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OPINION DEBATE
- सुभाष गाताडे
प्रस्तावना
‘क्या पानी में आग लग सकती है ?’’
किसी भी संतुलित मस्तिष्क व्यक्ति के लिए यह सवाल विचित्र मालूम पड़ सकता है। अलबत्ता सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों पर निगाह रखने वाला व्यक्ति बता सकता है कि जब लोग सदियों से जकड़ी गुलामी की बेडि़यों को तोड़ कर आगे बढ़ते हैं तो न केवल /बकौल शायर/ ‘आसमां में भी सुराख हो सकता है’ बल्कि ‘ पानी में भी आग लग सकती है।’
2017 का यह वर्ष पश्चिमी भारत की सरजमीं पर हुए एक ऐसे ही मौके की नब्बेवी सालगिरह है, जब सार्वजनिक स्थानों से छूआछूत समाप्त करने को लेकर महाड नामक जगह पर सार्वजनिक तालाब से पानी पीने के लिए डॉ अंबेडकर की अगुआई में हजारों की तादाद में लोग पहुंचे थे। (19-20 मार्च 2017) कहने के लिए यह एक मामूली घटना थी, लेकिन जिस तरह नमक सत्याग्रह ने आज़ादी के आन्दोलन में एक नयी रवानी पैदा की थी, उसी तर्ज पर इस अनोखे सत्याग्रह ने देश के सामाजिक सांस्कृतिक पटल पर बग़ावत के नए सुरों को अभिव्यक्ति दी थी।
गौरतलब है कि पश्चिमी भारत के सामाजिक आन्दोलन में महाड क्रान्ति दिवस के नाम से जाने जाते चवदार तालाब के इस ऐतिहासिक सत्याग्रह को तथा उसके दूसरे दौर में मनुस्मृति दहन की चर्चित घटना को दलित शोषितों के विमर्श में वही स्थान, वही दर्जा प्राप्त है जो हैसियत फ्रांसीसी क्रांति की यादगार घटनाओं से सम्बन्ध रखती है। यूं कहने के लिए तो उस दिन दलितों ने और ऐसे तमाम लोगों ने जो अस्पृश्यता की समाप्ति के लिए संघर्षरत थे, महज तालाब का पानी पिया था लेकिन रेखांकित करने वाली बात यह करने वाली छोटे से दिखने वाले इस कदम के जरिये उन्होंने हजारों साल से जकड़ बनायी हुई ब्राहमणवादी व्यवस्था के खिलाफ बगावत का ऐलान किया था। जानवरों को भी जिस तालाब पर जाने की मनाही नहीं थीं, वहां पर इन्सानियत के एक हिस्से पर धर्म के नाम पर सदियों से लगायी गयी इस पाबंदी को तोड़ कर वह सभी नयी इबारत लिख रहे थे।
यह अकारण नहीं कि महाड सत्याग्रह के बारे में मराठी में गर्व से कहा जाता है कि वही घटना ‘जब पानी में आग लगी थी’ उसने न केवल दलित आत्मसम्मान की स्थापना की बल्कि एक स्वतंत्र राजनीतिक सामाजिक ताकत के तौर पर उनके भारतीय जनता के बीच अपने आगमन का संकेत दिया था। दलितों द्वारा खुद अपने नेतृत्व में की गयी यह मानवाधिकारों की घोषणा एक ऐसा हुंकार था जिसने भारत की सियासी तथा समाजी हलचलों की शक्लोसूरत हमेशा के लिए बदल दी।
आने वाले पन्नों में महाड सत्याग्रह का विवरण पेश किया गया है और महाड की पूर्वपीठिका तैयार करने वाले सामाजिक-सांस्कृतिक विद्रोहों पर भी निगाह डाली गयी है। प्रस्तुत आलेख इस मसले पर भी विचार करता है कि आखिर वह क्या वजह थी कि महाड सत्याग्रह को इतनी अहमियत हासिल हुई और अन्त में इस मसले पर भी गौर किया गया है कि आज के वक्त़ में जबकि अपने मुल्क में ही नहीं बल्कि शेष दुनिया में नफरत एवं डर की, असमावेश एवं बहिष्करण की अलग किस्म की हवाएं चल रही हैं, उस दौर में महाड के सबकों को याद करना क्यों जरूरी है।
स्मृति का वजूद कहां होता है ? और विस्मृति के साथ उसका रिश्ता कैसे परिभाषित होता है ?
