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आजादी के शुरुआती पन्द्रह वर्षों में जवाहरलाल नेहरू (Jawahar Lal Nehru) ने जो बुनियाद डाली उसी का नतीजा है किस आज दुनिया में भारत का सर ऊंचा है। वरिष्ठ पत्रकार व हस्तक्षेप.कॉम के संरक्षक शेष नारायण सिंह (Shesh Narain Singh) का यह लेख 25 जनवरी 2014 को प्रकाशित हुआ था। यह लेख आज भी प्रासंगिक है। हस्तक्षेप के पाठकों की माँग पर पुनर्प्रकाशन -संपादक
रिज़र्व बैंक (Reserve bank) ने आदेश दिया है कि तीन महीने बाद 2005 के पहले छपे हुये नोट (2005 printed notes) नहीं चलेंगे। बैंक के इस आदेश के बाद पूरे देश में दहशत (Panic in the country) है। लोग डरे हुये हैं कि पता नहीं कब कहीं ऐसी नोट मिल जाये जो 2005 के पहले छपी हुयी हो और उसकी कीमत शून्य हो जाये। डर के हालात यहाँ तक हैं कि अखबारों के ज़रिये रिज़र्व बैंक के गवर्नर रघुरमन राजन (Reserve Bank Governor, Raghuram Rajan) को सफाई देनी पड़ी कि इस आदेश का मतलब यह नहीं है कि अब 2005 के पहले छपे हुये नोट बेकार हो जायेंगे। इसका सीधा मतलब यह है कि अगर आपके हाथ में ऐसा कोई नोट है तो उसको लेकर बैंक चले जाइए और उसे नए नोट से बदल लीजिये।
सरकार इस काम के ज़रिये उन नोटों को बेकार करना चाहती है जो बाज़ार में चल रहे हैं, लेकिन वास्तव में नकली नोट हैं अगर वे नोट बैंक में जायेगें तो ज़ाहिर है कि उनकी पहचान हो जायेगी और वे सर्कुलेशन से बाहर कर दिए जायेंगे।
इस मुद्दे पर भी राजनीति शुरू हो गयी है लेकिन वह दीगर मामला है और उस पर अलग से बात की जा सकती है। लेकिन यह बात भी सच है कि हमारे सार्वजनिक जीवन में डर अब स्थायी भाव बनता जा रहा है, एक राष्ट्र के रूप में भी हम डर के कारण ही काम कर रहे हैं।
हमारी राजनीतिक बिरादरी तो मुख्य रूप से डर का सौदागर बनी हुयी है, वह दहशतफरोश के रूप में राजनीतिक कार्य कर रही है। खतरा यह है कि कहीं देश की राजनीति का मतलब दहशतफरोशी ही न हो जाये। तुर्रा यह कि इस दहशतफरोशी को ही देश के भविष्य मान लेने की साज़िश में देश के राजनेता शामिल हैं हो गये हैं।
हालाँकि यह भी सच्चाई यह है कि हमारे दौर के सभी दहशतफरोश बुजदिल हैं और वे हमारे पिछले एक सौ साल के इतिहास के उन पहलुओं की इज्ज़त नहीं करते।
सदी की शुरुआत में इस देश की राजनीति का मुख्य भाव उम्मीद हुआ करती थी। आज़ादी के पहले के दौर में महात्मा गांधी ने जब ब्रिटिश साम्राज्यवाद को चुनौती दी तो जलियाँवाला बाग़ की तबाही के बाद की राजनीति का दौर शुरू हो चुका था।
भारतीय सपनों को कुचल देने के उद्देश्य से ब्रिटिश साम्राज्य की फौज ने अमृतसर में निहत्थे इंसानों पर गोलियाँ चलाईं थी लेकिन उस समय आम आदमी की महत्वाकांक्षाओं की वाहक बन रही कांग्रेस के नेता महात्मा गांधी ने अंग्रेजों की ताक़त को इतिहास के सबसे बड़े हथियार के ज़रिये ललकारा और पूरा देश उनके साथ खड़ा हो गया। हर आम-खास गांधी के साथ था।
