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इक़बाल की शायरी में धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता के गहरे अंतर्विरोध

इकबाल की कविता का तीसरा दौर 1908 में विलायत से लौटने से लेकर उनकी मृत्युपर्यन्त 1938 तक फैला हुआ है। इस दौर में इकबाल पूरी तरह साम्प्रदायिक रंग में रंगे नजर आते हैं।

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अल्लामा इकबाल

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अल्लामा इक़बाल की शायरी में धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता के गहरे अंतर्विरोध The deep contradiction of secularism and communalism in the poetry of Allama Iqbal

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अल्लामा इक़बाल (Allama Iqbal) उर्दू के प्रमुख शायरों में से एक हैं। उनकी शायरी में धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता के गहरे अंतर्विरोध मिलते हैं। ये अंतर्विरोध इस बात का संकेत है कि एक लेखक के अंदर में वैचारिक पराभव की प्रक्रिया कभी भी पैदा हो सकती है यदि वो धर्मनिरपेक्ष राजनीति के प्रति वफादार न हो। इक़बाल की कविता में एक अच्छा-खासा अंश है जो धर्मनिरपेक्ष है,  लेकिन दूसरी ओर उनकी कविता पर मुस्लिम लीगी साम्प्रदायिक राजनीति का भी गहरा असर है।

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कहने का तात्पर्य है कि इकबाल जब प्रतिक्रियावादी राजनीति में खुलकर खेलने लगे तो इससे उनकी कविता सीधे प्रभावित हुई। उनकी साम्प्रदायिक राजनीति के रंग में रंगी कविताएं सबसे कमजोर कविताएं हैं, जबकि उनकी आरंभिक दौर की कविताओं में धर्मनिरपेक्षता जमकर अभिव्यंजित हुई है।

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इक़बाल का जन्म 9 नवम्बर 1877 को स्यालकोट में (पंजाब,  अब पाक में है) हुआ। एम.ए. की परीक्षा में वे युनिवर्सिटी भर में अव्वल आए थे। शायरी का उनको स्कूली जीवन से ही शौक था। शायरी की बदौलत उनको जर्मन सरकार ने 'डॉक्टरेट' की उपाधि दी। भारत सरकार ने 'सर' की उपाधि दी। टैगोर के बाद वे ही भारत के अकेले ऐसे शायर थे जिनको इतनी ख्याति मिली। सन् 1905 में वे बैरिस्टरी की सनद लेने इंग्लैंड गए और वहाँ से 1908 में सफलता हासिल करके लौटे और लाहौर में वकालत आरंभ की।

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शायर के रूप में इकबाल 1899में जनता के सामने आए। इक़बाल की शायरी के तीन दौर हैं। पहला विलायत जाने से पूर्व 1899 से 1905 तक, दूसरा विलायत-प्रवास के दौरान 1905-1908 तक और तीसरा भारत आने पर 1908 से मृत्यु पर्यन्त।

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पहले दौर में इकबाल की शायरी में भारत ही भारत छाया हुआ है। भारत की जनता,  उसके हित, ईमान, हिन्दू-मुस्लिम प्रेम उनका मज़हब, स्वतंत्रता और संगठन पर केन्द्रित ढेरों कविताएं मिलती हैं। ये वे कविताएं हैं जो आज भी प्रसांगिक हैं। इस दौर की कविताओं में भारत की गूँज उन्हें बहुत दूर तक ले जाती। नमूना देखें-

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''यूनानियों को जिसने हैरान कर दिया था।

सारे जहाँ को जिसने इल्मो हुनर दिया था।।

मिट्टी को जिसकी हक़ने ज़र का असर दिया था।

तुर्कों का जिसने दामन हीरों से भर दिया था।।

मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है।।''

भारत में मज़हबी फंडामेंटलिज्म, गाय और बाजे पर हंगामा खड़े करने वाले, हलाल और झटका का सवाल खड़े करने वाले, मन्दिर और मस्जिद के पंगे खड़े करने वालों को सम्बोधित कविता में लिखा-

