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उद्देशिका, धर्मनिरपेक्षता व संविधान

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hastakshep
04 Mar 2015
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उद्देशिका, धर्मनिरपेक्षता व संविधान

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Preamble, Secularism and Constitution

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केंद्र सरकार द्वारा गणतंत्र दिवस पर जारी एक विज्ञापन पर विवाद (Controversy over an advertisement issued by the Central Government on Republic Day) खड़ा हो गया था। इस विज्ञापन में संविधान की उद्देशिका (Preamble to the Constitution) की जो छायाप्रति छापी गई थी, उसमें से ‘समाजवाद’ व ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द गायब थे। इस संबंध में भाजपा नेताओं का स्पष्टीकरण यह था कि वह, मूल संविधान की उद्देशिका की फोटो प्रति थी, जिसमें ये दोनों शब्द नहीं थे।

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यह सही है कि ‘समाजवाद’ व ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द उद्देशिका में 42वें संशोधन (42nd constitution amendment) के जरिये सन् 1976 में जोड़े गये थे। यह एक रहस्य बना रहेगा कि मूल संविधान की उद्देशिका का विज्ञापन में प्रकाशन सकारण था (क्योंकि वह वर्तमान शासक दल की विचारधारा से मेल खाती है) या फिर ऐसा केवल भूल से हुआ। संभावना यही है कि यह गलती नहीं थी क्योंकि शासक दल, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों (Principles of Socialism and Secularism) में विश्वास नहीं करता और उसने इन संवैधानिक मूल्यों की कई अलग-अलग मौकों पर निंदा की है और मजाक बनाया है।

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जब प्रधानमंत्री मोदी ने जापान के सम्राट को गीता की प्रति भेंट की थी तब उन्होंने धर्मनिरपेक्षतावादियों का मखौल बनाते हुए कहा था कि वे इस मुद्दे पर तूफान खड़ा कर देंगे और टीवी पर बहसों का तांता लग जायेगा।

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गुजरात, मध्यप्रदेश, राजस्थान और हरियाणा की भाजपा सरकारें, स्कूलों के पाठ्यक्रमों में हिंदू धार्मिक पुस्तकों के अंश शामिल कर रही हैं और सरस्वती वंदना व सूर्य नमस्कार जैसे हिंदू धार्मिक अनुष्ठानों को अनिवार्य बना रही हैं। यह संविधान के अनुच्छेद 28 व 29 का उल्लंघन है। हिंदू राष्ट्रवादी संगठन, ऊंची जातियों की परंपराओं को देश पर लादने की कोशिश कर रहे हैं और भाजपा सरकारें इस प्रयास को अनदेखा कर रही हैं। ये संगठन उन सभी कलात्मक अभिव्यक्तियों, फिल्मों, विचारों व सोच पर हिंसक हमले कर रहे हैं, जिनसे वे सहमत नहीं हैं। वे अल्पसंख्यकों को जबरदस्ती हिंदू बनाने का प्रयास कर रहे हैं और हिंदुओं द्वारा अन्य धर्मों को अंगीकार करने के प्रयासों को बल प्रयोग से रोक रहे हैं। वे वैलेंटाइन डे सहित कई त्योहारों और उत्सवों के विरोधी हैं। वे अल्पसंख्यकों के खिलाफ घृणा फैला रहे हैं, जिसके कारण छोटे-बड़े शहरों में अलग-अलग धर्मों के लोगों के अलग-अलग मोहल्ले बसने लगे हैं। वे हिंदू ऊँची जातियों की खानपान की आदतों को जबरदस्ती पूरे देश पर लादने का प्रयास कर रहे हैं।

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इस अभियान के तहत वे मवेशियों को ढोने वाली गाड़ियों को जबरदस्ती रोकते हैं, मवेशियों को अपने कब्जे में ले लेते हैं व बूचड़खानों के सामने प्रदर्शन आदि करते हैं। वे चाहते हैं कि देश में विवाह और मित्रता भी हिंदू सामाजिक पदानुक्रम के अनुरूप हों।

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हिंदू राष्ट्रवादी संगठन, गैर-हिंदुओं के बारे में दुष्प्रचार कर समाज को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित कर रहे हैं। अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वे युवाओं को उनकी पसंद के जीवनसाथी और मित्र चुनने के अधिकार से भी वंचित करने की कोशिश कर रहे हैं और शिक्षा संस्थानों, मीडिया व खाप पंचायतों आदि की मदद से एक विशिष्ट संस्कृति का प्रचार कर रहे हैं और उसे श्रेष्ठतम बता रहे हैं। यह सब संविधान की मूल आत्मा के खिलाफ है और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का उल्लंघन है।