कभी लगता है कि स्मृति तथा उसकी ‘सहचर‘ विस्मृति एक दूसरे के साथ लुकाछिपी का खेल खेल रहे हों। स्मृति के दायरे से कब कुछ चीजें, कुछ अनुभव, कुछ विचार विस्मृति में पहुंच जाएं और कब किसी शरारती छोटे बच्चे की तरह अचानक आप के सामने नमूदार हो जाएं इसका गतिविज्ञान जानना न केवल बेहद मनोरंजक बल्कि मन की परतों की जटिल संरचना को जानने के लिए बेहद उपयोगी हो सकता है । यह अकारण ही नहीं कि किसी चीज / घटना विशेष को मनुष्य कैसे याद रखता है और कैसे बाकी सबको भूल जाता है इसको लेकर मन की पड़ताल करने में जुटे मनीषियों / विद्वानों ने कई सारे ग्रंथ लिख डाले हैं ।
और अगर किसी व्यक्ति विशेष के बजाय समाज के ‘मानस’ की चर्चा की जाय तो ‘स्मृतियों’ और ‘विस्मृतियों’ की इस लुकाछिपी को जानना जटिलता के नये आयामों से हमें परिचित करा सकता है ।
आज का यह दौर भी वैसे अजीब है। हम यह पा रहे हैं कि स्मृतियों का यह फ़लक ही संघर्ष का नया मैदान बना दिया गया है। स्मृति-विस्मृति की इस लुकाछिपी में काल्पनिक, आभासी बातों का आरोपण हो रहा है , भावनाओें की दुहाई देते हुए चुनिन्दा स्मृतियों को छांटा जा रहा है और इन आरोपित ‘स्मृतियों’ और ‘मिथकीय’ घटनाओं के जरिये एक नया ‘इतिहास’ रचा जा रहा है। यथार्थ के बजाय मिथक, हकीकत के बजाय भावनाओं के पुर्नस्थापन के जरिये इतिहास के इस ‘पुननिर्माण’ को अंजाम दिया जा रहा है।
वैसे इस प्रकल्प के बरअक्स इतिहास के वास्तविक पुनर्निर्माण की एक समानान्तर प्रक्रिया भी निरन्तर चलती रहती है जहां बार-बार अतीत को खंगाला जाता है , उस पर नये नये कोणों से देखा जाता है और पुराणों में वर्णित समुद्रमंथन के मिथक से तुलना करें तो इससे नये-नये ‘मोती‘ निकाले जाते हैं।
प्रख्यात इतिहासकार ई एच कार के शब्दों में कहें तो इतिहास दरअसल ‘इतिहासकार तथा तथ्यों के साथ निरन्तर चलती अन्तर्क्रिया तथा अतीत के साथ वर्तमान के निरन्तर जारी सम्वाद ’ का दूसरा नाम है
जाहिर है इस नित नवीन होती प्रक्रिया में नये नये आयाम सामने आते रहते हैं, पहले लगभग अनुपस्थित या अदृश्य से रहने वाले पहलू उजागर होते रहते हैं, पहले उपेक्षित से दिखने वाले कारक धमाके के साथ अपनी मौजूदगी दर्ज करते रहते हैं। यह एक ऐसी प्रक्रिया होती है जहां चीजों का एकरेखीय, एक आयामीय या सरल बने रहना सम्भव ही नहीं होता। सम्वाद की यह प्रक्रिया अधिकाधिक जटिल, अधिकाधिक बहुआयामीय हुए बिना नहीं रह सकती।
सम्वाद की इस समूची आपाधापी में यह बात केन्द्रीभूत महत्व की हो जाती है कि इतिहासकार कहां से खड़े होकर ‘अपने तथ्यों‘ से बातें कर रहा है तथा उसका अपना राजनीतिक सामाजिक नज़रिया क्या है ? इसके बारे में एक दिलचस्प वाकया जनाब कार बताते हैं जिसमें वे फ्रांसीसी क्रांति में शामिल जनता को सम्बोधित करने के लिए अलग-अलग पीढ़ियों के इतिहासकारों द्वारा इस्तेमाल किए गए शब्दों पर गौर कराते हैं: ‘ऐसे गरीब किसान जिनके पास कपड़े भी नहीं थे’ ‘ सर्वहारा’ , ‘अफवाहें फैलाने वाले’ ‘निहत्थे’ आदि ।
.... जारी