस के वामपंथी धड़े का हिस्सा थे।

हिन्दुत्ववादी राजनीति के समर्थकों के विपरीत, बोस अत्यंत धर्मनिरपेक्ष थे। हिन्दू राष्ट्रवादी नेताओं ने बोस के उस निर्णय की हमेशा आलोचना की जिसमें कलकत्ता नगर निगम का प्रमुख चुने जाने के बाद उन्होंने मुसलमानों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की थी। बोस नौकरियां देने में मुसलमानों के साथ हो रहे घोर अन्याय से अवगत थे।

बोस ने हिन्दू एवं मुस्लिम दोनों समुदायों के साम्प्रदायिक तत्वों का विरोध किया।

कांग्रेस के त्रिपुरी अधिवेशन में बोस, कांग्रेस के प्रमुख चुने गए लेकिन गांधी इसके पक्ष में नहीं थे क्योंकि वे अहिंसा में विश्वास रखते थे और बोस को हिंसा से परहेज नहीं था।

बोस ने कांग्रेस में उनके विरोध के चलते कांग्रेस छोड़ दी और फारवर्ड ब्लाक नामक एक वामपंथी दल गठित किया, जो लंबे समय तक पश्चिम बंगाल में शासक वामपंथी गठबंधन का भाग रहा। सार्वजनिक क्षेत्र एवं भविष्य में होने वाले औद्योगिकरण के संबंध में बोस एवं नेहरू के विचार एक समान थे।

Netaji Subhash Chandra Bose Biography

नेताजी सुभाष चंद्र बोस जीवनी लेखक ए गार्डन, बोस के नजरिए का जिक्र करते हुए लिखते हैं,

‘‘प्रत्येक व्यक्ति को निजी स्तर पर अपने धर्म का पालन करना चाहिए परंतु उसे राजनीति और अन्य सार्वजनिक मसलों से नहीं जोड़ना चाहिए। अपने पूरे राजनीतिक जीवन के दौरान, बोस ने भारत के हित में अपने प्रांत बंगाल में मुस्लिम नेताओं से निकटता स्थापित करने का प्रयास किया। उनका और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, दोनों का लक्ष्य था कि क्षेत्र, धर्म एवं जाति के भेदों से ऊपर उठकर, सभी भारतीयों को मिलकर विदेशी शासकों के विरूद्ध संघर्ष करना चाहिए।‘‘

What was the biggest issue of differences between Gandhi-Nehru and Bose

गांधी-नेहरू एवं बोस के बीच मतभेद का सबसे बड़ा मुद्दा था द्वितीय विश्वयुद्ध में कांग्रेस की भूमिका। किंतु धीरे-धीरे कांग्रेस ने ब्रिटिश-विरोधी रूख अपनाया और गांधीजी ने सन् 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन प्रारंभ किया। बोस, जापान एवं जर्मनी की मदद से भारत को आजाद कराने का प्रयास करते रहे। फासिस्ट शक्तियों से सहायता मांगना किस हद तक उचित था? क्या इन शक्तियों की विजय होने पर भारत जर्मनी-जापान के अधीन नहीं हो जाता, जो देश के लिए घातक होता? जहां कांग्रेस ने अंग्रेजों का विरोध करने के लिए जनांदोलन का रास्ता चुना वहीं बोस ने आजाद हिंद फौज (एएचएफ) का गठन किया।

हिन्दू-मुस्लिम समन्वय के प्रति नेताजी का आग्रह इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि उन्होंने बर्मा में सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के नेता एवं हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक बहादुरशाह जफर की मजार पर चादर चढ़ाई थी और उनकी अस्थियों को भारत लाकर लालकिले में दफन करने का संकल्प लिया था।

दूसरी ओर, हिन्दू महासभा ने युद्ध में अंग्रेजों का खुले आम साथ दिया था और भारतीयों से अंग्रेजों की सेना में शामिल होने का आव्हान किया था। सावरकर ने अपने समर्थकों से ब्रिटिश साम्राज्य का समर्थन करने और युद्ध समितियों में शामिल होने का अनुरोध किया था और अंग्रेजों ने इन समितियों में हिन्दू महासभा के नेताओं को सदस्य बनाया था।

Savarkar and Hindu nationalist were supporting British army against Netaji

सावरकर ने कहा था

‘‘अंग्रेजों के विरूद्ध हिंसक प्रतिरोध का समर्थन नहीं किया जाएगा‘‘।

इस तरह हमारा सामना इस दिलचस्प तथ्य से होता है कि जहां नेताजी देश के बाहर अंग्रेजों से लड़ रहे थे, वहीं सावरकर और हिन्दू राष्ट्रवादी उस ब्रिटिश सेना का साथ दे रहे थे, जो सुभाष बोस की एएचएफ से लड़ रही थी! मोदी और उनके गिरोह के इस दावे में कोई तथ्य नहीं है कि वे नेताजी की बताई राह पर चल रहे हैं। तथ्य यह है कि सावरकर, नेताजी की सेना के विरोध में कार्यरत थे। इसके विपरीत, यद्यपि कांग्रेस नेताजी के क्रियाकलापों से सहमत नहीं थी, किंतु वह कांग्रेस ही थी जिसने युद्ध समाप्त होने के बाद एएचएफ से जु़ड़े व्यक्तियों पर चले मुकदमों में उनकी कानूनी सहायता की। भूलाभाई देसाई, कैलाशनाथ काटजू और स्वयं नेहरू ने एएचएफ के लोगों की पैरवी की।

आज हम भाजपा सरकार द्वारा मुस्लिम पृष्ठभूमि वाले नामों को बदलने का सिलसिला देख रहे हैं, किंतु एएचएफ में मुस्लिम नामों का उपयोग आम बात थी। उनके द्वारा स्थापित की गई प्रांतीय सरकार का नाम ‘आरज़ी हुकूमत-आजाद हिंद (स्वतंत्र भारत की प्रांतीय सरकार) था। आजाद हिन्द फौज का नाम भी यही शब्दावली दर्शाता है। उनके द्वारा स्थापित प्रांतीय सरकार में हिन्दू एवं मुसलमान दोनों शामिल थे। एसए अय्यर एवं करीम गनी इसके सदस्यों में थे। आज जरूरत है एएचएफ की मेलजोल की भावना को पुनर्जीवित करने की, नेताजी जिसके हामी थे और जो एएचएफ में थी।

(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

(लेखक आईआईटी, मुंबई में पढ़ाते थे और सन्  2007  के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

क्या यह ख़बर/ लेख आपको पसंद आया ? कृपया कमेंट बॉक्स में कमेंट भी करें और शेयर भी करें ताकि ज्यादा लोगों तक बात पहुंचे

Advertisment
सदस्यता लें