तीसरी दुनिया का प्रतीक - शंकर गुहा नियोगी

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hastakshep
15 Oct 2017
तीसरी दुनिया का प्रतीक - शंकर गुहा नियोगी

शंकर गुहा नियोगी एक प्रभावशाली नेता थे (Shankar Guha Niyogi was an influential leader) और उनका जीवन राजनीतिक उद्देश्यों से परिपूर्ण था। मुझे ऐसा लगता है कि मैं उनके बारे में लिखने के लिए सही व्यक्ति नहीं हूं लेकिन जब कुछ यादें मुझे परेशान करती हैं तब मुझे लगता है कि उनके बारे में लिखकर मैं बेहतर महसूस करूँगा।

1979 -80 का वक्त था जब मेरा मन मार्क्सवादी विचारधारा (Marxist ideology) से भर गया था और मैं मुख्यधारा के समाचार पत्र पत्रिकाओं के लिए कार्टून बना रहा था जबकि अब भी मैं जेएनयू में जर्मन स्टडीज स्कूल (German Studies School in JNU) में एक छात्र था। मैं अपने अंतर्द्वंदो और अपेक्षाओं से निपटने के लिए छटपटा रहा था।यह मेरे राजनैतिक चिंतन का ही परिणाम था। विभिन्न अवसरो पर राजनीतिक सक्रियता मेरे लिए ऊर्जा और राहत का स्रोत थी। यह वह समय था जब जोगिन जिसके साथ मैं आम राजनैतिक विषयों पर चर्चा करता था मुझे शंकर गुहा नियोगी से मिलाने ले गया। जिसके लिए मैं जीवन भर जोगिन का आभारी रहूँगा क्योंकि उसने मुझे एक ऐसे महान व्यक्तित्व के मिलवाया जिसने मुझे मेरी शक्तियों और कमजोरियों का अहसास कराया। हममें से अधिकांश लोग शायद ही युवावस्था में अपनी ताकत और कमजोरियों को स्पष्ट रूप से समझने में सक्षम होते है।

उस समय दिल्ली में नियोगी ज्यादा मशहूर नहीं थे, लेकिन मैं उन्हें एक महान राजनीतिक नेता के रूप में जानता था जिन्होंने छत्तीसगढ़ में दल्ली राजहरा के खान मजदूरों को संगठित किया था। ये वो युवा थे जो क्रांति की खोज कर रहे थे और यह महसूस करते थे कि परंपरागत लेफ्ट ऐसी उम्मीद का स्रोत नहीं होगा और उन्हें बाहरी प्रतीकों को देखने की हमेशा आवश्यकता थी। नियोगी को श्रमिक वर्ग के द्वारा क्रांति की आशा के रूप में देखा जाता था। मेरा करीबी दोस्त पॉल कुरियन जो पहले से ही नियोगी के साथ संपर्क में था वह मुझे छत्तीसगढ़ में नियोगी के काम के बारे में बताया करता था।

पॉल नियोगी के साथ जुड़कर छत्तीसगढ़ में खनिकों से संबंधित कुछ मुद्दों पर शोध करने की भी योजना बना रहा था।

यहाँ मैं थोड़ा रुककर यह बताना चाहता हूँ कि पॉल कुरियन जो कि एक असाधारण व्यक्तित्व का स्वामी था और नियोगी जो एक असाधारण नेता थे दोनों ही अब हमारे साथ नहीं हैं लेकिन मुझे यकीन है जो लोग इन को जानते थे वे मेरे शब्दों का सही अर्थ समझ पाएंगे क्योंकि कुछ बातें और यादें शब्दों की सीमा से परे होती हैं।

   जोगिन के साथ मैं ग्रीन पार्क एक्सटेंशन के एक छोटे से कमरे में गया, जहां नियोगी और उनके दोस्त अमित सेनगुप्ता (एचएमएस के ट्रेड यूनियन के सदस्य ) बैठे थे।

मैं नियोगी की सादगी देखकर आश्चर्यचकित हुआ और हम बात करने के लिए बैठ गए।

उन दिनों जेएनयू के अधिकांश छात्रों के लिए विचार-विमर्श का अर्थ विचारों से असहमत होना होता था और मैंने भी नियोगी के साथ बिल्कुल वैसा ही किया, जब मैंने उनका झुकाव स्टालिन के प्रति देखा।

