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सावरकर ने गाय को श्रद्धा का पात्र बनाने का विरोध किया था

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hastakshep
26 Mar 2015
लोकतंत्र को उम्रकैद

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Savarkar opposed making cow an object of reverence.

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हिन्दू राष्ट्र, गाय व मुसलमान

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(भाग-1)

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उच्च जातियों के हिन्दुओं और हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों का गाय के प्रति-एक पशु बतौर व हिन्दू राष्ट्र के प्रतीक बतौर-ढुलमुल रवैया रहा है। कभी वे गाय के प्रति बहुत श्रद्धावान हो जाते हैं, तो कभी उनकी श्रद्धा अचानक अदृश्य हो जाती है। हाल के कुछ वर्षों में, हिन्दू राष्ट्रवादियों ने गाय को एक पवित्र प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करना शुरू कर दिया है। और यह इसलिए नहीं कि सनातन धर्म की चमत्कृत कर देने वाली विविधता से परिपूर्ण धार्मिक-दार्शनिक ग्रंथ ऐसा कहते हैं, बल्कि इसलिए क्योंकि गाय, हिन्दुओं को लामबंद करने और मुसलमानों को खलनायक के रूप में प्रस्तुत करने के लिए अत्यंत उपयोगी है। ऐसा क्यों? क्योंकि मुसलमानों के गौमांस भक्षण पर कोई धार्मिक प्रतिबंध नहीं है और इस धर्म के मानने वालों का एक तबका मांस व मवेशियों के व्यापार में रत है। मुस्लिम शासकों और धार्मिक नेताओं का भी गाय के प्रति ढुलमुल रवैया रहा है। कभी उन्होंने हिन्दुओं के साथ शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की खातिर गौवध को प्रतिबंधित किया तो कभी अपने सांस्कृतिक अधिकारों और अपनी अलग पहचान पर जोर दिया।

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दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के प्रोफेसर डीएन झा की पुस्तक द मिथ ऑफ होली काऊ ( पवित्र गाय का मिथक ) कहती है कि प्राचीन भारत में न केवल गौमांस भक्षण आम था वरन् गाय की बलि भी दी जाती थी और कई अनुष्ठानों में गाय की बलि देना आवश्यक माना जाता था। कई ग्रंथों में इन्द्र भगवान द्वारा बलि दी गई गायों का मांस खाने की चर्चा है। चूंकि उस समय समाज, घुमंतु से कृषि-आधारित बन रहा था इसलिए मवेशियों का महत्व बढ़ता जा रहा था, विशेषकर बैलों और गायों का। मवेशी, संपत्ति के रूप में देखे जाने लगे थे जैसा कि ‘गोधन‘ शब्द से जाहिर है। शायद इसलिए, गाय की बलि पर प्रतिबंध लगाया गया और उस प्रतिबंध को प्रभावी बनाने के लिए उसे धार्मिक चोला पहना दिया गया। सातवीं से पांचवी सदी ईसा पूर्व के बीच लिखे गए ब्राह्मण ग्रंथों, जो कि वेदों पर टीकाएं हैं, में पहली बार गाय को पूज्यनीय बताया गया है।

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इसके बाद, भारत में बौद्ध और जैन धर्मों का उदय हुआ और सम्राट अशोक ने सभी पशुओं के प्रति दयाभाव को अपने राज्य की नीति का अंग बनाया। यहां तक कि उन्होंने जानवरों की चिकित्सा का प्रबंध तक किया और उनकी बलि पर प्रतिबंध लगा दिया, यद्यपि यह प्रतिबंध मवेशियों पर लागू नहीं था। कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र‘ में मवेशियों के वध को आम बताया गया है। इंडोनेशिया के बाली द्वीपसमूह के हिन्दू आज भी गौमांस खाते हैं। कुछ आदिवासी समुदायों में आज भी उत्सवों पर गाय की बलि चढ़ाई जाती है। कुछ दलित समुदायों को भी गौमांस से परहेज नहीं है। हिन्दुओं के गौमांस भक्षण पर पूर्ण प्रतिबंध, आठवीं सदी ईस्वी में लगाया गया, जब आदि शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत दर्शन का समाज में प्रभाव बढ़ा। बौद्ध धर्म-विरोधी प्रचार भी आठवीं सदी में अपने चरम पर पहुंचा, जब शंकर ने अपने मठों का ढांचा, बौद्ध संघों की तर्ज पर बनाया। ग्यारहवीं सदी तक उत्तर भारत में हिन्दू धर्म एक बार फिर छा गया, जैसा कि उस काल में रचित संस्कृत नाटक ‘प्रबोधचन्द्रोदय‘ से स्पष्ट है। इस नाटक में बौद्ध और जैन धर्म की हार का रूपक और विष्णु की आराधना है। तब तक उत्तर भारत के अधिकांश रहवासी शैव, वैष्णव या शक्त बन गए थे। 12वीं सदी के आते-आते, बौद्ध धर्मावलंबी केवल बौद्ध मठों तक सीमित रह गए और आगे चलकर, यद्यपि बौद्ध धर्म ने भारत के कृषक वर्ग के एक तबके को अपने प्रभाव में लिया, तथापि, तब तक बौद्ध धर्म एक विशिष्ट धार्मिक समुदाय के रूप में अपनी पहचान खो चुका था। वैष्णव, पशुबलि के विरोधी और शाकाहारी थे।

