सभ्यता के महान यायावर – ज्ञानी राहुल सांकृत्यायन को 125 वें जयंती वर्ष में याद करने का मतलब
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पुष्पराज
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और घुमक्कड़ लेखक हैं )
9 अप्रैल 1893 को आजमगढ़ के पन्दाहा में जन्में सभ्यता के महान यायावर -ज्ञानी राहुल सांकृत्यायन का यह 125 वां जयंती वर्ष है. 36 भाषाओँ के ज्ञाता राहुल सांकृत्यायन इतिहासविद, पुरातत्ववेत्ता, त्रिपिटकाचार्य के साथ–साथ एशियाई नवजागरण के प्रवर्तक- नायक थे. उनकी मौत के 55 वर्षों बाद भारत में उनके अवदानों का सम्पूर्णता में मूल्यांकन ना हो पाना भारतीय ज्ञान परंपरा की सबसे बड़ी विडंबना है. तिब्बत की जिस एतिहासिक यात्रा के बाद काशी के बौद्धिक समाज ने उन्हें”महापंडित” के अलंकार से सम्मानित किया था, उस तिब्बत यात्रा से लाए गए हजारों पांडुलिपिओं का 8 दशक बाद भी अनुवाद ना हो पाना सम्पूर्ण राष्ट्र के समक्ष एक बड़ा प्रश्न है.राहुल सांकृत्यायन की तिब्बत यात्रा के बाद लन्दन से प्रकाशित प्रतिष्ठित पत्रिका मॉडर्न रिव्यू ने छापा था कि राहुल सांकृत्यायन ने लुप्त प्राचीन भारतीय इतिहास को खोज निकाला है.इस यात्रा के बाद प्रसिद्ध इतिहासकार काशी प्रसाद जायसवाल ने राहुल सांकृत्यायन को भारत का दूसरा बुद्ध कहा था.आज जब भारत से बाहर के देशों के अध्येता राहुल सांकृत्यायन को वास्कोडिगामा और व्हेनसांग के साथ जोड़कर देख रहे हों तो हम भारतवासिओं के लिए हमारे प्रतीक ज्यादा ग्राह्य होने चाहिए. भारत का हिंदी समाज राहुल सांकृत्यायन को 155 पुस्तक लिखने वाले यायावर हिंदी के लेखक के रूप में जानता है, जबकि दुनिया के देशों में राहुल के अलग –अलग आयामों को जानने की कोशिश हो रही है. विश्व के भाषाविद मानते हैं कि राहुल सांकृत्यायन ने हिंदी के साथ –साथ भारत की सबसे प्राचीन भाषा पालि और संस्कृत को दुनिया में इस तरह प्रतिष्ठित कराया कि आज पालि और संस्कृत के सबसे बड़े अध्येता भारत की बजाय, यूरोपीय देशों के निवासी हैं. जर्मनी के प्रसिद्ध अध्येता अर्नस्ट स्टेनकेलेनर ने राहुल सांकृत्यायन के प्रभाव में पालि, संस्कृत और तिब्बती भाषा के प्रसिद्ध विशेषज्ञ हैं. स्टेनकेलेनर ने तिब्बती पाण्डुलिपिओं पर गहन शोध किया है, जिसे नीदरलैंड रॉयल अकेडमी ऑफ़ आर्ट्स एंड साइंस ने 2004 में प्रकशित किया है. स्टेनकेलेनर के अनुसार भारत से बाहर के शोध संस्थानों में राहुल सांकृत्यायन को जो स्थान प्राप्त है, वह किसी भारतीय राजनेता के लिए मुमकिन नहीं है..
