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राजा ‘नंगा’ हो गया है। उसकी कलई खुल गई है। सच बिल्कुल सामने है

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hastakshep
13 Feb 2016

राजा ‘नंगा’ हो गया है। उसकी कलई खुल गई है। सच बिल्कुल सामने है। बावजूद इसके न तो इसको मीडिया दिखा रहा है। न अखबार लिख रहे हैं। और न ही कोई दूसरी एजेंसी बताने के लिए तैयार है।

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इस देश में या तो कोई मासूम नहीं बचा है या फिर किसी में कबीर बनने का साहस नहीं है। जो सब कुछ लुटाने की कीमत पर सच की बयानी कर सके, लेकिन इससे सच नहीं बदल जाता।

सच यही है कि देश के बड़े कारोबारियों के 1 लाख 14 हजार करोड़ रुपये माफ कर दिए गए हैं।

बैंकों में जमा यह पैसा जनता की गाढ़ी कमाई का था। जिसे इन सेठों ने लोन के तौर पर ले रखा था। लेकिन बैंकों की बार-बार कोशिशों के बाद भी वो उसे लौटाने के लिए तैयार नहीं थे। प्रधान सेवक ने उसे एक कलम से माफ कर दिया। ऐसा करते समय देश के सेवक को किसानों की सुध नहीं आई। उनकी कराह नहीं सुनाई दी। न ही उन 29 करोड़ लोगों की पीड़ा दिखी जो देश में गरीबी की लकीर के नीचे जीवन बसर कर रहे हैं।

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मौत की घाटी में तब्दील हो गया है मराठवाड़ा

पूरा मराठवाड़ा मौत की घाटी में तब्दील हो गया है। अकेले जनवरी महीने में 89 किसानों ने अपनी कर्जभरी जिंदगी से छुटकारा पा लिया। खुदकुशी का यह सिलसिला है कि थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। ऐसे में देश के अभिभावक की प्राथमिकता क्या होनी चाहिए थी? उसकी जिम्मेदारी किसके प्रति ज्यादा थी? मौत के कुंओं में फंसे इन किसानों को निकालना जरूरी था या फिर सेठों की तोद को और ऊंची करना? क्या कोई ऐसा भी पिता हो सकता है जो अपने विकलांग बेटे के सामने की थाली छीनकर उसे सक्षम पुत्र के हवाले कर दे। ऐसा कोई पुत्रद्रोही ही कर सकता है। देश के प्रधान सेवक ने यही किया है। और ऐसा करते वक्त उनका हाथ भी नहीं कांपा।

सरकार मौत की दहलीज पर खड़े मरीजों तक को बख्शने के लिए तैयार नहीं

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राजा हर जगह ‘नंगा’ है। वह हर कदम पर ‘नंगा’ हो रहा है। उसका हर फैसला असलियत के आइने में साफ है। सच की तस्वीर इससे भी ज्यादा भयावह है। सरकार मौत की दहलीज पर खड़े मरीजों तक को बख्शने के लिए तैयार नहीं है। सोमवार को ही कैंसर और एचआईवी सरीखी जान लेवा बीमारियों में इस्तेमाल होने वाली जीवन रक्षक दवाओं की कीमतों में 35 फीसदी की बढ़ोत्तरी की गई है। आईआईटी की फीस में 200 फीसदी की बढ़ोत्तरी कर गरीबों के लिए उच्च शिक्षण संस्थानों के दरवाजे बंद कर दिए गए हैं।

एक सवाल उन लोगों से जरूर बनता है, जिन्हें अभी भी राजा की असलियत नहीं दिख रही या फिर अभी भी उनकी उम्मीद बची है। गांव गिरांव में अगर कोई किसान हजार-दस हजार रुपये बैंक या फिर किसी सरकारी एजेंसी से कर्ज लेता है। समय के भीतर न लौटाने पर या तो जेल जाना पड़ता है या फिर उसके घर की कुड़की जब्ती होती है। शहरों में बैंक बाउंसरों के जरिये कर्जदारों की नांक में दम कर देते हैं। देश के कारपोरेट घरानों पर बैंकों का तकरीबन 7 लाख 33 हजार करोड़ रुपये बकाया है। जो एनपीए या कहें डंप रकम में तब्दील हो गया है और अब सरकार और बैंकों के गले की हड्डी बन गया है। बैंक न तो उसकी वसूली कर पा रहे हैं। न ही सरकार किसी की कुड़की जब्ती कर रही है। और न ही इन मामलों में किसी की गिरफ्तारी हो रही है। उल्टे पूरे कर्जे को माफ करने की कवायद शुरू हो गई है। यह रकम कितनी बड़ी है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश का पूरा बजट तकरीबन 17 लाख करोड़ रुपये के आस-पास होता है। यानी उसका तकरीबन आधा हिस्सा देश के पूंजीपति गड़प कर गए हैं।

क्या अपनी अंधभक्ति की खोल से बाहर आएंगे सरकार समर्थक
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सरकार के समर्थकों से एक और सवाल बनता है। चंद पलों के लिए ही सही क्या वो अपनी अंधभक्ति की खोल से बाहर आएंगे? और अपने गिरेबान में झांकेंगे? ज्यादा दिन नहीं बीते हैं या फिर आज भी वह सिलसिला चल ही रहा है। जब इस हिस्से ने सरकार के सुर में सुर मिलाते हुए गैसों की सब्सिडी वापस लेने का अभियान छेड़ दिया था। न छोड़ने वाले को भिखमंगा से लेकर अपाहिज तक क्या-क्या करार दिया गया। और उसे अपमानित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी गई। गरीबों को सरकार की तरफ से मिलने वाले 100-200 रूपये इस हिस्से को इतने अखरते हैं। लेकिन इन्हीं गरीबों के लाखों-लाख रुपयों को धन्नासेठों के नाम करने पर उनके कान में जूं तक नहीं रेंगती। इतने दोहरेपन के साथ भला कैसे रहा जा सकता है?

सरकार के इस फैसले ने देश के संविधान और कानून को भी बौना कर दिया है। अगर 10 हजार रूपये कर्जे के न लौटाने पर कोई जेल जा सकता है या फिर उसकी संपत्ति की कुड़की हो सकती है। तो सात लाख करोड़ रुपये ना लौटने वालों के साथ क्या होना चाहिए, लेकिन सरकार उनके सामने समर्पण की मुद्रा में है। क्या अभी भी कहा जा सकता है कि कानून के सामने सब लोग बराबर हैं।

इस फैसले को देखने, समझने और महसूस करने के बाद भी अगर कोई मोदी सरकार के साथ खड़ा है। तो वह उसकी मर्जी। लेकिन नीति, संविधान और कानून से आगे नैतिकता और जवाबदेही का भी तकाजा होता है। किसानों की आत्महत्याएं सरकार की अनदेखी, उपेक्षा, गैरजवाबदेही और आपराधिक लापरवाही का नतीजा हैं। लिहाजा इस खुदकुशी को न रोक पाने के लिए वह सीधे तौर पर जिम्मेदार है। और इस सच्चाई को जानते हुए भी अगर कोई सरकार का समर्थन करता है तो वह किसानों की आत्महत्या या फिर कहें हत्या के दोष से अपने आप को बरी नहीं कर सकता है ।

महेंद्र मिश्र

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