थोड़े ही समय में, स्टालिन पर बहस बहुत गरम हो गई। दुर्भाग्य से ऐसा जेएनयू में हमारे बीच होने वाली चर्चाओं की वजह से था।

मैं स्तब्ध था कि नियोगी जैसा व्यक्ति जोसेफ स्टालिन का बचाव कैसे कर सकता है जो रूसी क्रांति के जनक, उनके परिजनों तथा अन्य हत्याओं लिए जिम्मेदार था।

नियोगी के साथ मेरा दूसरा मतभेद अर्द्ध सामंती और अर्ध औपनिवेशिक रूप में भारतीय राज्य की विशेषता पर आधारित था जो लगभग, सीपीआई (एमएल) के विश्लेषण के समान था।

यद्यपि नियोगी ने अपने राजनीतिक जीवन का लम्बा समय मुझे से मिलने से पहले भूमिगत हो कर बिताया था। वह पहले से ही इस प्रकार की राजनीति से अलग थे और उन्हें ‘वर्ग-शत्रु के विनाश’ की अवधारणा पर कोई विश्वास नहीं था, जिस में हिंसा की वकालत की गयी थी। अगर वह ऐसी अवधारणा पर विश्वास करते तो वह पहले ही आसानी से अपने हत्यारों को मार देते, लेकिन वो अच्छी तरह से जानते थे कि हिंसा का ऐसा कोई भी कार्य उनके अपने ही लोगों पर बड़े पैमाने पर हिंसा का कारण बन सकता है।

आज भी मैं स्टालिन पर उनसे असहमति रखता हूं, लेकिन मैं समझ सकता हूं कि भारतीय राज्य के विश्लेषण में सत्य का एक शक्तिशाली तत्व है यहां तक कि भारतीय राजनीति में सामन्तवादी ताकतों के द्वारा बड़ी राजनीतिक गतिविधियों का भी निर्धारण होता है।

अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस या जर्मनी का कोई व्यक्ति नेहरु के एक रैखिक पदानुक्रम नेहरू से इंदिरा, इंदिरा से राजीव फिर राजीव से सोनिया व राहुल की कभी कल्पना भी नहीं कर सकता। भारतीय राजनीति की तुलना यूरोपीय इतिहास के सामंती मानदंडों के साथ नहीं हो सकती। भारतीय राजनीति क्लास पॉलिटिक्स के अलावा सामंतवाद, पारिवारवाद, जातिवाद और परंपराओं का एक अनोखा मिश्रण है। भारतीय राज्य पूंजीवादी मानदंडों के अनुसार मूल्य या आर्थिक मूल्य का उपयोग नहीं करता है जो यहां हर समय हावी है लेकिन अन्य मानदण्ड है जो संबंधों को तय करते हैं।

नियोगी के साथ बहस में मैं सही था या गलत यह भी बेकार की बात है। मुझे इस बात का एहसास हुआ कि समझने की शक्ति हमसे किसी को भी अपमानजनक रूप में अपंग कर सकती है अगर हम वह समझ न रखते हो, खासकर राजनीतिक सोच के संदर्भ में।

इस बीच अमित, नियोगी के साथ मेरी बहस पर उग्र हो रहा था, वहीं नियोगी को पता था कि वह क्या चाहते थे उन्होंने कहा: देखो कॉमरेड यह सच है कि हमारी सोच में अंतर हैं और हमारे बीच कुछ मतभेद हो सकते हैं लेकिन क्या कोई ऐसा भी क्षेत्र हैं जहां हम एक साथ मिलकर काम कर सकते हैं?

उनका यह सवाल मुझे वास्तविकता के धरातल पर ले आया।

मैंने कहा: ‘आप मुझे बताइये आप नेता हैं मैं कोई नेता नहीं हूं।‘

तुरंत उन्होंने अपना एजेंडा आगे बढ़ाया। उन्होंने कहा : ‘मैं जानता हूं कि तुम एक अच्छे कार्टूनिस्ट हो और राजनीतिक रूप से प्रतिबद्ध व्यक्ति हो तो तुम हमारे संघर्ष के लिए कार्टून क्यों नहीं बनाते ?