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मुसलमानों का ढुलमुल रवैया

wavering attitude of the Muslims

            मुस्लिम शासक और धार्मिक नेता, वर्चस्वशाली उच्च जाति के हिन्दुओं की भावनाओं का आदर करने और अपने सांस्कृतिक अधिकारों पर जोर देने के बीच झूलते रहे। मुगल बादशाह बाबर ने गौवध पर प्रतिबंध लगाया था और अपनी वसीयत में अपने पुत्र हुमांयू से भी इस प्रतिबंध को जारी रखने को कहा था। कम से कम तीन अन्य मुगल बादशाहों-अकबर, जहांगीर और अहमद शाह-ने भी गौवध प्रतिबंधित किया था। मैसूर के नवाब हैदरअली के राज्य में गौवध करने वाले के हाथ काट दिए जाते थे। असहयोग और खिलाफत आंदोलनों के दौरान गौवध लगभग बंद हो गया था क्योंकि कई मुस्लिम धार्मिक नेताओं ने इस आशय के फतवे जारी किए थे और अली बंधुओं ने गौमांस भक्षण के विरूद्ध अभियान चलाया था। महात्मा गांधी ने हिन्दुओं से खिलाफत आंदोलन का समर्थन करने की जो अपील की थी, उसके पीछे एक कारण यह भी था कि इसके बदले मुसलमान नेता गौमांस भक्षण के विरूद्ध प्रचार करेंगे। मुस्लिम धार्मिक नेताओं ने इस अहसान का बदला चुकाया और गौवध के खिलाफ अभियान शुरू किया। इससे देश में अभूतपूर्व हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित हुई और पूरे देश ने एक होकर अहिंसक रास्ते से ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ मोर्चा संभाला।

हाल में कई राज्यो द्वारा गौवध पर प्रतिबंध लगाने संबंधी कानून बनाए गए हैं। इनका विरोध गौमांस व्यापारी  व मांस उद्योग के श्रमिक कर रहे हैं। इनमें मुख्यतः कुरैशी मुसलमान हैं परंतु हिन्दू खटीक व अन्य गैर-मुसलमान भी यह व्यवसाय करते हैं। वे इस प्रतिबंध का विरोध मुख्यतः इसलिए कर रहे हैं क्योंकि इससे उनके व्यावसायिक हितों को नुकसान पहुंचेगा। फिक्की और सीआईआई यह चाहते हैं कि उद्योगों और व्यवसायों पर सरकार का नियंत्रण कम से कम हो। अगर ये छोटे व्यवसायी भी ऐसा ही चाहते हैं तो इसमें गलत क्या है? और यहां इस तथ्य को नहीं भुलाया जाना चाहिए कि मांस के व्यवसायियों में हिन्दू और मुसलमान दोनों शामिल हैं परंतु मीडिया केवल मुसलमानों के विरोध को महत्व दे रहा है और गैर-मुसलमानों द्वारा किए जा रहे विरोध का अपेक्षित प्रचार नहीं हो रहा है। गौवध पर प्रतिबंध और गौमांस के व्यवसाय के विनियमन को कई आधारों पर चुनौती दी जाती रही है, जिनमें से एक है संविधान के अनुच्छेद 19(1) द्वारा हर नागरिक को प्रदत्त ‘कोई भी वृत्ति, उपजीविका, व्यापार या कारोबार‘ करने का मौलिक अधिकार। इसके अतिरिक्त, अनुच्छेद 25, जो कि सभी नागरिकों को किसी भी धर्म को मानने और उसका आचरण करने की स्वतंत्रता देता है, के आधार पर भी इस प्रतिबंध को अनुचित बताया जाता रहा है। उच्चतम न्यायालय ने इस प्रतिबंध को इस आधार पर उचित ठहराया है कि यह जनहित (दुधारू व भारवाही पशुओं और पशुधन का संरक्षण) में है और यह व्यवसाय करने की स्वतंत्रता पर अनुचित प्रतिबंध नहीं है। धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के उल्लंघन के आधार पर चुनौती को यह कहकर खारिज कर दिया गया कि यद्यपि इस्लाम में गौमांस भक्षण की इजाजत है तथापि मुसलमानों के लिए गौमांस भक्षण अनिवार्य नहीं है।