''सच कह दूँ ऐ बिरहमन गर तू बुरा न माने।

तेरे सनम कदों के बुत हो गये पुराने।।

अपनों से बैर रखना तू ने बुतों से सीखा।

जंग-ओ-जदल सिखाया वाइज़ को भी ख़ुदाने।।

तंग आके मैंने आख़िर दैरो हरम को छोड़ा।

वाइज़ का वाज़ छोड़ा,  छोड़े तेरे फ़िसाने।।

पत्थर की मूरतों में समझा है तू ख़ुदा है।

ख़ाके-वतन का मुझ को हर ज़र्रा देवता है।।

आ,  ग़ैरियत के पर्दे इक बार फिर उठा दें।

बिछड़ों को फिर मिला दें नक़्शे-दुई मिटा दें।।

सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती।

आ इक नया शिवाला इस देस में बना दें।।

दुनिया के तीरथों से ऊँचा हो अपना तीरथ।

दामाने-आस्माँ से इस का कलस मिला दें।।

हर सुबह उठके गायें मनतर वोह मीठे -मीठे।

सारे पुजारियों को मय प्रीत की पिला दें।।

शक्ति भी, शान्ति भी भक्तों के गीत में है।

धरती के वासियों को मुक्ती पिरीत में है।।

हर सुबह मिल के गायें मन्तर वो मीठे- मीठे।

सारे पुजारियों को मय प्रीत की पिला दें।।

शक्ति भी शान्ति भी भक्तों के गीत में है।

धरती के वासियों की मुक्ति पिरीत में है।।''

''आफ़ताबे सुबुह'' कविता में अपने विशाल–हृदय का परिचय देते हुए लिखा-

'' शौक़े-आज़ादी के दुनिया में न निकले होसले,

ज़िन्दगी भर क़ैदे ज़ंजीरे तअल्लुक में रहे।

जेरोबाला एक हैं तेरी निगाहों के लिए,

आरजू है कुछ इसी चश्मे तमाशा की मुझे।।''

'सर सैयदकी लोहे तुरबत' कविता में अमन की भीख माँगते हुए लिखा-

''वा न करना फ़िर्काबन्दीके लिए अपनी जबाँ,

छिपके है बैठा हुआ हंगामिए महशर यहाँ।

वस्लके सामान पैदा हों तेरी तहरीर से,

देख कोई दिल न दुख जाये तेरी तक़रीर से।।

महफ़िले-नौमै पुरानी दास्तानों को न छेड़।

रंग पर जो अब न आएँ उन फ़िसानों को न छेड़।।''

यह भी लिखा-

''दिखा वोह हुस्ने आलम सोज़, अपनी चश्मे पुरनम को।

जो तड़पाता है परवाने को, रुलवाता है शबनम को।।''

थोड़ा इधर भी गौर करें-

''यह दौर नुक्ताचीं है कहीं छुपके बैठ रह।

जिस दिल में तू मुकीं है वहीं छुपके बैठ रह।।''

इक़बाल की शायरी का दूसरा दौर 1905 से 1908 तक माना जाता है। इस दौरान वे विलायत में रहे और इस दौर में उन्होंने बहुत कम लिखा, इस दौर की कविताओं में फारसी का रंग हावी है। इसके बावजूद उर्दू के भी कई सुंदर प्रयोग मिलते हैं। देखें-

''भला निभेगी तेरी हमसे क्यों कर ऐवाइज़!

कि हम तो रस्मे मुहब्बत को आम करते हैं।।

मैं उनकी महफ़िले-इशरत से काँप जाता हूँ।

जो घर को फूँक के दुनिया में नाम करते हैं।।''

यह भी लिखा-

''गुज़र गया अब वोह दौर साकी, कि छुप के पीते थे पीने वाले।

बनेगा सारा जहान मयखाना, हर कोई बादहख़्वार होगा।

तुम्हारी तहज़ीब अपने ख़जर से आपकी खडुदकशी करेगी।

जो शाख़े नाज़ुकपै आशियाना बनेगा, नापाएदार होगा।

ख़ुदाके बन्दे तो हैं हज़ारों, वनोंमें फिरते हैं मारे-मारे।

मैं उसका बन्दा हनूँगा जिसको, ख़ुदा के बन्दों से प्यार होगा।''