ठीक है, लेकिन कब? ‘मैंने पूछा।

अभी, नेता ने कहा।

मैंने कहा कि मेरे पास कोई सामग्री नहीं है और मुझे कार्टून बनाने के लिए सोचने के साथ-साथ मुद्दों पर और अधिक चर्चा करनी होगी।

उन्होंने मुझसे पूछा कि पोस्टर बनाने के लिए तुम्हें कौन सी सामग्रियों की जरूरत है और उन्हें लाने के लिए अमित को भेज दिया।

हमने रात भर में पोस्टर समाप्त कर दिया और जब मैं लौट रहा था तब नियोगी की स्पष्ट छाप मुझ पर थी। वह एक ऐसे नेता थे जो किसी भी समय अपने आंदोलन के लिए अपने विरोधियों का भी इस्तेमाल कर सकते थे।

नियोगी के साथ यह बैठक मेरे लिए स्वयं की शक्तियों और कमजोरियों को एक व्यक्ति के रूप में समझने के लिए एक अनोखा अवसर था। मेरे मतभेदों के बावजूद मैं उनके प्रशसंकों में शामिल हो गया।

नियोगी के बारे में जो बात मुझे सब से ज्यादा आकर्षित करती थी वह थी उनकी ‘आर्गेनिक इन्टीलेक्चुल’ की खोज जिस अर्थ में ग्रासमी के द्वारा प्रयोग किया गया है।

नियोगी शायद मुझ से उम्र में 15 साल बड़े थे, लेकिन जब मैं उनसे मिला तब तक उन्होंने राजनीतिक जीवन का एक लंबा सफर तय कर लिया था और उनका अनुभव बहुत ज्यादा था जिससे मुझे यह अहसास हुआ कि मैं उनके सामने एक बच्चा था।

उनका बचपन बंगाल और असम में बीता उसके बाद वो अखिल भारतीय छात्र संघ के स्थानीय नेता बने फिर सीपीआई (एमएल) से जुड़े और उसके बाद भी विभिन्न क्षेत्रों में काम किया। साठ के दशक के दौरान उन्होंने भिलाई इस्पात संयंत्र में एक कुशल श्रमिक के रूप में काम किया। काम के साथ साथ उन्होंने अध्ययन भी किया और बीएससी की डिग्री प्राप्त की।

नियोगी और उनके सहयोगियों ने भी बेहतर काम की दशाओ के लिए बंद का आयोजन किया। जिस के बाद उन्हें काम से बाहर निकाल दिया गया। वह दुर्ग, बस्तर, बिलासपुर, रायगढ़, राजनांदगांव, सरगुजा, रायपुर सहित छत्तीसगढ़ के विभिन्न स्थानों में रहे। आपातकाल के दौरान उन्हें मीसा एक्ट के तहत गिरफ्तार किया गया था। जेल से बाहर आने के बाद दल्ली राजहरा के ठेका मजदूरों ने उनसे संपर्क किया जो अपने वार्षिक बोनस को बढ़ाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। जल्दी ही नियोगी उन मजदूरों के नेता चुन लिए गए और उन्होंने छत्तीसगढ़ खान श्रमिक संघ नामक संगठन का निर्माण किया। जब उन्होंने उस क्षेत्र में अपने ट्रेड यूनियन का काम शुरू किया तो मजदूरों को प्रति दिन साढ़े तीन रुपये पारिश्रमिक के रूप में मिलते थे और जब मैं उनसे मिला तब मजदूरों को प्रति दिन तीस रूपये मिलते थे लेकिन उन्होंने खुद को मजदूरी और बोनस के सामान्य ट्रेड यूनियन के काम के साथ सीमित नहीं किया। उन्होंने शहीदों की याद में श्रमिकों के लिये अस्पताल की स्थापना की। इस अस्पताल को मजदूरों के सहयोग से बनाया गया था। इस अस्पताल में डॉ विनायक सेन काम करते थे।

डॉ विनायक सेन से मैं पहली बार दल्ली राजहारा में अस्सी के दशक में मिला, तब मेरे साथ मेरा प्रिय मित्र और सहकर्मी और फिल्म निर्माता पी बाबूराज भी था। विनायक शांत स्वभाव के व्यक्ति थे और वह राजनीतिक मुद्दों पर श्रमिकों के साथ गहरी सहानुभूति रखते थे। मुझे लगा कि यह एक दुर्लभ व्यक्ति है जो मजदूरों के अस्पताल में प्रति माह पांच सौ रुपये में काम करता है, जबकि वह एक योग्य बाल रोग विशेषज्ञ है। यहां तक कि आदिवासी श्रमिक भी उस समय डॉ विनायक सेन की तुलना में अधिक पैसे कमाते थे। मुझे उस समय आश्चर्य हुआ जब उन्होंने मुझे उस पोस्टर के बारे में बताया जो मैंने नियोगी के साथ बहस के दौरान बनाया था। नियोगी ने उस पोस्टर के दस हजार प्रतियाँ छपवाई थी और उसका इस्तेमाल पूरी तरह से किया था। एक प्रति मुझे अस्पताल में मिली।