गौवध संबंधी पुराने कानूनों का चरित्र मुख्यतः नियामक था और उनमें गौवध पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगाया था। इन कानूनों में गायों और दोनों लिंगों के बछड़ों के वध को प्रतिबंधित किया गया था परंतु राज्य सरकार द्वारा नियुक्त प्राधिकृत अधिकारी की इजाजत से, एक निश्चित आयु से ज्यादा के पशुओं का वध किया जा सकता था। इन कानूनों को शाकाहार-समर्थक नागरिकों ने इस आधार पर चुनौती दी थी कि वे राज्य के नीति निदेशक तत्वों में से एक, जिसमें ‘गायों, बछड़ों व अन्य दुधारू व भारवाही पशुओं के वध पर प्रतिबंध‘ लगाए जाने की बात कही गई है, का उल्लंघन हैं। उच्चतम न्यायालय ने मोहम्मद हमीद कुरैशी विरूद्ध बिहार राज्य प्रकरण में इस तर्क को इस आधार पर खारिज कर दिया कि एक निश्चित आयु के बाद, गौवंश की भारवाही पशु के रूप में उपयोगिता समाप्त हो जाती है और वे सीमित मात्रा में उपलब्ध चारे पर बोझ बन जाते हैं। अगर ये अनुपयोगी जानवर न रहें तो वह चारा दुधारू व भारवाही पशुओं को उपलब्ध हो सकता है। राज्यों ने अनुपयोगी हो चुके गौवंश के संरक्षण के लिए जो गौसदन बनाए थे, वे घोर अपर्याप्त थे। इस संबंध में दस्तावेजी सुबूतों के आधार पर न्यायालय ने कहा कि गौवध पर पूर्ण प्रतिबंध उचित नहीं ठहराया जा सकता और वह जनहित में नहीं है।

परंतु दूसरे दौर के गौवध-निषेध कानूनों में गौवध पर प्रतिबंध तो लगाया ही गया साथ ही, गौमांस खरीदने व उसका भक्षण करने वालों के लिए भी सजा का प्रावधान कर दिया गया। इस संबंध में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा बनाया गया कानून तो यहां तक कहता है कि गौमांस भंडारण करने व उसे पकाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले सामान, जिनमें फ्रिज और बर्तन तक शामिल हैं, को भी जब्त किया जा सकता है। अर्थात अब पुलिसवाला हमारे रसोईघर में घुस सकता है और अगर वहां गौमांस पाया गया या उसके भंडारण या पकाने का इंतजाम मिला, तो हमें जेल की सलाखों के पीछे सात साल काटने पड़ सकते हैं।  

गौवध व हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन

Cow dung and Hindu nationalist organization

            गौवध के संबंध में जिस तरह का ढुलमुल रवैया हिन्दू व मुस्लिम धार्मिक व राजनैतिक नेताओं का था, कुछ वैसा ही हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों का भी रहा है। हिन्दुत्व चिंतक वी. डी. सावरकर ने गाय को श्रद्धा का पात्र बनाने का विरोध किया था। उनका कहना था कि गाय एक पशु है, हमें उसके प्रति मानवीय दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और हिन्दुओं को करूणा व दयावश उसकी रक्षा करनी चाहिए। परंतु उनके लिए गाय किसी भी अन्य पशु के समान थी-न कम न ज्यादा। वे लिखते हैं

‘गाय और भैंस जैसे पशु और पीपल व बरगद जैसे वृक्ष, मानव के लिए उपयोगी हैं इसलिए हम उन्हें पसंद करते हैं और यहां तक कि हम उन्हें पूजा करने के काबिल मानते हैं और उनकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है परंतु केवल इसी अर्थ में। क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि अगर किन्हीं परिस्थितियों में, वह जानवर या वृक्ष मानवता के लिए समस्या का स्त्रोत बन जाए तब वह संरक्षण के काबिल नहीं रहेगा और उसे नष्ट करना, मानव व राष्ट्र हित में होगा और तब वह मानवीय व राष्ट्र धर्म बन जाएगा‘(समाज चित्र, समग्र सावरकर वांग्मय, खण्ड 2, पृष्ठ 678)।

