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संघीय सरकार के लिए राज्यों का भरोसा, 370 से ज्यादा जरूरी है
संघीय ढांचे को बनाए रखने के लिए जरूरी है कि राज्यों का केंद्र की बात और नियत पर भरोसा बना रहे. लेकिन, जिस तरह से मोदी सरकार (Modi government) एक के बाद एक राज्यों के हितों के खिलाफ फैसले (Decisions against the interests of the states) ले रही है, उससे यह भरोसा टूट रहा है. वो भारत के एक हिस्से में जिस बात को लेकर अपनी छाती चौड़ी कर के घूम रही है, वहीं दूसरे हिस्से में उसके उलट दावा करते फिर रही है. कोई सरकार की बात पर भरोसा करे भी तो कैसे? यह कश्मीर में संविधान के अनुच्छेद 370 व 35 ए हटाए जाने (Removal of Article 370 and 35A of the Constitution in Kashmir) एवं आसाम में किए गए नेशनल सिटीजन रजिस्टर (एन आर सी) एवं सिटीजन अमेंडमेंड बिल (सी ए बी) के मामले में सरकार के विरोधभासी रुख में देखा जा सकता है. इसके यह दोनों ही जश्न एक तरह की “जीत की हार’ में बदलते जा रहे हैं.
मोदी सरकार के सारे मंत्री और पार्टी पूरे देश में 370 एवं धारा 35 ए हटाने की सफलता को भुनाने में लगी है; पूरे देश में इसे लेकर अभियान चल रहा है. हरियाणा और महाराष्ट्र में इसे चुनावी मुद्दा बनाने का ऐलान हो गया है.
लेकिन, कमाल है! शेष भारत के लोगों के कश्मीर में आकर बसने और जमीन खरीदने का मौका देने का जश्न शुरू हुआ था, कि भारत सरकार को उत्तर पूर्व के 8 राज्यों को इसे लेकर सफाई देना पड़ रही है, कि उनके विशेष प्रावधानों को नहीं छीना जाएगा. वहीं, आसाम में एन आर सी पर सारे देश में छाती पीटने एवं सीएबी बिल की धर्म आधारित राजनीति (Religion based politics) करने के बाद, अब उत्तर पूर्व के राज्यों को भरोसा दिला रहे हैं कि उनकी डेमोग्राफी नहीं बदली जाएगी; उत्तर पूर्व राज्यों से राज्यों को भारत सरकार की मंशा पर शंका होने की शुरूआत हो गई है.
8 सितम्बर को गुवाहटी में पूर्वोत्तर परिषद के 68 वें पूर्ण सत्र में मौजूद उत्तर पूर्वी राज्यों के सभी गवर्नर एवं मुख्यमंत्रीयों की मौजूदगी में आख़िरकार भारत सरकार के प्रतिनिधि के रूप में गृह मंत्री को यह सफाई देना पड़ी कि अनुच्छेद 371 को नहीं छेड़ा जाएगा. हालांकि, उन्होंने इसका ठीकरा विपक्ष पर फोड़ते हुए यह आरोप लगाया कि जब से अनुच्छेद 370 के कुछ प्रावधानों को हटाया गया है, तब से विपक्ष यह भ्रम फैला रहा कि 370 की तरह 371 भी एक दिन हटाई जाएगी. उनका कहना है: विपक्ष, खासकर कांग्रेस यह नारा दे रही है, “अभी 370, कल 371.
इतना ही नहीं, इसके बाद, 9 सितम्बर को वहीं आयोजित भाजपा के अपने नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायन्स के चौथे सम्मेलन में उत्तर पूर्व राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने सिटीजन अमेंडमेंट बिल को लेकर भी अपनी शंका जताई. उनका कहना था, इससे उनकी पूरी डेमोग्राफी ही बदल जाएगी. इसके अलावा, इनमे से कुछ राज्यों में इनर लाइन परमिट एवं कहीं परमानेंट रेजीडेंसी का कानून है, उस पर भी असर पढ़ेगा. अमित शाह ने उन्हें भरोसा दिलवाया कि ऐसा कुछ नहीं होगा. उन्होंने इस पर उनके साथ बंद कमरे में मीटिंग भी की.