राहुल सांकृत्यायन और मैक्सिम गोर्की की यायावरी में काफी समानताएं हैं.अभी राहुल सांकृत्यायन के मूल्यांकन की शुरूआत हई है तो तुलनात्मक अध्ययन भी अपेक्षित है.गोर्की की पृष्ठभूमि भी मध्यमवर्गीय कृषक परिवार से शुरू होती है. पिता की असमय मौत के बाद गोर्की माँ के प्यार से वंचित रहे, जिसकी भरपाई उन्होंने महानतम पुस्तक”माँ ‘ से की.राहुल सांकृत्यायन की माता की असमय मौत के बाद शिशु राहुल का लालन –पालन नाना –नानी के घर में ही हुआ था.गोर्की भी अपने जीवन में बुद्ध की जीवनी से प्रभावित होते हैं.दोनों जनता को अपनी रचना का नायक बनाते हैं.यह आश्चर्यजनक सत्य ही है कि विश्व के इन दोनों महान रचनाकारों को जीवन का प्रथम प्रेम बोल्गा के किनारे ही प्राप्त हुआ. कृषकपुत्र केदार पाण्डेय को जिस बिहार के खेत –खलिहानों, किसानों के संघर्ष और जेलों ने सभ्यता के महान यायावर –ज्ञानी राहुल सांकृत्यायन के रूप में प्रस्तुत किया उस बिहार में राहुल सांकृत्यायन ने अपनी यायावरी से अर्जित सबसे बड़ी थाती हजारों तिब्बती पांडुलिपी, पुरातत्व और थंका चित्र पटना संग्रहालय को दान स्वरूप प्रदान किया था पर बिहार सरकार 8 दशक बाद भी उनके अध्ययन में अक्षम साबित हुई है. यह आश्चर्य ही है कि जिन बिहार की जेलों में”बोल्गा से गंगा”,”दर्शन –दिग्दर्शन” जैसे महान साहित्य रचे गए, उस बिहार में राहुल सांकृत्यायन की विरासत के संवर्धन के लिए एक भी सरकारी, सामाजिक संस्था इतने बरसों में स्थापित नहीं हुआ.. आज जिस बिहार की बौद्धिक शून्यता की वजह से बिहार में गरीबी, बेरोजगारी, पलायन का त्राहिमाम मचा हुआ है, उसी बिहार की उर्वर पृष्ठभूमि ने किस तरह केदार पाण्डेय को राहुल सांकृत्यायन के रूप में निर्मित किया, इस निर्माण प्रक्रिया की गहन पड़ताल जरुरी है अनात्मवाद, बुद्ध के जनतंत्र में विश्वास तथा निजी संचय (निज संपदा )का त्याज्य जैसे कुछ समान बिंदु हैं, जिनके कारण राहुल बौद्ध दर्शन और मार्क्सवाद को एक साथ लेकर चलते रहे. भारतीय ज्ञान परंपरा में मैं किसी दूसरे अध्येता के बारे में नहीं जानता हूँ, जिन्होंने ज्ञान की प्राप्ति के लिए धर्म, जाति,धन –संपदा का इस तरह त्याग कर दिया हो. 11 वर्ष की बाल्यावस्था में हुए विवाह को नकारते हुए उनके अंतःकरण में विद्रोह की जो चिंगारी सुलगी थी, वह चिनगारी ज्ञानपिपासा की अग्नि बनकर यायावर के अन्तः में जीवन पर्यंत जलती रही.. धर्म, राजनीति और गृहस्थी में लगातार जड़ चेतना का निषेध करते हुए वे अपना विद्रोही रूप अख्तियार करते रहे. उन्होंने ऐसी पुस्तकें लिखी, जो अपने नाम से लोगों के जेहन में नारे की तरह जीवित हैं. ”तुम्हारी क्षय” ने जहाँ करोड़ों भारतवासियो के जीवन को बदला, वहीं ”भागो नहीं, दुनिया को बदलो” पढ़ते हुए अनगिन लोग दुनिया को बदलने में लग गए.प्रसिद्ध फिल्म निदेशक ऋत्विक घटक के जीवन की प्रसिद्ध फिल्मों में ”बोल्गा से गंगा” का नाम शामिल है.. बोल्गा से गंगा लिखने से पहले राहुल जी ने भारत के 8 हजार वर्षों के इतिहास को पहले अपनी आँखों से देखा फिर दुनिया के समक्ष प्रस्तुत किया.प्रभाकर माचवे के अनुसार –“बोल्गा से गंगा प्रागैतिहासिक और एतिहासिक ललित कथा संग्रह की अनोखी कृति है. हिंदी साहित्य में विशाल आयाम के साथ लिखी गयी यह पहली कृति है.”महाप्राण निराला के शब्दों में – “हिंदी के हित का अभिमान वह, दान वह” ...प्रसिद्ध भारतीय फिल्म निदेशक अडूर गोपालकृष्णन ने एक प्रसिद्ध फ्रेंच चित्रकार के साथ मिलकर बोल्गा से गंगा के प्रभाव में ”गंगा” फिल्म में कैमरा निदेशक की भूमिका निभाई है. यह फिल्म फ्रेंच भाषा में बनी थी इसलिए भारत में अनुपलब्ध है. अडूर लिखते हैं कि मलयालम साहित्य पर जिस एक हिंदी साहित्य का प्रभाव सबसे ज्यादा हुआ, वह बोल्गा से गंगा ही है. हिंदी में राहुल सांकृत्यायन के व्यक्तित्व या प्रभाव पर केन्द्रित फिल्म, वृत्त-चित्र उपलब्ध नहीं है. हिंदी फ़िल्म संसार में शायद भारतीय महामानव के इस 125 वें जयंती वर्ष में इस कमी को गंभीरता से लिया जाए. भावी घुमक्कड़ों के लिए महान-घुमक्कड़ का सन्देश है – कमर बाँध लो, भावी घुमक्कड़ों, संसार तुम्हारे स्वागत के लिए तैयार है”. समीक्षक ऐसा भी मानते हैं कि राहुल सांकृत्यायन अपनी ज्ञान साधना के मार्ग में आनेवाली समस्याओं को देखते हुए अपनी घुमक्कड़ी को सहज और सुगम बनाने के लिए ”बुद्धम शरणम्” के अनुगामी बने. लेकिन सिद्दार्थ के गृह त्याग, ज्ञान प्राप्ति और केदार पाण्डेय के गृह त्याग और सपनों में कोई फर्क नहीं है. ईश्वर की खोज में निकले बुद्ध ने ”ज्ञान ही ईश्वर है” की घोषणा की थी तो रामोदर दास ने बौद्ध दीक्षा के बाद खुद को सिद्धार्थ के पुत्र राहुल ”राहुल सांकृत्यायन” के रूप में परिणत कर ईश्वर को ढूंढने की बजाय अतीत के गर्भ में छुपे ज्ञान भण्डार ”ज्ञान ही ईश्वर है” की खोज को अपना सबसे बड़ा लक्ष्य घोषित किया.