सावरकर आगे लिखते हैं

‘‘...कोई भी खाद्य पदार्थ इसलिए खाने योग्य होता है क्योंकि वह हमारे लिए लाभदायक होता है परंतु किसी खाद्य पदार्थ को धर्म से जोड़ना, उसे ईश्वरीय दर्जा देना है। इस तरह की अंधविश्वासी मानसिकता से देश की बौद्धिकता नष्ट होती है‘

(1935, सावरकरांच्या गोष्ठी, समग्र सावरकर वांग्मय, खण्ड 2, पृष्ठ 559 )।

‘...जब गाय से मानवीय हितों की पूर्ति न होती हो या उससे मानवता शर्मसार होती हो, तब अतिवादी गौसंरक्षण को खारिज कर दिया जाना चाहिए...‘

(समग्र सावरकर वांग्मय, खण्ड 3, पृष्ठ 341)। ‘मैंने गाय की पूजा से जुड़े झूठे विचारों की निंदा इसलिए की ताकि गेंहू को भूंसे से अलग किया जा सके और गाय का संरक्षण बेहतर ढंग से हो सके‘

(1938, स्वातंत्रय वीर सावरकर, हिन्दू महासभा पर्व, पृष्ठ 143)।

खिलाफत आंदोलन के दौरान, जब मुसलमानों ने गौमांस भक्षण बंद कर दिया और गौवध का विरोध करने लगे तब सावरकर और हिन्दू राष्ट्रवादियों के लिए गाय वह मुद्दा न रही जिसका इस्तेमाल हिन्दुओं को एक करने और मुसलमानों को ‘दूसरा‘ या ‘अलग‘ बताने के लिए किया जा सके। परंतु सावरकर हिन्दुओं द्वारा गाय की पूजा करने का विरोध एक अन्य कारण से भी कर रहे थे। सावरकर लिखते हैं,

जिस वस्तु की हम पूजा करें, वह हमसे बेहतर व महान होनी चाहिए। उसी तरह, राष्ट्र का प्रतीक, राष्ट्र की वीरता, मेधा और महत्वाकांक्षा को जागृत करने वाला होना चाहिए और उसमें देश के निवासियों को महामानव बनाने की क्षमता होनी चाहिए। परंतु गाय, जिसका मनमाना शोषण होता है और जिसे लोग जब चाहे मारकर खा लेते हैं, वह तो हमारी वर्तमान कमजोर स्थिति का एकदम उपयुक्त प्रतीक है। पर कम से कम कल के हिन्दू राष्ट्र के निवासियों का तो ऐसा शर्मनाक प्रतीक नहीं होना चाहिए‘‘

(1936, क्ष-किरण, समग्र सावरकर वांग्मय, खण्ड 3, पृष्ठ 237)।

हिन्दुत्व का प्रतीक गाय नहीं बल्कि नृसिंह है। ईश्वर के गुण उसके आराधक में आ जाते हैं। गाय को ईश्वरीय मानकर उसकी पूजा करने से संपूर्ण हिन्दू राष्ट्र गाय जैसा दब्बू बन जाएगा, वह घास खाने लगेगा। अगर हमें अपने राष्ट्र से किसी पशु को जोड़ना ही है तो वह पशु सिंह होना चाहिए। एक लंबी छलांग लगाकर सिंह अपने पैने पंजों से जंगली हाथियों के सिर को चीर डालता है। हमें ऐसे नृसिंह की पूजा करनी चाहिए। नृसिंह के पैने पंजे न कि गाय के खुर, हिन्दुत्व की निशानी हैं,

(1935, क्ष-किरण, समग्र सावरकर वांग्मय, खण्ड 3, पृष्ठ 167)।

सावरकर की मान्यता थी कि हिन्दुओं द्वारा गाय की पूजा करने से वे जरूरत से ज्यादा विनम्र, दयालु व सभी प्राणियों को समान मानने वाले बन जाएंगे। जबकि सावरकर तो राष्ट्रवाद का हिन्दूकरण और हिन्दुओं का सैन्यीकरण करना चाहते थे।

(मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)

-इरफान इंजीनियर

March 26,2015 09:43

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