लोहिया, आंबेडकर और गाँधी (भाग-3)
(यह आलेख रोशन प्रेमयोगी के उपन्यास ‘आजादी : टूटी फूटी’ की समीक्षा नहीं हैं, पर उसके बहाने लोहिया के समाजवाद की आलोचना है।)
उपन्यास में जो लोहिया आंबेडकर-गाँधी विवाद को देश तथा समाज की लड़ाई न मानकर दो नेताओं का अन्तर्द्वन्द्व और हितों का टकराव मान रहे थे, वे दलितों की लड़ाई में विरोधी के रूप में गाँधी के ही साथ खड़े थे। लोहिया कौन-सी समाजवादी भूमिका निभा रहे थे? अगर डॉ. आंबेडकर हजारों साल से आजादी से वंचित दलित जातियों के लिए आजादी माँग रहे थे, तो वे देशविरोधी कैसे हो गए और दलितों की आजादी का विरोध करने वाले गाँधी देशभक्त कैसे हो गए?
उपन्यास में लोहिया की चिन्ता यह है कि आंबेडकर गाँधी से लड़ क्यों रहे थे? गाँधी ने दलितों के लिए पगडंडियाँ बनाई थीं, तो आंबेडकर को उन पर राजमार्ग बनाना चाहिए था। पर वे पगडंडियाँ थीं क्या? इस पर उपन्यास में कोई चर्चा नहीं की गई है। अगर लोहिया आंबेडकर को साथ लेकर गाँधी की स्क्रिप्ट पर जनक्रान्ति करने की योजना बना रहे थे, तो यह उनकी गलतफहमी थी कि आंबेडकर उनका साथ देते। मुझे तो हैरानी होती है कि लोहिया गाँधीवाद के साथ समाजवाद का रिश्ता बना किस आधार पर रहे थे?
जहाँ तक जननेता आंबेडकर की हार का सवाल है तो क्या समाजवादी लोहिया की जीत दर्ज है इतिहास में?
जीत तो कम्युनिस्टों की भी नहीं हुई, वरना क्या देश में हिन्दू राष्ट्रवादियों और कारपोरेट का राज कायम होता? 1947 में आंबेडकर काँग्रेस में शामिल नहीं हुए थे, वरन् आंबेडकर को मन्त्रिमण्डल में शामिल करने और संविधान-निर्माण का दायित्व सौंपने की सलाह स्वयं गाँधी ने नेहरू और काँग्रेस को दी थी।
उपन्यासकार का आंबेडकर-ज्ञान दुरुस्त नहीं है, वरन् वह इस तथ्य से अनजान नहीं होता कि स्वतन्त्रता-संग्राम के दौरान आंबेडकर ने अंग्रेजी साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए सभी समाजवादी शक्तियों और दलों से एक अलग संयुक्त मोर्चा बनाने की अपील की थी। लेकिन उस वक्त कोई भी दल काँग्रेस से अलग होने को तैयार नहीं था।
एम. एन. राय ने तो काँग्रेस से अलग कोई भी मजदूर संगठन बनाने तक का विरोध किया था। हांलाकि बाद में अनेक समाजवादी दल मतभेद होने पर स्वयं काँग्रेस से अलग हो गए थे, पर तब तक वे किसी काम के नहीं रह गए थे।
आंबेडकर ने विधि मन्त्री के रूप में संविधान-निर्माण की एक बड़ी भूमिका निभाई थी और हिन्दू स्त्रियों के हित में क्रान्तिकारी हिन्दू कोड बिल तो उन्हीं के खाते में जाता है, जिसे संसद ने हिन्दू नेताओं और धर्मगुरुओं के भारी विरोध के बाद कई टुकड़ों में, आंबेडकर के मन्त्रिमण्डल से इस्तीफा देने के बाद, पास किया था। आंबेडकर के नाम दर्ज यह कम बड़ी क्रान्ति नहीं है। यह उनकी जीत थी। कैसे कहा जा सकता है कि वे हारे थे?
आंबेडकर से पहले कितने बौद्ध थे भारत में?
सिर्फ इतिहास में पढ़ाया जाने वाला विषय था बौद्धधर्म। आज विजया दशमी पर लाखों नवबौद्ध इकट्टा होते हैं नागपुर में। हजारों की संख्या में बौद्धधर्म पर हिन्दी, मराठी और अंग्रेजी में किताबें छप चुकी हैं। जिन दलितों ने बौद्धधर्म अपनाया, उन्होंने पहला काम अपने घर के हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों और तस्वीरों को टोकरे में भरकर कूड़े में फेंकने का किया है। यह क्या बौद्ध क्रान्ति नहीं है, जो आंबेडकर ने की? मानता रहे हिन्दू समाज उन्हें दलित, पर जो वैचारिक और सांस्कृतिक रूपान्तरण उनका हुआ है, वह अगर क्रान्ति नहीं है, तो फिर कैसी होती है क्रान्ति?
उपन्यास में लोहिया कम्युनिस्टों से सबसे ज्यादा खफा हैं। कहते हैं कि नेहरू ने ही कम्युनिस्टों को सबसे ज्यादा प्रश्रय दिया। नेहरू के राज में ही वे विश्वविद्यालयों में काबिज हुए।
वे कम्युनिस्टों से इतने चिड़े हुए हैं कि जब पत्रकार उमाशंकर उनसे लेनिन की बात करता है, तो वे कहते हैं, ‘क्यों न हम स्वामी विवेकानन्द और महात्मा गाँधी की बात करें, जिनके विचार और कार्य राम और कृष्ण के बाद सारी दुनिया के लिए अनुकरणीय बन गए?’ क्या इन शब्दों में लोहिया का दक्षिणपंथी चेहरा साफ नजर नहीं आता है? शायद यही कारण है कि लोहिया के उत्तराधिकारियों को जाति और धर्म की राजनीति विरासत में मिली है। शायद इसीलिए उपन्यास में उन पात्रों की अधिकता है, जो किसी बड़े सामाजिक बदलाव का सपना नहीं देखते हैं। ऐसा ही एक पात्र कहता है, ‘हमारे बचपन में छुआछूत जरूर था, लेकिन लोग प्रेम से रहते थे।’ इससे बड़ा झूठ कोई हो सकता है? जब छुआछूत है, तो प्रेम से लोग कैसे रह सकते हैं? जहाँ छुआछूत है, वहाँ प्रेम कैसे हो सकता है?
उपन्यास में पूँजीवाद, कारपोरेट और एन. जी. ओ. की लूट-खसोट पर अवश्य ही गम्भीर चर्चा हुई है, पर राम-रामायण के ब्राह्मणवादी संस्कारों वाला मानस इस लूट-खसोट को न देख सकता है और न समझ सकता है। क्या यही मानस समाजवाद के राह की सबसे बड़ी बाधा नहीं है?
कॅंवल भारती
(समाप्त)
लोहिया का समाजवाद और ‘आज़ादी टूटी-फूटी’
क्या सचमुच पूँजीवाद के विरोधी थे लोहिया?
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