यह सितम्बर के गीला-सीला दिन..
फ़लक को भरमाये..
बादलों की पोटली में कुछ-कुछ धूप लटकाये...
शाम को ढलकर..
हौले-हौले चलकर..
जब क्षितिज की ड्योढ़ी पर पसरता है..
बालों से बारिशें झटकती..
साँझ को..
बड़ा अखरता है...
सुरमई बादलो की धुँध पर उँगलियाँ चलाकर...
गुलाबी सर्दियों के गुनगुने क़िस्से सुनाकर..
जब-जब आह भरें..
तब तब साँझ की त्योरियाँ चढ़ें...
नहीं सुहाता निगोड़े दिन का बेढंगा ढंग..
नीला..पीला..पल-पल बदले..चढ़े-उतरे..रंग..
यूँ सर्दियों की सिफ़ते कचोट लेती है...
शफ़क की शक्ल के गुलाबी रंग को...
इक..
बदली..
ओट लेती है....
मगरिब के हिस्से हैं..
ये रोज के क़िस्से है...
साँझ का कुढ़-कुढ़ स्याह रात हो जाना..
गुस्साये दिन का इक अंधी ओट में सो जाना....
फ़लक पर ये तमाशा दिशाओं को खटकता है..
सुलह की कोशिशों में रात भर इक चाँद भटकता है.....
किस तरकीब से कौन बहले ..
कौन समझे दोनों में पहले ...
इक सदी से अंधी रात घोटे काले स्याह फ़र्रे ....
मगर इन तमाम पचड़ों से दूर...
घूमें है ज़मीं..
गुप चुप..गुप चुप सूरज के ढर्रे.....
डॉ. कविता अरोरा