What does secularism mean

धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है अल्पसंख्यकों की बेहतरी के लिए सकारात्मक प्रयास, जिसमें उन्हें सुरक्षा प्रदान करने के साथ-साथ उनकी संस्कृति की रक्षा करना भी शामिल है। भाजपा सरकार, समाज के वंचित तबकों, जो पारंपरिक रूप से जाति-आधारित हिंदू सामाजिक व्यवस्था से बाहर थे, कि बेहतरी के किसी भी प्रयास की विरोधी है। स्वतंत्र बाजार की अवधारणा में विश्वास रखने वाले ये लोग, संसाधनों के बंटवारे का नियंत्रण बाजार के हाथ में देकर, सामंती, जातिगत व लैंगिक ऊँचनीच को बढ़ावा देना चाहते हैं। जब संसाधनों का वितरण बाजार से नियंत्रित होता है तब उससे सबसे अधिक लाभ उन वर्गों को होता है जिनका बाजार पर  प्रभुत्व है।

‘मेक इन इंडिया’ व ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ आदि जैसे अभियानों के जरिए और श्रम कानूनों में संशोधन कर, नियोक्ताओं के लिए कर्मचारियों को नौकरी से हटाना आसान बना दिया गया है। उद्योगों को बढ़ावा देने के नाम पर पर्यावरणीय मुद्दों की अनदेखी की जा रही है और बड़े व्यवसायिक घरानों को मजदूरों का शोषण करने और किसानों की जमीनों पर जबरदस्ती कब्जा करने की खुली छूट दे दी गई है। इसके लिए एक नये भूमि अधिग्रहण कानून को लागू करने की तैयारी चल रही है जिसके अंतर्गत किसानों को अपनी जमीन मिट्टी के मोल बेचने पर मजबूर होना पड़ेगा। इस तरह, भाजपा समाजवाद की विरोधी भी है।

यद्यपि यह तथ्य है कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ व ‘समाजवाद’ शब्द संविधान सभा द्वारा स्वीकृत संविधान की उद्देशिका के हिस्से नहीं थे परंतु प्रश्न यह है कि क्या स्नातक परीक्षा पास करने के बाद, आप किसी से यह कहते हैं कि आपकी शैक्षणिक योग्यता 12वीं है? क्या आप अपने ड्रायविंग लायसेंस या पासपोर्ट पर अपने बचपन की फोटो चिपकाते हैं? इसी तरह, हमने, एक लंबी लड़ाई, जिसमें हजारों लोगों ने अपना जीवन खपा दिया, हजारों ने शारीरिक कष्ट भोगे और अपनी जानें गंवाईं, के बाद स्वतंत्रता हासिल की है। हम आज एक प्रजातांत्रिक, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र हैं। क्या अब हम अपने अतीत का कोई चित्र निकालकर यह घोषणा कर सकते हैं कि हम हिंदू राष्ट्र हैं और हमारा संविधान यह नहीं कहता कि हम समाजवादी व धर्मनिरपेक्ष हैं? हिंदू राष्ट्र, अनिवार्यतः धर्मनिरपेक्षता-विरोधी होगा।

हम यह देख रहे हैं कि किस तरह हिंदू राष्ट्र की विचारधारा को हिंदू महिलाओं, आदिवासियों, दलितों, श्रमिकों और उदारवादियों पर जबरदस्ती थोपा जा रहा है।

यद्यपि धर्मनिरपेक्ष व समाजवादी शब्द हमारे संविधान में बाद में जोड़े गये थे तथापि हमारे संविधान निर्माताओं के मन में इस संबंध में कोई संदेह नहीं था कि वे एक धर्मनिरपेक्ष व समाजवादी संविधान का निर्माण कर रहे हैं। उन्होंने इन शब्दों का इस्तेमाल जानते-बूझते नहीं किया। उस समय धर्मनिरपेक्षता का अर्थ (Meaning of secularism) धर्म का विरोध नहीं तो कम से कम अधार्मिकता अवश्य समझा जाता था। इसके विपरीत, हमारे संविधान निर्माताओं के लिए धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धार्मिक विश्वासों से दूरी बनाना या उनका विरोध करना नहीं बल्कि अपने पसंद के किसी भी धर्म को मानने, उसका आचरण करने व उसका प्रचार करने की स्वतंत्रता था।

