The country is moving on a dangerous path
देश खतरनाक रास्ते पर बढ़ रहा है। उसके संकेत भी मिलने शुरू हो गए हैं।
पश्चिम बंगाल में सेना की तैनाती (Army deployment in West Bengal) की घटना सामान्य नहीं है। जहां बगैर राज्य सरकार की इजाजत के उसे उतारा गया।
यह महज इत्तफाक नहीं है कि ममता बनर्जी की प्लेन को ईंधन कम होने के बावजूद कोलकाता एयरपोर्ट पर उतरने की इजाजत नहीं दी गई। फिर उसके दूसरे दिन सेना की यह घटना सामने आयी। जिसके विरोध में ममता ने एक पूरी रात और अगला पूरा दिन राइटर्स बिल्डिंग यानी सचिवालय में गुजारा।
सेना को केवल और केवल सरहदों के लिए बनाया गया है और उसका प्रशिक्षण भी दुश्मन से निपटने के लिए होता है। किसी प्राकृतिक आपदा या फिर दंगों के समय बहुत मजबूरी में ही उसे देश के भीतर इस्तेमाल किया जाता है।
What is the process of deploying the army in the states?
राज्यों में सेना की तैनाती की प्रक्रिया आखिरकार क्या है?
सच यह है कि कानून-व्यवस्था का मामला केवल और केवल राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है। उसमें न तो केंद्र सरकार, न सेना और न ही कोई दूसरी एजेंसी हस्तक्षेप कर सकती है। यह तभी संभव है जब राज्य के हालात ठीक न हों। या फिर वहां संवैधानिक संकट खड़ा हो गया हो। या कोई आपातकालीन स्थिति हो।
सामान्य परिस्थितियों में सेना या किसी को भी काम करने के लिए संबंधित राज्य सरकार की इजाजत लेनी होती है। इसका फैसला भी प्रशासन के स्तर पर नहीं बल्कि सरकारों के बीच बातचीत के जरिये लिया जाता है।
इस मामले में भी बड़ी चूक दिखती है।
सबसे पहले तो यह फैसला केंद्र और राज्य सरकारों के बीच बातचीत के जरिये नहीं लिया गया।
दूसरे स्थानीय पुलिस और सामान्य प्रशासन ने भी कोई लिखित इजाजत नहीं दी। बल्कि अपना एतराज जताया था।
यह बात सही है कि दोनों पक्षों के बीच पत्रों का आदान-प्रदान जरूर हुआ लेकिन उसमें बंगाल पुलिस-प्रशासन का कोई भी पत्र हरी झंडी का नहीं है।
ऐसे में सेना को किस अधिकार पर टोलप्लाजा समेत सूबे की 18 जगहों पर सर्वे की इजाजत मिल गयी? और सचिवालय से बिल्कुल सटे नबन्ना चौराहे पर उसे जाने दिया गया।
सेना का कहना है कि यह रूटीन प्रक्रिया थी। जिसे उसने 2015 और उसके बाद कई सूबों में अंजाम दिया है।
ऐसे में सवाल यह बनता है कि ये कार्यवाही इसके पहले की सरकारों के दौरान क्यों नहीं हुई? और अगर इस दौरान हो रहा है तो उसके लिए संवैधानिक नियमों और कानूनों का पालन क्यों नहीं किया जा रहा है?
केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार के गठन के बाद बात-बात में सेना का हवाला दिया जाता है। नोटबंदी का यह दौर भी इससे अछूता नहीं है।
कतार में खड़े लोगों के गुस्से को शांत करना हो तो सरहदों पर खड़े सैनिकों की याद दिला दी जाती है। यहां तक कि नोटों की गड्डियों की ढुलाई भी वायुसेना के विमानों से की जा रही है।
क्या सरकार के पास अपने सिविलियन माल वाहक विमान नहीं हैं। जिसके चलते सेना की मदद लेनी पड़ रही है।
इस बीच बंगाल की घटना सामने है।
सेना को देश में पवित्र गाय का स्थान देना उचित नहीं है।
दरअसल सरकार ‘हिंदुओं के सैन्यीकरण और सैनिकों के हिंदूकरण’ के रास्ते पर बढ़ रही है। यह बीजेपी की पितृ संस्था आरएसएस का नीतिवाक्य है।
अगर ये सिलसिला आगे बढ़ा तो इसके खतरनाक नतीजों को समझना कठिन नहीं है।
यह कुछ और नहीं बल्कि एक तरफ देश को दंगों की आग में झोंककर उसे मजहबी आधार पर बांटने की साजिश है।
दूसरी तरफ सेना का सांप्रदायीकरण करने का लक्ष्य है।
दूसरे शब्दों में कहें तो ये राष्ट्र की जड़ों में मट्ठा डालने की कोशिश है। इसका पूरा खामियाजा समाज और उसकी जनता को भुगतना पड़ेगा।
अनायास नहीं संघ और उसकी जमात सोते, उठते और बैठते किसी न किसी बहाने सेना का जिक्र करती रहती है। मानो सेना न हुई गायत्री मंत्र हो गया।
शायद हम अभी इसके खतरे को नहीं समझ पा रहे हैं।
एकबारगी अगर सेना के मुंह में सत्ता का खून लग गया। तो फिर उसे आगे बढ़ने से रोक पाना मुश्किल हो जाएगा।
इसको एक दूसरे उदाहरण के जरिये समझा जा सकता है।
राजनीति के अपराधीकरण के मामले में भी यही हुआ था। पहले नेताओं ने अपने चुनाव को जीतने के लिए अपराधियों का सहारा लिया। एक वक्त के बाद जब अपराधियों को लगा कि अगर वो दूसरों को जिता सकते हैं तो खुद क्यों नहीं जीत सकते। लिहाजा नेताओं का दामन छोड़कर वो खुद मैदान में उतर गए।
नतीजा ये है कि अपराधियों ने राजनीति का गला पकड़ लिया है। आज संसद और विधानसभाएं उनसे भर गईं हैं।
ऐसे में अगर नागरिक समाज में सेना का दखल बढ़ा और सत्ता से लेकर समाज तक में उनकी भूमिका को तवज्जो दी जाने लगी। तो समय तक भले ये अच्छा लगे। लेकिन ये रास्ता सैनिक तानाशाही की तरफ जाता है। देश के एक दूसरा पाकिस्तान बनने का खतरा सामने है।
महेंद्र मिश्र
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