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Brief by outline the historical background of murder in the cathedral.
मर्डर इन द कैथेड्रल (Review of Murder in the Cathedral in Hindi) गीति नाट्य विधा (opera) में लिखी गयी अंग्रेज कवि और आलोचक नोबेल पुरस्कार विजेता टीएस इलियट (play by American English poet T.S. Eliot) की अत्यंत प्रासंगिक कृति है।
रवीन्द नाथ टैगोर ने भी चंडालिका, श्यामा, रक्तकरबी, शाप मोचन जैसे गीति नाट्य लिखे हैं और उनका मंचन भी बेहद लोकप्रिय हैं। लेकिन गीतांजलि के मुकाबले रवींद्र की दूसरी रचनाओं की तरह उनके गीति नाट्य (opera of Rabindranath tagore) पर बंगाल में चर्चा जरूर हुई है किंतु बाकी देश में यह चर्चा कभी प्रासंगिक नहीं बन सकी।
कल हमने टुवेल्फ्थ नाइट के जरिये लोक धर्म पर्व टुवेल्फ्थ नाइट की प्रासंगिकता पर चर्चा की दो कारणों से। पहला तो यह कि अमेरिका की भावभूमि में जो नई दुनिया बनी और बन रही है, महारानी एलिजाबेथ के स्वर्णकाल के आगे पीछे सबकुछ सुधारो अभियान के तहत चले प्यूरिटन उसकी वास्तविक कोख है।
यह आंदोलन लेकिन चर्च के दैविकी धर्म सत्ता के खिलाफ कैथोलिक धर्म को बदलने की मुहिम थी, जिसमें इंग्लेंड में भारी रक्तपात हुए।
Three priests murdered in the cathedral
इसी की अगली कड़ी मर्डर इन द कैथेड्रल है और हमारे अत्यंत प्रिय कवि टीएस इलियट ने अपना गीति नाट्य 1170 में कैंटरबरी कैथेड्राल में हुई आर्क विशप थामस बैकेट की कथा पर लिखी तो असहिष्णुता के तूफान से वे भी नहीं बचे।
उन्हें भी सत्ता की इच्छा मुताबिक इस बेहद प्रासंगिक गीति नाट्य में काटछां-ट करनी पड़ी तो इलियट भी कोई कच्चे खिलाड़ी न थे, उनने उस छांटे गये अंश पर जला हुआ वतन, बर्न्ट नार्टन लिख दे मारा।
क्यों लिखा गया मर्डर इन द कैथेड्रल - Murder in the cathedral summary spark notes
कैंटरबुरी कैथेड्राल में आर्कविशप की जो हत्या हुई (Archvishops who were killed in Canterbury cathedral) और फासीवाद के शिशुकाल में जो इलियट ने इसे गीति नाट्य बना दिया, उसे समझने के लिए प्रार्थना सभा में राम नाम जाप रहे असल हिंदू धर्म के सबसे बड़े धार्मिक नेता की हत्या और आज भी हत्यारे के भव्य राममंदिर की कथा समझने के लिए कैथेड्राल में आर्कविशप की हत्या की इस क्लासिक कथा पर चर्चा बेहद जरूरी है।
Murder in the cathedral criticism
अकादमिक चर्चा जो शायद छात्रों के लिए बेहद काम की चीज हो और इसके साथ ही इस हत्या के समांतर गांधी हत्या का आंखों देखा हाल और नाटक का मंचन भी मूल टेक्स्ट के साथ शामिल करेंगे।
सुनते रहे हमारे प्रवचन मोक्ष के लिए और मुक्ति मार्ग पर कदम मजबूती के साथ बिना इधर उधर भटके, तेज तेज चलें इसके लिए पढ़ते रहें हस्तक्षेप।
इस प्रस्तावना के साथ मूल चर्चा विजुअल ही होगी।
संदर्भ मूल अंग्रेजी में इस आलेख के साथ नत्थी होंगे।
टुवेल्फ्थ नाइट में शेक्सपीअर के ड्रेजेडी नाटकों में मानवीय त्रासदी और उसके कारकों की निर्मम चीरफाड़ और सामाजिक यथार्थ का जो सटीक सौंदर्यबोध है, उसके मुकाबले में उनके कामेडी नाटकों में त्रासदी और कामेडी का प्रचंड समन्वय है जो चेतना को हिलाकर रख देता है और हमेशा मनुष्यता, सत्य और विवेक की जयजयकार होती है।
शेक्सपियर के चार ग्रेट ट्रेजेडी नाटकों (Four Great Tragedy Plays of Shakespeare) में कार्ल मार्क्स और ऐंजेल्स के वर्ग संघर्ष के प्रतिपादित होने से काफी पहले रानी एलिजाबेथ के स्वर्णकाल में भी वर्गचेतना का मुख्य स्वर है। जैसे हैमलेट में नायिका ओफेलिया के भाई लेयरटिस की मुखर वर्गचेतना। कामेडी टेंपेस्ट में गुलाम कैलिबान के माध्यम से वह धुंआदार बवंडर है। हम इन पर चर्चा करते रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे।
