राहुल जी के जीवन का अंतिम पड़ाव था मार्क्सवाद
The last stop for the life of Rahul Sankrityayan was Marxism
देवास (मध्य प्रदेश), 23 दिसम्बर, 2018.
प्रगतिशील लेखक संघ की देवास इकाई ने राहुल सांकृत्यायन के जन्म के 125वें वर्ष पर उन्हें याद करते हुए उनके जीवन और रचनाकर्म पर परिचर्चा आयोजित की। परिचर्चा का प्रारम्भ करते हुए इकाई संयोजक मेहरबान सिंह ने राहुल जी के जीवन और रचनाकर्म को महत्त्वपूर्ण बताते हुए सभी ानान्तरितों का स्वागत किया और कहा कि यह वर्ष कार्ल मार्क्स जैसे विश्व मनीषी का भी 200 वाँ जन्मवर्ष है अतः शीघ्र ही देवास इकाई एक कार्यक्रम मार्क्स और मार्क्सवाद पर भी आयोजित करेगी।
वरिष्ठ साहित्यकार प्रकाश कान्त ने कहा कि राहुल सांस्कृत्यायन की तिब्बत की यात्राएँ बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहीं जहाँ से वे बहुत सारी किताबें और मूल पांडुलिपियाँ भारत लेकर आए। अनेक बार तो उन्हें किताबें खच्चरों पर लादकर लानी पड़ीं। इनमे बौद्ध धर्म ग्रन्थ त्रिपिटक बहुत महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने अनेक किताबों का हिंदी में अनुवाद भी किया। राहुल सांस्कृत्यायन क़रीब 30 भाषाएँ जानते थे। उसके बावजूद उन्होंने अपना सारा लेखन हिंदी में ही किया और हिंदी के साहित्य को अपनी लिखी क़रीब 200 किताबों से समृद्ध किया। इतिहास, दर्शन, यात्रा साहित्य, जीवनियाँ, नाटक और लगभग हर विधा में उन्होंने लिखा। यात्रा वृतांतों के तो वे हिंदी में जनक कहे जा सकते हैं। इस सब के साथ ही उन्होंने अनेक जन आंदोलनों में अपनी भागीदारी दर्ज करवाई लेकिन किसान आंदोलन में उनकी सक्रियता उल्लेखनीय रही।
देवास प्रलेसं के साथी विक्रम सिंह ने बताया कि तिब्बत के अलावा वे चीन से भी याक पर लादकर किताबें एवं बौद्ध धर्मग्रन्थ लाने वाले राहुल जी पहले व्यक्ति रहे होंगे। अपने जीवनकाल में उन्होंने बौद्ध धर्मं और दर्शन की अनेक किताबों को पढ़ा और हिंदी में अनुवाद किया। फिर भी राहुल जी को हमारे देश में ही बहुत कम जाना जाता है।
इंदौर से आये प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय सचिव विनीत तिवारी ने कहा कि राहुल हिंदी के सर्वाधिक प्रसिद्ध लेखक होने के साथ ही नई पीढ़ी द्वारा सबसे कम पढ़े जाने वाले लेखक हैं। तीस से अधिक भाषाओँ के जानकार और एक सौ पचास से अधिक पुस्तकें लिखने वाले राहुल जी ने औपचारिक पढ़ाई सिर्फ आठवीं कक्षा तक ही की थी। वेद पढ़े, आर्य समाजी बने, फिर बुद्ध की ओर मुड़े और अंततः मार्क्सवाद में अपना बसेरा खोजा। ये बड़ी विडम्बना है कि राहुल सांकृत्यायन के विपुल लेखन को लोगों के बीच अधिक ले जाने के जितने प्रयास हमारी आजकल की सरकारें करती हैं, उससे अधिक प्रयास तो गैर सरकारी संगठनों ने किये हैं। रूस, श्रीलंका, नेपाल, तिब्बत में राहुल सांस्कृत्यायन का अकादमिक जगत में भी बड़ा नाम है। वहीं रूस में वे अकादमिक तौर पर याद किए जाते हैं। तिब्बत में भी उनका नाम बहुत सम्मान से लिया जाता है और कितनी बड़ी विडम्बना है कि हमारे देश के इतने मनीषी, विद्वान के बारे में इस तरह का कोई सम्मान हासिल नहीं। एक और दुःखद तथ्य यह है कि राहुल जी ने दर्शन पर भी बहुत काम किया, इतिहास, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, भाषा शास्त्र , मिथकों आदि पर उनका अनूठा और मौलिक काम होने के बाद भी न तो दर्शनशास्त्र वाले उन्हें अपना मानते हैं और न ही इतिहासविद और समाजशास्त्री उन्हें अपना समझते हैं। कुल मिलकर साहित्य की धारा ही उन्हें अपना मानती है लेकिन उसमें भी मानने के बाद राहुलजी जी को वाकई पढ़ने वाले बहुत ही कम हैं। उन्होंने राष्ट्रीय प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा कुछ महीनों पूर्व पटना में राहुल जी पर केंद्रित राष्ट्रीय कार्यकरण की जानकारी दी और कहा कि हर इकाई को राहुल जी प्रमुख पुस्तकों को आधार बनाकर यथासंभव अधिकाधिक कार्यक्रम करने चाहिए। दो-तीन साथी मिलकर "वोल्गा से गंगा" पढ़ें , फिर दो-तीन साथी "भागो नहीं दुनिया को बदलो" पढ़ें, "मध्य एशिया" पढ़ें, उनके लिखे उपन्यास और "मार्क्स", "लेनिन", "स्टालिन", "माओ", "अकबर" और "हो ची मिन्ह" की जीवनियाँ पढ़ें और उन पर परिचर्चाएँ व गोष्ठियाँ आयोजित करें। प्रलेस की ओर से सरकार से भी राहुल जी पर केंद्रित एक राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित करने और उनकी पुस्तकों को विभिन्न कक्षाओं के पाठ्यक्रम में शामिल करने हेतु माँग की जाएगी।