लोकनाथ मिश्र ने संविधान सभा की एक बैठक में पूछा था कि जब अनुच्छेद 19 (संविधान के अंतिम मसविदे का अनुच्छेद 25) नागरिकों को अपने धर्म का प्रचार करने का अधिकार देता है तब धर्मनिरपेक्ष शब्द का इस्तेमाल संविधान में कैसे किया जा सकता है! दक्षिणपंथी तत्वों के कड़े विरोध के बाद भी, संविधान में किसी भी धर्म को मानने व उसका आचरण करने के साथ-साथ उसका प्रचार करने का अधिकार भी नागरिकों को दिया गया।

एचव्ही कामथ चाहते थे कि उद्देशिका इन शब्दों से शुरू हो- ‘‘ईश्वर के नाम पर हम भारत के लोग...’’।

ए थानू पिल्लई ने कामथ के इस संशोधन के प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहा कि यह आस्था की स्वतंत्रता के विरूद्ध होगा। रोहिणी कुमार चौधरी, कामथ के संशोधन में एक और संशोधन करना चाहते थे। उनका कहना था कि संविधान इन शब्दों से शुरू होना चाहिए, ‘‘देवी के नाम पर...’’।

पंडित हृदयनाथ कुंजरू ने भी कामथ के संशोधन का विरोध करते हुए कहा कि ईश्वर के नाम से संविधान की शुरुआत करना, ईश्वर को लोगों पर लादने के बराबर होगा और यह संविधान द्वारा हर एक को दी गई विचार, अभिव्यक्ति, आस्था, विश्वास और आराधना की स्वतंत्रता का उल्लंघन होगा। कामथ ने अपने संशोधन प्रस्ताव पर मतदान कराने पर जोर दिया। उसके पक्ष में 41 और विपक्ष में 68 वोट पड़े।

इसी तरह, कामथ के संशोधन के अन्य रूपांतरों, जिनमें ‘परमेश्वर के नाम पर’, ‘सर्वशक्तिमान की कृपा से’ से संविधान के शुरुआत करने की बात कही गई थी आदि भी ध्वनिमत से अस्वीकार कर दिए गए। ब्रजेश्वर प्रसाद ने जोर देकर कहा कि धर्मनिरपेक्ष शब्द, संविधान का हिस्सा बनना चाहिए क्योंकि राष्ट्रीय नेताओं ने धर्मनिरपेक्षता पर बहुत जोर दिया था और इससे ‘अल्पसंख्यकों’ का मनोबल बढ़ेगा।

इस तरह, यद्यपि ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द संविधान की उद्देशिका में शामिल नहीं किया गया क्योंकि उस समय उसका अर्थ, आज के उसके अर्थ से बहुत भिन्न था; परंतु साथ ही संविधान सभा ने ‘ईश्वर के नाम पर’ आदि जैसे शब्दों से संविधान की शुरुआत करने के प्रस्ताव को खारिज कर यह संदेश भी दिया कि वह एक मध्यमार्ग पर चलने की इच्छुक है।

इसी तरह, कई संशोधनों द्वारा यह प्रस्ताव किया गया था कि ‘समाजवाद’ शब्द उद्देशिका में शामिल किया जाए। धर्मनिरपेक्षता की तरह, उस काल में समाजवाद शब्द का अर्थ भी उसके आज के अर्थ से बहुत भिन्न था। उस समय समाजवाद का अर्थ था उत्पादन के सभी साधनों पर राज्य का नियंत्रण और संपत्ति के निजी स्वामित्व का उन्मूलन। उस समय ये नीतियां अपनाना, भारत के लिए संभव नहीं था। मौलाना हसरत मोहानी ने प्रस्तावित किया कि उद्देशिका में भारत को सोवियत संघ की तर्ज पर ‘भारतीय समाजवादी गणतंत्रों का संघ’ कहा जाना चाहिए।

शिब्बन लाल सक्सेना के संशोधन प्रस्ताव में अन्य चीजों के अलावा, इन शब्दों को उद्देशिका में शामिल करने की बात कही गई थी-‘‘भारत को सर्वप्रभुता सम्पन्न, स्वतंत्र, प्रजातांत्रिक, समाजवादी गणतंत्र...’’। ब्रिजेश्वर प्रसाद चाहते थे कि ‘‘भारत को समाजवादी व्यवस्था स्थापित करने के लिए सहकारी राष्ट्रमंडल के रूप में...’’ इन शब्दों से उद्देशिका शुरू हो। परंतु ये सभी संशोधन खारिज हो गए।