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जब हम बातचीत कर रहे थे इसी बीच यह खबर आई कि नियोगी को गिरफ्तार कर लिया गया है। नियोगी के लिए उनकी जिंदगी का मतलब दल्ली राजहारा से कहीं अधिक था। वह अन्य संघर्षों में भी सक्रिय थे। आधे घंटे के भीतर ही हम आदिवासियों को उनकी गिरफ्तारी का विरोध करते दूर पहाड़ियों से देख सकते थे। बिना किसी देरी के नियोगी की गिरफ्तारी के खिलाफ यह एक बड़ा विरोध प्रदर्शन था। इस घटना से नियोगी का महत्व स्पष्ट हो गया था।

खान श्रमिकों के लिए ट्रेड यूनियन का निर्माण करने के बाद भी नियोगी छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा (सीएमएम) के साथ काम करते रहे। यह संगठन इस क्षेत्र के व्यापक मुद्दों को उठाने और छत्तीसगढ़ ग्रामीण श्रमिक संघ के सहयोग के लिये बनाया गया था। नियोगी के समय में सभी संगठनों ने एक साथ मिलकर काम किया।

मैंने अनुभव किया नियोगी में असहमतियो को सहन करने की अदभुत क्षमता थी और जहां कहीं भी ज़रूरत हो वह अपने राजनैतिक विचारों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने में सक्षम थे। यह बात मुझे तब भी पता थी जब मैं उनके साथ बहस कर रहा था।

वह एक करिश्माई नेता थे उनका ये करिश्मा उनके विविध अनुभवो और उनकी सोच का परिणाम था। उन्होंने बस्तर के जंगलों में काम किया, दुर्ग में मछली पकड़ने और बेचने, केरी जुंगता में कृषि मजदूर के रूप में काम किया, राजनांदगांव में बकरिया चराते थे इसके अतिरिक्त और भी कई काम किये। साथ ही साथ राजनीति में भी सक्रिय रहे।

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नियोगी के जैसा कोई दूसरा व्यक्तित्व जिसके बारे में सोच पाता हूं वह हैं चे ग्वेरा जिससे मैं कभी नहीं मिला। चे ग्वेरा में भी इसी तरह की विविधता थी।

चे एक डॉक्टर, बैंकर, अर्थशास्त्री, कवि, लेखक, मंत्री, पुस्तक विक्रेता और रोमांटिक प्रेमी थे लेकिन वह एक अलग वर्ग से आते थे।

निओगी एक साधारण ट्रेड यूनियन नेता नहीं थे। मुझे हमेशा से मार्क्सवादी शब्दों में ‘डिक्लासिफिकेशन’ शब्द पर संदेह रहा है। किसी भी व्यक्ति के लिए उन अनुभवों, यादों और रिश्तों को भुला पाना आसान नहीं होता है जिसमें वो पला बढ़ा होता है हालांकि दुर्लभ मामलों में ऐसा होता है। इस देश में अधिकांश ट्रेड यूनियन नेता मध्यवर्ग से आते हैं और मुझे उनसे ऐसी किसी भी घोषणा की संभावना नहीं नज़र आती है। उनकी यही वर्ग शक्ति शायद मजदूर वर्ग और पूँजीवादी वर्ग के बीच समझौता करने के लिए उपयोगी है जो स्वयं श्रमिकों की तुलना में अधिक प्रभावी है शायद यही शक्ति है जो उन्हें क्रांति से बचाती है।

नियोगी अलग क्यों थे? सिर्फ इसलिए नहीं कि वह आदिवासी श्रमिकों के साथ रहते थे या एक आदिवासी महिला से विवाह किया था। वह स्वयं मजदूर वर्ग से आते थे। मजदूरों के अनुभवों को जानते थे लेकिन बौद्धिक रूप से वह मध्यम वर्ग के बुद्धिजीवियों के साथ संबंध बनाये रखने तथा उनके विरोधी उच्च मध्यम वर्ग की तुलना अधिक कुशल थे। उन्होंने अपनी अंतिम सांस तक क्रांति के इस आकर्षण को बनाए रखा और उनके दिमाग में एक नई राजनीति के लिए गहन अन्वेषण हमेशा चलता रहा।