इकबाल की कविता का तीसरा दौर 1908 में विलायत से लौटने से लेकर उनकी मृत्युपर्यन्त 1938 तक फैला हुआ है। इस दौर में इकबाल पूरी तरह साम्प्रदायिक रंग में रंगे नजर आते हैं। इस दौर की अधिकांश कविताएं मुस्लिम नजरिए के रंग में रंगी है। इस दौर के उनके दो प्रसिद्ध मुसद्दस हैं,  एक है, 'शिकवा' और दूसरा है 'जबाबेशिकवा'।  इन दोनों ने मुसलमानों और उर्दू शायरी में नए अध्याय की शुरुआत की। इन दोनों कविताओं में उन्होंने खुदा से अपने कष्टों और आंतरिक भावनाओं को बड़ी बेबाकी के साथ शेयर किया है। नमूना देखें-

'हो जाएँ खून लाखों लेकिन लहू न निकले।'

'जवाबे-शिकवा' में लिखा-

'' जिनको आता नहीं दुनिया में कोई फ़न तुम हो।

नहीं जिस क़ौम को परवाए-नशेमन तुम हो।।

बिज़लियाँ जिसमें हों आसूदा वोह खिरमन तुम हो

बेच खाते हैं जो इस लाफ़के मदफ़न तुम हो।''

जो लोग आए दिन खुदा को दुखों के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं उनके बारे में लिखा-

''शिकवा न बेशोकमका तकदीर का गिला है।

राज़ी हैं हम उसी में, जिसमें तेरी रज़ा है।।''

इक़बाल ने अंधविश्वास और अकर्मण्यताके खिलाफ भी लिखा है। इसके अलावा मनुष्य की जिजीविषा को केन्द्र में रखकर नए किस्म के आधुनिक नजरिए को रूपायित किया। इसमें दुनिया के प्रति व्यवहारिक नजरिया अपनाने पर जोर है। इक़बाल के ऊपर नीत्शे, बर्गसां, गोयथे, रुमी आदि का गहरा असर था। इसके अलावा मुस्लिम लीग से जुड़े रहे। यह भी सच है कि जिन्ना के मन में पाक का विचार पुख्ता करने में उनके जिन्ना को लिखे पत्रों की बड़ी भूमिका थी। मुस्लिम लीग के 1930 में अध्यक्ष बनने पर इकबाल ने मुसलमानों के लिए स्वतंत्र राष्ट्र की माँग रखी। इलाहाबाद में 1930 में मुस्लिम लीग के अधिवेशन में अध्यक्ष पद से बोलते हुएउन्होंने मुसलमानों के लिए अलग  देश कीमांग की।

अपने देश के बाशिंदों पर चोट करते हुए लिखा-

''इक वलवला-ए-ताज़ा दिया मैंने दिलों को

लाहौर से ता-ख़ाके-बुख़ारा-ओ-समरक़ंद

लेकिन मुझे पैदा किया उस देस में तूने

जिस देस के बन्दे हैं ग़ुलामी पे रज़ामंद।''

इक़बाल की 'राम' शीर्षक कविता का अंश देखें-

''लबरेज़ है शराबे-हक़ीक़त से जामे-हिन्द.

सब फ़ल्सफ़ी हैं खित्ता-ए-मग़रिब केरामे हिन्द।

ये हिन्दियों के फिक्रे-फ़लक उसकाहै असर,

रिफ़अत में आस्माँ से भी ऊँचा हैबामे-हिन्द।

इस देश में हुए हैं हज़ारों मलकसरिश्त,

मशहूर जिसके दम से है दुनिया में नामे-हिन्द

है राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज़,

अहले-नज़र समझते हैं उसको इमामे-हिन्द

एजाज़ इस चिराग़े-हिदायत,  का है यही

रोशन तिराज़ सहर ज़माने में शामे-हिन्द

तलवार का धनी था,  शुजाअत में फ़र्द था,

पाकीज़गी में,  जोशे-मुहब्बत में फ़र्द था।"

जगदीश्वर चतुर्वेदी

जगदीश्वर चतुर्वेदी । लेखक प्रगतिशील चिंतक, आलोचक व मीडिया क्रिटिक हैं। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष रहे चतुर्वेदी जी आजकल कोलकाता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं। वे हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।

 

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