संविधान में महिलाओं, बच्चों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों व सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े अन्य वर्गों की बेहतरी के लिए सकारात्मक कदम उठाये जाने से संबंधित प्रावधान शामिल किए गए। संविधान के निर्माताओं ने संविधान के भाग-चार में राज्य के नीतिनिदेशक तत्वों को शामिल किया, जिसमें अन्य चीजों के अलावा यह कहा गया है कि राज्य अपनी नीतियों का इस तरह संचालन करेगा कि ‘‘जिससे  समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बंटा हो, जिससे सामूहिक हित का सर्वोत्तम रूप से साधन हो’’ (अनुच्छेद 39 ‘ख’) व ‘‘आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले कि धन और उत्पादन-साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संकेंद्रण न हो’’ (अनुच्छेद 39 ‘ग’)।

संविधान पूरी तरह तैयार हो जाने के बाद 25 नवंबर को संविधान सभा में दिये गए अपने भाषण में डॉ. आंबेडकर ने संविधान को ‘सामाजिक प्रजातंत्र’ का वाहक बताया। उन्होंने कहा,

‘‘हमें अपने राजनीतिक प्रजातंत्र को सामाजिक प्रजातंत्र भी बनाना होगा। राजनैतिक प्रजातंत्र, लंबे समय तक नहीं चल सकेगा, यदि उसका आधार सामाजिक प्रजातंत्र नहीं होगा।’’

Dr. Ambedkar's last speech in the Constituent Assembly

संविधान सभा ने संविधान में ‘‘समाजवादी’’ व ‘‘धर्मनिरपेक्षता’’ शब्दों को शामिल करने की जिम्मेदारी आने वाली पीढियों के लिए छोड़ दी। सभा में अपने अंतिम भाषण में डॉ. आंबेडकर ने जैफरसन को उद्धृत करते हुए कहा,

‘‘हम हर पीढ़ी को एक अलग राष्ट्र मान सकते हैं, जिसे बहुमत के आधार पर, किसी भी सिद्धांत या मूल्य को अंगीकृत करने का अधिकार होगा। एक पीढ़ी को दूसरी पीढ़ी पर किसी भी तरह के बंधन लादने का अधिकार उसी प्रकार नहीं है, जिस प्रकार एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र के निवासियों पर अपने मूल्य या सिद्धांत लादने का’’।

डॉ. आंबेडकर को यह एहसास था कि भारत एक ऐसे संविधान को अंगीकार कर रहा है जो सभी नागरिकों को समान अधिकार देता है जबकि भारत में घोर सामाजिक असमानता व्याप्त है। -

‘‘26 जनवरी 1950 को हम एक विरोधाभासों से भरे जीवन में प्रवेश करेंगे। राजनीति में समानता होगी परंतु सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता का बोलबाला होगा। राजनीति में हम एक व्यक्ति एक वोट और हर वोट की बराबर कीमत के सिद्धांत को स्वीकार करेंगे। दूसरी ओर, हमारे सामाजिक और आर्थिक ढांचे के कारण, हमारे सामाजिक और आर्थिक जीवन में हम हर व्यक्ति के मत की समान कीमत के सिद्धांत का उल्लंघन करेंगे। इस तरह के विरोधाभासों के बीच हम कब तक जियेंगे? कब तक हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता नहीं लायेंगे? अगर हम लंबे समय तक लोगों को सामाजिक और आर्थिक समानता से वंचित रखेंगे तो हम अपने राजनैतिक प्रजातंत्र को खतरे में डालेंगे। हमें इस विरोधाभास को जितनी जल्दी हो सके, उतनी जल्दी खत्म करना होगा। अन्यथा जो लोग असमानता से पीडि़त हैं, वे इस सभा द्वारा कठिन परिश्रम से तैयार किये गए राजनीतिक प्रजातंत्र के ढांचे को तहस-नहस कर देंगे।’’

हमें डॉ. आंबेडकर के इन प्रबुद्ध वचनों को याद रखना होगा।

भारत में जिस तेजी से आर्थिक और सामाजिक असमानताएं बढ़ रही हैं, वह गंभीर चिंता का विषय है। आखिर कब तक हम हिंदुत्व की विचारधारा का प्रयोग कर उन लोगों को, जो समाज के हाशिये पर पड़े हैं और निर्धनता से पीड़ित हैं, यह विश्वास दिलाते रहेंगे कि समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता उनके (हिंदू) हितों के विरूद्ध है।

दिल्ली के चुनाव में आप की शानदार विजय का संदेश यही है कि आमजनों को ज्यादा लंबे समय तक ऐसे विकास के मोहजाल में, फंसाकर रखना संभव नहीं होगा, जो केवल कुछ उद्योगपतियों के खजाने भरता हो।

-इरफान इंजीनियर

(मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)

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