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जब मैंने एक फ्रेमवर्क के साथ जन आंदोलनों के लिए फिल्म बनाने का काम शुरू किया तब मैंने एक स्थानीय आदिवासी नेता वीर नारायण सिंह, जिन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई लड़ी थी उन पर एक फिल्म बनाने के लिए नियोगी से संपर्क किया। नियोगी ने वीर नारायण सिंह की छवि को लोकप्रिय बना दिया था और बाद में छत्तीसगढ़ में वीर नारायण सिंह मुख्यधारा के प्रतीक बन गए। मैंने उनसे कहा कि अगर हर कार्यकर्ता एक रुपये का योगदान देता है तो मैं वीर नारायण सिंह पर एक ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म बना सकता हूं।

नियोगी की इस फ़िल्म में दिलचस्पी थी लेकिन जब यूनियन के बीच यह विषय चर्चा में आया तब दुर्भाग्य से श्रमिक अन्य जरूरी मुद्दों से जूझ रहे थे। ये बात अलग है कि कुछ राशि जमा हो चुकी थी लेकिन मुझे इस बात का एहसास हुआ कि ऐसे समय में जब अन्य लोगों को राजनीतिक आंदोलनों में एक फिल्म की संभावना नहीं दिखाई दे रही थी नियोगी के पास वो दूरदृष्टि थी।

उन्होंने खानों के मशीनीकरण के खिलाफ श्रमिकों के संघर्ष में चार्ली चैपलिन की ‘मॉडर्न टाइम्स’ फ़िल्म का इस्तेमाल किया। दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने अर्ध-मशीनीकरण का एक मॉडल प्रस्तावित किया जो न तो विस्थापन को प्रेरित करता था न ही उत्पादकता को प्रभावित करता था। पॉल कुरियन ने इन चर्चाओं में काफी योगदान दिया। अमृत चाची के साथ मिलकर पॉल ने उस समय इस मुद्दे पर अद्भुत शोध किया।

28 सितंबर 1991 को दुर्ग-भिलाई में शंकर गुहा नियोगी की उनके घर मे नींद में गोली मार कर हत्या कर दी गई।

नियोगी बहुत अच्छी तरह से जानते थे कि उन्हें कभी भी मार दिया जाएगा। वह अपना जीवन बचा सकते थे लेकिन उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता ने उन्हें ये अनुमति नहीं देती थी।

जब मैंने सुना कि नियोगी को मार डाला गया तब मैं नहीं रोया हालांकि मैं बहुत परेशान था। जल्दी ही मैंने एक ऑडियो टेप के बारे में सुना जिसमें उन्होंने मृत्यु से एक हफ्ते पहले अपनी आवाज़ टेप की थी। मुझे शब्द याद नहीं हैं लेकिन टेप का सार कुछ ऐसा था : मुझे पता है कि अगर मैं इस राजनीतिक मार्ग को जारी रखता हूँ तो मार दिया जाऊंगा और यदि मैं अपना रास्ता बदलता हूं तो वे मुझे छोड़ देंगे, लेकिन अगर मैं डर के कारण अपना रास्ता बदलता हूं तो मैं खुद की नज़रों में अपना सम्मान खो दूंगा इसलिए अगर मैं मारा जाता हूं तो मैं इन शब्दों को साझा करना चाहूंगा ……उन्हीं के शब्दों में : …

यह दुनिया सुंदर है और मैं निश्चित रूप से इस खूबसूरत दुनिया से प्यार करता हूं, लेकिन मेरा काम और मेरा कर्तव्य मेरे लिए महत्वपूर्ण है। मुझे उन जिम्मेदारीयो को पूरा करना होगा जिसे मैंने अपने हाथों में लिया है। ये लोग मुझे मार डालेंगे लेकिन मुझे पता है कि मुझे मारकर भी वो हमारे आंदोलन को खत्म नहीं कर पाएंगे।

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इस टेप को सुनने के बाद मैने खुद को रोता हुआ पाया। मैंने खुद से पूछा अगर मुझे अपनी राजनीति विचारधारा के कारण जीवन और मृत्यु के प्रश्न पर सोचना होगा तो मेरी प्रतिबद्धता कहां होगी?