इस अभियान में महात्मा गांधी का हथियार था सत्य और अहिंसा और उनकी सबसे बड़ी ताक़त थी आम आदमी के हौसलों की बुलंदी और उसके मन में हिलोरें मार रही आज़ादी की उम्मीद।
महात्मा गांधी ने जलियाँवाला बाग़ की तबाही के बीच में अपने देशवासियों को उम्मीद की एक किरण दिखा दी थी, भारत की आज़ादी की लड़ाई का उद्देश्य और साधन दोनों ही भारतीय जनमानस की आशाओं के बीच केन्द्रित कर दिया था।
महात्मा गांधी ने भारतीय राजनीति का स्थायी भाव उम्मीद को बना दिया था, राजनीति के आशा पर्व की शुरुआत हो चुकी थी। जिस आज़ादी की इच्छा ही उम्मीद की राजनीति से शुरू हुयी थी वह राजनीति आज पता नहीं किन अंधेरी गलियों में टामकटोइयाँ मार रही है, रास्ता भूल गयी है। आज हमारी राजनीति में डर स्थायी और संचारी भाव बन चुका है। डर दिखा कर राजनीतिक लाभ लेने की संस्कृति शुरू हो चुकी है और परवान चढ़ रही है। इस तरह का आचरण आज की राजनीति में चारों तरफ देखा जा सकता है।
सबसे ताज़ा घटना उत्तर प्रदेश से आई है जहाँ वाराणसी और गोरखपुर में दो राजनीतिक सभाएं हुयीं। वाराणसी में समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव ने साफ़ ऐलान किया कि किसी भी हालत में फासिस्ट ताकतों को उत्तर प्रदेश के रास्ते केन्द्र की सत्ता में नहीं आने देंगे। उन्होंने कहा कि भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार के हाथ खून से सने हैं। वे 2002 में हुये गुजरात के नरसंहार में नरेंद्र मोदी की भूमिका का डर दिखा रहे थे।
दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी वाराणसी से कुछ ही दूरी पर गोरखपुर में लोगों को मुलायम सिंह की पार्टी के राज के डर से वाकिफ करा रहे थे, वे बता रहे थे कि किस तरह से उत्तर प्रदेश की मौजूदा अखिलेश यादव की सरकार या पूर्ववर्ती मायावती सरकार ने लोगों के सपनों के साथ खिलवाड़ किया है।
नरेंद्र मोदी ने अपने श्रोताओं को यह डर दिखाने की कोशिश की कि अगर इन लोगों की राजनीति को खारिज न किया गया तो किस तरह की मुसीबतों का अम्बार चारों तरफ लग जायेगा।
मतलब यह कि अनिष्ट की आशंका से आगाह करते हुये दोनों ही नेता अपने श्रोताओं को अपनी दहशत फरोशी की राजनीति में शामिल करने की कोशिश कर रहे थे।
ऐसा नहीं है कि डर की यह राजनीति केवल मुलायम सिंह यादव या नरेंद्र मोदी तक ही सीमित है। देश के हर कोने में दहशत के बल पर ही राजनीति हो रही है। मुंबई में पहचान की राजनीति करने वाली शिव सेना और उससे अलग हुये संगठन, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की राजनीति पूरी तरह दहशत फरोशी की राजनीति है।
जब 1966 में बाल ठाकरे ने शिव सेना की शुरुआत की थी तो दक्षिण भारत से आये हुये लोगों का डर स्थानीय मराठी माणूस को दिखाया गया था। अब वही दहशत उत्तर भारतीयों और बिहारियों के नाम पर फैलायी जाती है। उनके साथी भारतीय जनता पार्टी वाले हालाँकि उत्तर भारतीयों के खिलाफ अभियान में तो शामिल नहीं होते लेकिन मुंबई की व्यापारिक ज़िंदगी में मुसलमानों के प्रभाव को अन्य लोगों में डर का कारण बनाने में कोई कसर नहीं रखते।