यह कैसी विडंबना है कि 370 के साथ 35 ए को हटाने के पीछे जो यह एक तर्क था कि शेष भारत के बाकी हिस्से से आकर कश्मीर में आकर बसने और व्यापार कर सकेंगे और जमीन खरीद सकेंगे, वहीं अमित शाह उत्तर पूर्व राज्य के मुख्यमंत्रीयों से कुछ और कह रहे हैं.
जिस तरह से और जिस आधार पर उन्होंने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाई और उसे तीन हिस्सों में तोड़ दिया और उसका दर्जा भी राज्य से गिराकर एक केंद्र शासित प्रदेश का कर दिया गया, कल वो उसी तर्क के आधार पर उत्तर पूर्व के बाकी राज्यों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करेंगे, इसकी क्या गारंटी है? उन्हें मालूम है कि जहाँ अनुच्छेद 370 एवं 35 अ कश्मीर के भारत गणराज्य में शामिल होने की एक तरह की लिखित संधि के अनुपालन में संविधान के मूल ढाँचे में शामिल था. भले ही उसे अस्थाई नाम दिया गया था, लेकिन उसे बदलने के लिए कश्मीर की संविधान सभा की मंजूरी जरुरी थी. वहीं धारा 371 ए-एच एवं जे तो संविधान संशोधन के तहत जोड़े गए थे, जो भारत के बहुसंख्यक राजनीति के लिए कभी भी हटाए जा सकते हैं. जो सरकार संविधान के मूल हिस्से और संधि के वायदे को इस तरह से नकार सकती है, वो उनके साथ ऐसा नहीं करेंगे यह विश्वास वो कैसे और क्यों कर ले?
लगता है, या तो अमित शाह ने अपने स्कूल के समय में बाबा भारती और डाकू खड़क सिंह की कहानी नहीं पढ़ी या, वो उसे भूल गए. अगर पढ़ी होती, तो उन्हें इस तरह से सफाई नहीं देना पड़ती.
इस कहानी में जीत से बड़ी चीज थी इंसान का एक दूसरे पर विश्वास कायम रखना. “हार की जीत” नामक इस कहानी में बाबा भारती, उनके घोड़े सुलतान एवं डाकू खड़क सिंह नाम के तीन पात्र हैं.
“हार की जीत” कहानी का सारांश
उस कहानी का सारांश इस तरह है: एक गाँव में एक साधु रहता था, जिनका नाम बाबा भारती था. उन्होंने एक घोड़ी के बच्चे को पाला था, जो बड़ा होकर शानदार घोड़ा, सुलतान बन गया. अनेक लोगों की तरह डाकू खड़क सिंह भी उसे खरीदना चाहता था, लेकिन बाबा उसे बेचने को तैयार नहीं थे; वो घोड़ा उनके लिए सिर्फ एक जानवर नहीं, उनके अपने अहसास का हिस्सा था. खड़क सिंह जब उनके आश्रम में उसे देखने जाता है तो उन्हें कहता है: यह घोड़ा आपके किस काम का, मुझे दे दो. और उनके मना करने पर हर हाल में घोड़ा हासिल करने की चेतावनी देकर चला जाता है.
बाबा घोड़े की निगरानी बड़ा देते हैं. जब लम्बे समय तक कुछ नहीं होता है, तो बाबा को लगता है कि शायद खड़क सिंह ने अपना इरादा बदल दिया है, और वो निश्चिंत हो जाते हैं. एक दिन वो उस घोड़े पर सवार होकर किसी दूसरे गाँव में जा रहे थे. रास्ते में उन्हें एक बहुत बीमार व्यक्ति दिखता है. उसके निवेदन पर वो उसे घोड़े पर बिठा देते हैं और खुद पैदल चलने लगते हैं. लेकिन, घोड़े पर बैठने के थोड़ी देर बाद ही, वो व्यक्ति बाबा से कहता है, मैंने कहा था ना कि यह घोड़ा लम्बे समय तक आपके पास नहीं रहेगा. मैं डाकू खड़क सिंह हूँ, यह घोड़ा ले जा रहा हूँ. और वो उसे ही अपनी जीत मान लेता है.
इस पर बाबा उससे कहते हैं कि तुम घोड़ा तो ले जाओ, मगर किसी से इस घटना का जिक्र नहीं करना, वर्ना आगे से लोगों का अच्छाई पर से विश्वास उठ जाएगा. और कोई भी किसी मजबूर व्यक्ति की मदद करने से डरेगा.