एक अन्य अवसर जब मैंने खुद को इसी तरह रोता हुआ पाया जब सफदर हाशमी को मार दिया गया था।

सफदर और उनकी टीम फार्मास्युटिकल उद्योग के व्यवसायीकरण और शोषण पर बनी हमारी एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म “इन द नेम ऑफ मेडिसिन” के हिंदी अनुवाद पर काम कर रही थी। यह काम सुबह के चार बजे तक सेंडिट स्टूडियो में चल रहा था चूंकि सफदर की भाषा और आवाज़ अच्छी थी इसलिए ये फ़िल्म मूल अंग्रेजी संस्करण से बेहतर हो गई थी। वह स्टूडियो से बाहर आया और मुझे बताया आपकी फिल्म बेहद प्रासंगिक है लेकिन आपकी औद्योगिकीकरण और विकास की अवधारणा पर मेरे कुछ मतभेद है।

मैं अचानक उसके साथ चर्चा करने के लिए कूद पड़ा लेकिन उसने कहा कि उसे दोपहर में होने वाले नाटक की तैयारी करनी है और उसने चर्चा के लिए बाद में एक मीटिंग का अनुरोध किया। बारह घंटे बाद मैंने सुना कि वह मारा गया।

नियोगी की तरह सफदर भी स्वयं को बचा सकता था लेकिन उन्होंने दूसरों की रक्षा करने के लिए अपना जीवन छोड़ दिया। जब मैंने यह सुना तब मैं दिल्ली के ग्रीन पार्क में एक कब्र के पास गया और ज़ोर ज़ोर से रोने लगा पर मैं नहीं चाहता था कि दूसरों को मेरी आवाज़ सुनाई दे। अफसोस सफदर के साथ मेरी चर्चा अधूरी रह गयी।

शंकर गुहा नियोगी : नई आर्थिक नीति के पहले शहीद

रोना पृथ्वी को छूने की कला है। मैं सभी इंसानो को कभी-कभी इस महान औषधि के उपयोग की सलाह दूँगा। क्रोध और अहंकार को आकाश की दिशा में जाने चाहिये लेकिन दुर्भाग्य से, मनुष्य पक्षियों की तरह उड़ नहीं सकते इसलिये क्रोध और अहंकार को एक चरण के बाद या कही और ख़त्म हो जाना चाहिये। क्रोध और अहंकार हमें आँसू से भी ज्यादा दुख देते हैं हालांकि मैं अब भी अपने भीतर के क्रोध और अहंकार से निपटने की कोशिश कर रहा हूं लेकिन मैं खुद को भाग्यशाली मानता हूं कि नियोगी जैसे लोगों की यादों में मै आँसू बहा सकता हूँ।

नियोगी खनन के पर्यावरणीय प्रभाव के बारे में भलीभांति जानते थे लेकिन यह एक प्रकार का जाल था यहां हजारों श्रमिकों का एक समुदाय था जो मुख्य रूप से आदिवासी थे जो जीवित रहने के लिए मूंगफली का काम करते थे और ये काम उनके जीवन के लिए बहुत महत्वपूर्ण था। ग्रो वासु जो बिड़ला के मावर रेयॉन फैक्टरी में ट्रेड यूनियन के प्रतिबद्ध नेता है जिनकी इस मुद्दे पर गहरी पकड़ है।

नियोगी और ग्रो वासु में एक ही तरह का राजनीतिक झुकाव था। दोनों लगभग सीपीआई (एमएल) उन्मुख राजनीति से निकल कर आए थे और स्टालिन ने दोनों को ही प्रभावित किया था। हाल ही में जब मैं ग्रो वासु के साक्षात्कार के लिए गया उसने हमें बहुत ही अच्छा साक्षात्कार दिया। बाद में, जब मैं शॉट ले रहा था मैंने दीवार पर कुछ तस्वीरे देखी और मैंने अपने कैमरा पर्सन नीतू से दीवार का एक पैन शॉट को लेने के लिए कहा जब वह शॉट की तैयारी कर रही थी। मैंने उसे मार्क्स, एंजल्स और लेनिन की सारी तस्वीरें लेने और स्टालिन की तसवीर को छोड़ने के लिए कहा। ग्रो वासु ने ये सुना और थोड़ा सा परेशान हुआ। सौभाग्य से मैं ने स्टालिन पर ग्रो वासु के साथ कोई बहस नहीं छेड़ी।

कब्रिस्तान या श्मशान में तब्दील निजी अस्पतालों के शिकंजे से बचने के लिए मेहनतकशों के अपने अस्पताल जरूरी!