यूं समझ लें कि टुवेल्थ नाइट होली जैसा त्योहार है जो एक ओर लोकपर्व है तो दूसरी ओर धर्म भी है। इस मौके पर प्रैक्टिकल जोक की जो छूट भारतीय महादेश की लोक देशज परंपरा है, वहीं इस पर्व की खासियत है। शेक्सपीअर ने इसकी खुली छूट लेकर प्यूरिटन सुनामी का मुकाबला करने की हिम्मत दिखा दी और असहिष्णुता की जो शिकायत अब हम कर रहे हैं, वहा शेक्सपीअर की हत्या नहीं हुई जबकि वे कैथलिक धर्म के पुजारियों की चुन चुनकर निर्मम हत्या कर रहे थे।
प्यूरिटन आंदोलन (Puritan movement) पर प्रहार शेक्सपीअर ने नायिका काउंटेस के सेवक मेलवोलियो के विचित्र चरित्र के मार्फत किया है जो सब कुछ बदल देने का दिवास्वप्न देखता है और खुद को शुद्धतावादी घोषित करता है और उसकी खुशफहमी यह कि उसकी मालकिन को उसी से प्रेम है।
आगे शायद व्याख्या की जरूरत नहीं है कि प्रसंग क्या है और संदर्भ क्या है। अमेरिका मार्फत नई दुनिया की रचना इ्न्हीं सुधारों, संशोधन आंदोलन के मार्फत हुआ तो हमने अपने वीडियो टाक में थीमसांग पिया गये रंगून ही चुना और संसद में संविधान अतंरसत्र, संविधान दिवस और भारतीय परिदृश्य में सुधार कार्यक्रम के नजारे के साथ लाइव संसद और अंबेडकर की स्मृति चर्चा के क्लीपिंग भी दिये हैं।
कल वीडियो टाक में हमने प्यूरिटन गिफ्ट के जरिये अमेरिका की रचना पर फोकस भी किया है और असहिष्णुता के मौजूदा माहौल और धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद पर फोकस भी किया है। मैलेवियो हमारे आसोपास नेतृत्व और सत्ता में हैं वे शुद्धता वादी भी हैं लेकिन वे धर्म की सत्ता, राजनीतिक वंशवर्चस्व के मनुस्मृति शासन और आर्थिक सत्ता के खिलाफ खामोश ही नहीं हैं, बल्कि उन्हें बहाल रखने के लिए किसी की भी हत्या करने को तैयार हैं।
इस वीडियो में हमने मैलेवियो के ओकुपाई ग्लोबल आर्डर अभियान और एजंडा का भी खुलासा किया है। नाटक का मंचन शामिल किया है और हर चीज, हर व्यक्ति से घृणा करने वाले मैलेवियो के दिवास्वप्न और आत्मरति से संबंधित नाटक के पूरे दो दृश्य भी डाले हैं।
भारत में असहिष्णुता कोई नई चीज नहीं है जो इंग्लैंड के स्वर्णकाल के 16 वीं सदी और सत्रहवीं सदी में घटित हुई, वह अब घनघटा है और यह हमारी औपनिवेश विरासत है, फिर हम उसी अमेरिका के उपनिवेश बने हुए हैं, जिसकी रचना शुद्धतावादी सुधार कार्यक्रम प्यूरिटन आंदोलन की कोख से हुआ।
खास बात यह है कि इलियट के पहले 19वीं शती में अंग्रेजी में जिस रोमैंटिक समीक्षा का प्रचलन था वह कवि की वैयक्तिकता और कल्पनाशीलता को विशेष महत्त्व देता थी। 19वीं शती के अंतिम चरण में वाल्टरपेटर और ऑस्कर वाइल्ड ने ‘कलावाद’ को अत्यधिक महत्त्व दिया। अर्थात् 19वीं शती की अंग्रेजी समीक्षा कृति के स्थान पर कवि और उसकी वैयक्तिकता को महत्त्व देती थी।
गौरतलब है कि स्वछंदतावादी विद्वान कवि की प्रतिभा और अंतःप्रेरणा को ही काव्य-सृजन का मूल मानकर प्रतिभा को दैवी गुण स्वीकार करते थे। इसे ही ‘वैयक्तिक काव्य सिद्धांत’ कहा गया।
इस मान्यता को इलियट ने अपने निबंध ‘परंपरा और वैयक्तिक प्रज्ञा’ में स्वीकार किया और कहा ‘‘परंपरा के अभाव में कवि छाया मात्र है और उसका कोई अस्तित्व नहीं होता।’’
उनके अनुसार, ‘‘परंपरा अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण वस्तु है, परंपरा को छोड़ देने से हम वर्तमान को भी छोड़ बैठेंगे। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि परंपरा के भीतर ही कवि की वैयक्तिक प्रज्ञा की सार्थकता मान्य होनी चाहिए।
मर्डर इन द कैथेड्रल में उसी परंपरा की गूंज अनुगूंज है।
नाटक जो लिखा इलियट ने वह काल्पनिक नहीं है, इतिहास है।
पलाश विश्वास
(पलाश जी का यह आलेख “इतिहास लहूलुहान, पन्ना दर पन्ना खून का सैलाब! लहुलुहान फिजां है लहुलुहान स्वतंत्रता लहुलुहान संप्रभुता लहूलुहान” हस्तक्षेप मूलतः 28 नवंबर 2015 को प्रकाशित हुआ। हस्तक्षेप के पाठकों के लिए पुनर्प्रकाशन)