पुराने बाम्बे राज्य से अलग कर के बनाए गये गुजरात राज्य में डर के निजाम के इर्दगिर्द बुनी हुयी सत्ता का पूरी दुनिया में उदाहरण दिया जाता है।
2002 को गुजरात के प्रमुख शहरों में योजनबद्ध तरीके से फैलाई गयी दहशत और उसके नतीजे में मिली हुयी लगभग स्थायी सत्ता दुनिया के भर में राजनीतिशास्त्र के अध्ययन का एक महत्वपूर्ण विषय है। वहां भी मुसलमानों को दहशत का शिकार बनाया गया और आज वहां किसी की हिम्मत नहीं है कि वह स्थापित सत्ता का विरोध कर सके। पंजाब में पिछले 35 वर्षों से दहशत का राज कायम है।
इंदिरा गांधी और ज्ञानी जैल सिंह के प्रयत्नों से जरनैल सिंह भिंडरावाले का आतंक के पर्यायवाची के रूप में अवतार हुआ था। बाद में दहशत के इस खेल ने क्या-क्या नहीं किया। आपरेशन ब्लूस्टार, इंदिरा गांधी की ह्त्या, सिखों का नरसंहार, पंजाब में बहुत बड़ी संख्या में निर्दोष नागरिको की ह्त्या और उनकी जीविका के साधनों की तबाही, सब कुछ दहशत फरोशी की राजनीति से ही जन्मा था और आज भी उसकी याद करके आदमी अन्दर से डर जाता है।
पड़ोस के कश्मीर में भी हमेशा से डर राजनीतिक आचरण में रचा बसा रहा है। जम्मू-कश्मीर में आज चारों तरफ आतंक का माहौल है उस सबकी बुनियाद में दहशत ही है।
आज़ादी के तुरन्त बाद वहां के राजा ने भारत को जिन्ना का डर दिखाकर सौदेबाज़ी करने की कोशिश की थी लेकिन जब जिन्ना ने ही कबायलियों के नाम पर पाकिस्तानी फौज से हमला करवा दिया तो राजा खुद दहशत का शिकार हो गया। उसको पाकिस्तानी कब्जे का डर इस क़दर सताने लगा कि उसने भारत के गृहमंत्री सरदार पटेल की हर बात मान ली और भारत में शामिल हो गया लेकिन आज तक कश्मीर पर दहशत का साया जमा हुआ है।
चारों तरफ दहशत ही दहशत है, आतंक ही आतंक है। यही हाल आमतौर पर बाकी राज्यों का भी है।
कम्युनिस्टों का डर दिखा कर ममता बनर्जी सत्ता में हैं तो उत्तर भारतीय आधिपत्य और हिंदी के प्रभाव का डर दिखाकर तमिल पार्टियाँ बारी-बारी से राज कर रही हैं।
तेलंगाना की दहशत में आज केंद्रीय भारत पूरी तरह से ग्रस्त है।
माओवादी हिंसा की दहशत देश के एक बड़े भूभाग में आज आम ज़िन्दगी का हिस्सा है।
पूर्वोत्तर के राज्यों में सेना की दहशत वहां पर हर तरह की राजनीति के केन्द्र में है जबकि देश के विभाजन का डर दिखा कर वहां के सभी राजनेता अपना कारोबार चला रहे हैं।
आज नरेंद्र मोदी जिस लाइन पर पूरे देश में मतदाताओं का ध्रुवीकरण करना चाह रहे है उसमें भी यह दिखाने की कोशिश है कि अगर उनको प्रधानमंत्री न बनाया गया तो मुसलमानों का प्रभाव इतना बढ़ जायेगा कि एक हिन्दू बहुल देश के रूप में भारत की पहचान ही ख़त्म हो जायेगी।