खड़क सिंह उस समय तो वहां से चला जाता है, लेकिन वो बाबा के शब्दों से वो जीत कर भी हार का अनुभव कर रहा था. अंतत: वो उस घोड़े को वापस बाबा के अस्तबल में जाकर बाँध देता है. बाबा अस्तबल में उस घोड़े को वापस पाकर हार की इस जीत से हैरान हो जाते हैं.
अगर कोई अमित शाह को बाबा भारती और डाकू खड़क सिंह की कहानी याद दिला सके. तब उन्हें समझ आएगा कि उत्तर पूर्व राज्य की पार्टियाँ उनके साथ होते हुए भी उनपर शंका क्यों कर रही हैं। जहाँ पाकिस्तान धर्म के आधार पर बना, वहीं भारत को 565 रियासतों और अनेक जाति, धर्म, संस्कृति और 150 से ज्यादा वर्षो तक अंग्रेजों द्वारा शासित भू-भाग से भारत को एक धर्म निरपेक्ष संघीय ढांचे की व्यवस्था बनने में एक लम्बा सफ़र तय करना पड़ा. इसमें सबको साथ लाने के लिए उस समय के भारत सरकार के नुमाइन्दो ने सबके भरोसा को कायम रखने के लिए समय समय पर संविधान में अनेक विशेष प्रावधान किए. किस तरह से तात्कालीन सरकारों के मुखिया - नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी, के रूप में दिए गए भरोसे पर ना सिर्फ जम्मू-कश्मीर बल्कि कालान्तर में भी अनेक राज्य भारत के संघ का हिस्सा बने.
किसी को 370 के तहत विशेष रियायत दी, तो किसी को 371 के तहत, तो किसी को आरक्षण और किसी को विशेष क्षेत्र का दर्जा. जो कश्मीर के लोगों के साथ हुआ तथा, जिस सोच, जिस कारण और जिस तरह से अनुच्छेद 370 के विशेष प्रावधान को खत्म किया गया, उस तरह से 371 को भी खत्म किया जा सकता है यह शंका सबके मन में बनी रहना स्वाभाविक है. और सीमावर्ती राज्य एवं आतंकवाद के जिस डर के नाम पर जम्मू-कश्मीर एवं लद्दाख को तीन केंद्र शासित भागों में बांटा गया यह सब आधार तो उत्तर पूर्व के हर राज्य में भी लम्बे समय से मौजूद है.
अगर अमित शाह चाहते हैं कि कल कोई भी राज्य केंद्र यानी भारत सरकार की नियत पर शक ना करे और अपने आपको मुख्य भूमि के भारत के बहुसंख्यक लोगों की मांग के नीचे दबा हुआ महसूस ना करे, तो उन्हें बाबा भारती एवं डाकू खड़क सिंह वाली कहानी याद रखना होगा. और अगर वो इस कहानी के मर्म को समझें, तो यह अहसास कर पाएंगे कि, यहाँ बड़ा सवाल यह नहीं है कि हमारे “संघ” या पार्टी की सोच क्या है. या किसी और कि प्यारी चीज को वो किस तरह से देखना चाहता है. और उसे हर हाल में हासिल कर जीत का अनुभव महसूस करना चाहता है. बल्कि, यहाँ बड़ा सवाल भारतीय संघ पर सभी राज्यों के भरोसे का है. इसलिए उनकी जीत लोगों का भरोसा बनाए रखने में है. अगर ऐसा नहीं होता है तो इस जीत में भी उनकी हार है.
अगर वो इस जीत की हार को “हार की जीत” में बदलना चाहते हैं, और यह चाहते हैं कि देश के सभी राज्यों और लोगों में भारत सरकार पर भरोसा कायम रहे, तो फिर उन्हें जम्मू-कश्मीर के लोगों को अनुच्छेद 370 के प्रावधान पुन: देना होगा. अगर वो ऐसा करेंगे तो उन्हें भी इस कहानी की तरह अपनी इस हार में असली जीत दिखेगी. यह समय ही तय करेगा कि अमित शाह कब “हार की जीत” पर भरोसा कर राज्यों का भरोसा वापस जीतते हैं.
अनुराग मोदी
(लेखक कार्यकर्त्ता श्रमिक आदिवासी संगठन एवं समाजवादी जन परिषद हैं)