राहुल सांकृत्यायन ने बुद्ध का अनुसरण करते हुए जो ज्ञान हासिल किया, उस आधार पर लकीर का फ़क़ीर बनने की बजाय बुद्ध को वैज्ञानिक दृष्टि से प्रस्तुत किया. ”महामानव बुद्ध” पुस्तक की रचना की और बुद्ध को बौद्ध -धर्म और भिक्षुओं के मठों से निकालकर विश्व विद्यालयों, शोध संस्थानों में अध्ययन का विषय बनाया. भारत में बुद्धिस्ट अध्ययन का प्रथम अध्ययन केंद्र ”हिमालय अध्ययन केंद्र” की लद्दाख में राहुल जी ने ही स्थापना की थी. विदेशी अध्येताओं को इस बात की गहरी चिंता है कि राहुल जी के प्रयास से शुरू हुए हिमालय अध्ययन केंद्र, बुद्ध अध्ययन केंद्र, तिब्बती भाषा केंद्र आज भारत से लेकर विश्व के अलग–अलग हिस्सों में कार्यरत हैं पर राहुल सांकृत्यायन को जन्म देने वाले राष्ट्र भारत में अब तक ”राहुल सांकृत्यायन शोध-अध्ययन केंद्र” की शुरुआत क्योँ नहीं हो पाई है. राहुल सांकृत्यायन के द्वारा रचित एक –एक पुस्तकों की रचना प्रक्रिया पर गहन अध्ययन की दरकार है. राहुल जी के द्वारा रचित रचना संसार ने उनके जीवन का रास्ता निर्मित किया. राहुल ने ”बोल्गा से गंगा” लिखने के साथ बोल्गा के पास जाकर ना सिर्फ बोल्गा पुत्री लोला एलेना का प्यार प्राप्त किया बल्कि स्वदेश वापसी पर गंगा–पुत्री कमला का सहारा लिया.
बोल्गा से गंगा के रचनाकार के जीवन के दो छोड़ हैं. लेखक बोल्गा के तट से प्रेम प्राप्त कर गंगा के तट पर शरणागत होता है. एक छोड़ बोल्गा के तट को छूती है तो दूसरा छोड़ गंगा के तट को. लेखक की धमनियों में बोल्गा से गंगा के प्रवाहित होने की घटना का मनोवैज्ञानिक, राजनीतिक व समाज शास्त्रीय दृष्टि से विश्लेषण आवश्यक है. क्या राहुल सांकृत्यायन ने सूखती गंगा के साथ बोल्गा की धारा को जोड़कर धार्मिक राष्ट्र भारत में रूसी –क्रांति के सोते जोड़ने की कोशिश की थी, जिससे भारतीय जड़ – चेतन समाज अपनी विद्रूपताओं की वजह से अब तक जुड़ नहीं पाया. भारतीय कम्युनिस्ट अपनी दलगत घेरेबंदी की कंटीली दीवारों को पार कर ना ही राहुल सांकृत्यायन का मूल्यांकन कर पाए, ना ही उन्हें भारतीय युवाओं के सामने प्रतीक के रूप में प्रस्तुत कर पाए. बावजूद भारत में लेनिन की मूर्ति तोड़े जाने के बाद भारत में लेनिन को पढने –जानने की जो उत्सुकता बढ़ी, उस दौर में राहुल सांकृत्यायन रचित ”लेनिन” पुस्तक को लाखों–लाख लोगों ने सोशल मीडिया से पीडीएफ स्वरूप में प्रसारित किया. अपने जीवन में 50 हजार पन्ने लिखने वाले राहुल सांकृत्यायन ने अपने घुमक्कड़ी जीवन में कितने लाख किलोमीटर की यात्रा की, कितने हजार किलोमीटर वे पैदल ही चले, इसका किसी को पता नहीं है. प्रसिद्ध पुस्तक ”मध्य एशिया का इतिहास” की रचना के लिए राहुल जी किस तरह 200 किलो वजन की किताबें सोवियत संघ से साथ ढोकर भारत लाए, रचनाप्रक्रिया की इस अदम्य साधना को भी समझना होगा. मैकाले की पूंजीवादी शिक्षा पद्धति जहाँ युवाओं को पूँजीवादी लिप्सा में तनाव, अचेतनता के मनोरोग के साथ हिंसा और कलह की गर्त में धकेल रहा हो, वैसे दौर में ”पूँजी–लिप्सा” की बजाय” ज्ञान–लिप्सा” का आकर्षण पैदा करने के लिए राहुल सांकृत्यायन सबसे बेहतर प्रतीक हो सकते हैं.