नरेंद्र मोदी का मौजूदा अभियान उनकी पार्टी के नेता और चिन्तक, डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी के एक बहुचर्चित लेख पर भी आधारित माना जाता है।
2011 में मुंबई में हुये बम हमले के बाद डॉ स्वामी ने एक लेख लिखकर यह अपील की थी कि इस देश के हिन्दुओं को एक हो जाना चाहिए, वरना मुसलमान लगातार हमले करते रहेंगे।
उसी लेख में उन्होंने मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने की अपील भी की थी और वंदेमातरम् के गायन को अनिवार्य बनाने की बात को एक बार फिर दोहरया था। इस लेख के छप जाने के बाद जो विवाद शुरू हुआ उसके बाद बहुत कुछ बदल गया है।
इस लेख के चर्चा में आने के बाद डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी के ऊपर अल्पसंख्यक आयोग ने मुक़दमा दर्ज करवाया, दिल्ली पुलिस ने भी कार्रवाई की और उनको अदालत से ज़मानत लेनी पड़ी। ज़मानत में यह शर्त है कि वे आइन्दा इस तरह के लेख नहीं लिखेंगे।
आज की राजनीति में बहुत सारे नेता दहशत का कारोबार करते हैं, डर दिखा कर वोट लेते हैं लेकिन हमेशा ही से ऐसा नहीं था।
आजादी के बाद जब जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री बने तो चारों तरफ उम्मीद ही उम्मीद थी, वह आदमी सपने तो नहीं दिखाता था लेकिन उसने उम्मीद की बात करके पूरे देश को एकता के सूत्र में बाँध दिया था। अपने देश का पहला प्रधान मंत्री उम्मीदों की जमात का रहबर था।
आजादी के शुरुआती पन्द्रह वर्षों में जवाहरलाल नेहरू ने जो बुनियाद डाली उसी का नतीजा है किस आज दुनिया में भारत का सर ऊँचा है, हालाँकि जब 1962 में चीन से युद्ध की नौबत आयी तो उम्मीद के इस राजनेता को भारी निराशा हुयी थी, उसके बाद जवाहरलाल नेहरू में भारी बदलाव आया था लेकिन उन्होंने राजनीतिक विमर्श में दहशत को पैर नहीं पसारने दिया।
यह भी सच है कि नेहरू के जाते ही देश की राजनीति में डर का युग शुरू हो गया था। 1965 के पाकिस्तानी हमले के बाद से देश की राजनीतिक विमर्श की भाषा बदल गयी और आज जब राजनीति में आज़ादी की लड़ाई के महान नायकों के टक्कर का कोई नेता नहीं है तो चारों तरफ दहशतफरोशों का क़ब्ज़ा है।
उम्मीद की जानी चाहिए कि अपने देश की राजनीति इन दहशतफरोशों के चंगुल से बाहर निकलेगी और जवाहरलाल नेहरू के विज़न को एक ईमानदार कोशिश के तहत अमली जामा पहनाने वाले नेता हमारी राजनीति में शामिल होंगें।
यहाँ इस बात का ज़िक्र करना भी ज़रूरी है कि नेहरू की राजनीतिक सोच का रूतबा ऐसा था कि उस दौर में कांग्रेस के अलावा भी जो राजनीतिक पार्टियाँ थीं वे भी उम्मीद को राजनीति का स्थायी भाव मानती थीं।
मधु लिमये ने सोशलिस्ट आन्दोलन के बहुत सारे दस्तावेजों का संकलन किया है और जिस किताब में इन कागजात को संकलित किया गया है उस किताब का नाम ही एज आफ होप रखा है।
यानी वह दौर ऐसा था जब उम्मीद की राजनीति हर राजनीतिक दल में थी, आज की तरह दहशतफरोशी नहीं। डर दिखा कर वोट लेना उन दिनों बहुत गलत काम माना जाता था।