वासु एक ऐसा व्यक्ति है जिसने फर्जी मामले में अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता के लिए साढ़े सात साल जेल में बिताये और पुलिस की क्रूरता का सामना किया वह लगातार सामाजिक रूप से प्रासंगिक बना रहा। वह अब भी छतरियां बना कर बेचने का काम करते हैं। जब लोगों ने उन्हें आयोजन में बोलने के लिए आमंत्रित किया तो वह अपनी यात्रा का खर्च उठा पाने में भी सक्षम नहीं थे, जबकी इस तरह के आंदोलनों से वो सही मायने में विश्वास रखते है।

ये मेरी स्मृति का भाग हैं जो अब भी भावुक सामाजिक प्रतिबद्धता के इतिहास के अवशेष हैं तो यह बात मायने नहीं रखती कि वह एक स्टालिनिस्ट है?जो ट्रोट्स्की की तुलना में कहीं ज्यादा बेहतर है जो कुछ भी नहीं करता है। स्टालिन, ट्रॉट्स्की, माओ, मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, गांधी, अम्बेडकर, बुद्ध, यीशु मसीह, मोहम्मद नबी और कई अन्य व्यक्तित्व अब भी मेरे लिए आश्चर्य का विषय है और मेरी जिज्ञासा अभी भी उनके विचारों बनी हुई है।

ये व्यक्तित्व अब मेरे लिए गहरे विरोध का विषय नहीं हैं इनमें किसी पर भी मेरी मजबूत धारणा हो सकती है लेकिन ये अंतिम परिणाम नहीं हो सकता।ये लोग मर चुके हैं और इस दुनिया से चले गए हैं। यह हमारा कर्तव्य है कि हमारे जीवन के बाकी हिस्सों में उनके विचारों का प्रयोग मानवता के लिये करें।

भारतमाता का दुर्गावतार नस्ली मनुस्मृति राष्ट्रवाद का प्रतीक है तो महिषासुर वध आदिवासी भूगोल का सच

अंत में, आपकी राजनीतिक प्रासंगिकता इस पर निर्भर करती है कि आपने इतिहास में क्या किया हैं?आपके विचार आपके अहंकार को और बढ़ा देते है जब आप उसे किसी के अन्य साथ साझा करते है लेकिन विचारों की भी अपनी एक सामाजिक, व्यक्तिगत, व्यावहारिक और राजनीतिक प्रक्रिया होती है जिस से वो दूसरो को प्रभावित कर पाए और जब तक कि ये विचार अन्य लोगों तक नहीं पहुंच जाते आपके विचार केवल सोच और पढ़ने में की गई ऊर्जा की बर्बादी हैं।

विचार और कर्म की केवल पूरक और अन्योन्याश्रित श्रेणियां हो सकती हैं। जो भी व्यक्ति इनमें से किसी एक की अनदेखी करके किसी एक को पीछे छोड़ देता है, वह अपने जीवन में शरीर और मन के बीच ही एक संघर्ष में रहता है। ऐसे संघर्ष से बचने के लिए, शंकर गुहा नियोगी जैसे कई महान आत्माओं को गहराई से समझने की आवश्यकता है। चाहे हम उन्हें पसंद करें या नहीं।

छत्तीसगढ़ में ज्यादातर आदिवासी अब भी उपरोक्त व्यक्तित्वों में से किसी को भी नहीं पढ़ सकते हैं लेकिन नियोगी आज भी कई लोगों के जीवन में प्रेरणा के रूप में मौजूद हैं क्योंकि नियोगी ने अपना सारा जीवन उन्हें आगे बढ़ाने का प्रयास किया और वे आज भी नियोगी की यादों के साथ आगे बढ़ रहे हैं।

के.पी. शशि

{अनुवाद नताशा खान (लॉ स्टूडेंट,छत्तीसगढ़)}

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{ This article by K P Sasi (K.P Sasi is a film maker, writer, activist and cartoonist) originally published in Countercurrents.org. http://www.countercurrents.org/2017/10/09/shankar-guha-niyogi-an-inspiration-of-the-third-kind/ }

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