विभाजन का दर्द : आज़ादी की कीमतें ऐसे भी चुकाई गई हैं, इसे साम्प्रदायिक मसाइल में ज़ाया न करें
विभाजन का दर्द।
बात 2007 की है। कराची में था। मेरे एक साथी इंतज़ार कर रहे थे कि उनके चाचा 35 साल बाद मिलेंगे। कुछ देर में होटल के कमरे में एक दुबले पतले, दाढ़ी वाले बुजुर्ग आये। उनके मुलाक़ात में सिसकियों की आवाज़ अभी भी कान में गूंजती है।
उनसे बात हुई- बेहद टूटे हुए। बताया जन्म तो आज के बिहार में हुआ। फिर रेलवे में नौकरी लग गयी। सन् 1947 में आज़ादी के समय पूर्वी पाकिस्तान यानी आज के बंग्लादेश में थे। सोचा नहीं था कि विभाजन की रेखा इतनी सुर्ख और गहरी होगी।
फिर ज़िंदगी पाकिस्तानी बन कर चलने लगी। उसके बाद सन 1971 की जंग हुई। तब वे चटगांव के पास एक स्टेशन पर मैनेजर थे। जब तक संभलते तो वे बंगलादेशी हो गए थे।
लड़के थे नहीं, लड़कियों की शादी 71 से पहले ही कराची में कर चुके थे।
रिटायरमेंट के बाद तन्हा हो गए। जब तब बेटियों के पास कराची आ जाते। इंडिया का वीजा मिलना मुश्किल था। सो अपने भाई के परिवार से मिल नहीं पाए।
शायद वे इसी मुलाकात के लिए रुके थे। हम इंडिया लौटे और कुछ ही महीनों में उनका इन्तकाल हो गया। एक इंसान जो ताज़िन्दगी अपनी नागरिकता के लिए भटकता रहा। टुकड़ों में बंटता रहा।
भला था उस समय कोई एनआरसी नहीं बना वरना वह "किसी देश के नागरिक नहीं" कहलाते।
आज़ादी की कीमतें ऐसे भी चुकाई गई हैं, इसे साम्प्रदायिक मसाइल में ज़ाया न करें।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)