अपनी बात जारी रखते हुए विनीत ने कहा कि राहुल सांकृत्यायन का भाषा का सिद्धांत उन्हें पूरी तरह सही नहीं लगता। वे चाहते थे कि पूरे देश की केवल एक राष्ट्रीय और आधिकारिक भाषा हिंदी रहे। भाषा के प्रति यह आग्रह उनके एक अन्य तर्क के साथ जुड़ा था। उनका ख्याल था कि एक ही भाषा पूरे देश को जोड़कर रख सकती है और देश में एकजुटता की चेतना लाने के लिए ही वे देवनागरी को देश की लिपि को एकमात्र आधिकारिक राष्ट्रीय लिपि बनाना चाहते थे। लेकिन तमिल, तेलुगु, कन्नड़, उर्दू आदि इतनी विकसित भाषाएँ हो चुकी हैं कि इन भाषाओँ का इस्तेमाल करने वाले ऐसा कभी बर्दाश्त नहीं करते। और न ही किया गया। लेकिन ये भी एक दिलचस्प बात है कि वे बोलियों के प्रति बहुत उदार थे और बोलियों को प्रयोग में लाये जाने की भी सिफारिश करते थे। उनकी मान्यताओं से मतभेदों के बाद भी उनकी विद्व्ता और तार्किकता का आदर ही किया जा सकता है। एक राजनीतिक और ज़मीनी कार्यकर्ता के रूप में राहुल सांकृत्यायन ने स्वामी सहजानंद के साथ मिलकर बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी और किसान सभा की के काम को मजबूती दी।
इसी क्रम में उन्होंने इंदौर से साथ आये डॉ. अर्चिष्मान राजू का परिचय देवास इकाई के सदस्यों से करवाते हुए कहा कि एक ओर जहाँ मैंने यह दुःख व्यक्त किया कि नए लेखक और पाठक राहुल सांकृत्यायन को पढ़ नहीं रहे हैं वहीँ एक सुखद आश्चर्य यह भी है कि अर्चिष्मान राजू जो अमेरिका के कॉर्नेल विश्विद्यालय से भौतिकी में डॉक्टरेट हैं और वहाँ के अश्वेत आंदोलन के साथ जुड़े हैं, उन्होंने राहुल जी के विपुल साहित्य का एक छोटा हिस्सा पढ़ लिया है। उन्होंने करीब १० किताबें राहुल जी की पढ़ी हैं और वे और भी पढ़ रहे हैं। अर्चिष्मान ने बताया कि "वोल्गा से गंगा तक" उनकी बेजोड़ रचना है जिसमें रूस की वोल्गा से भारत की गंगा तक मतलब 6000 बीसी से सन 1942 तक मानव सभ्यता के इतिहास का विवरण है। उन्होंने यह भी कहा कि राहुल जी की घुमक्कड़ी छुट्टी मनाने और प्राकृतिक खूबसूरती देखने वाले सैलानियों से अलग थी। वे जिस जगह जाते थे वहाँ के जीवन के साथ जुड़कर, उनकी भाषा सीखकर, वहां के लोगों के सुख, दुःख का हिस्सा बनते थे। राहुल केवल विद्वान और साहित्यकार ही नहीं थे बल्कि विरोध के स्वर भी बुलन्द करते थे। वे लोगों से जुड़े संघर्षों का हिस्सा भी रहे। सन 1920 के बाद वे काँग्रेस और उसके किसान आंदोलन से जुड़े ही नहीं बल्कि बिहार के किसानों के साथ उनके अधिकारों एवं हकों को लेकर अंग्रेज सरकार के खिलाफ लड़ाई भी लड़ी जिसके फलस्वरूप अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें जेल में बंद कर दिया। जेल में बंद रहने के दौरान भी उन्होंने बहुत लिखा-पढ़ा। उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत और जमींदारों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। सन 1917 में रूसी क्रांति हुई तो रूस ने उन्हें खींच लिया। वे रूसी गए तो वहाँ उन्होंने रूसी सीख ली और रूसियों को बुद्ध दर्शन, पाली, संस्कृत और अन्य भाषाएँ पढ़ाईं। उन्होंने रूस की भी अनेक दुर्गम यात्राएं की। सन 1938 में वे कम्युनिस्ट पार्टी का हिस्सा बने और 1948 कम्युनिस्ट पार्टी के साथ भाषा के सवाल पर मतभेद होने की वजह से वे पार्टी से बाहर भी निकले गए लेकिन पार्टी के प्रति उनकी प्रतिबद्धता में कमी नहीं आई और कुछ वर्षों बाद उन्होंने पुनः पार्टी की सदस्य्ता ले ली। अर्चिष्मान ने उनकी पुस्तक "बाईसवीं सदी" को अत्यंत दिलचस्प बताते हुए कहा उन्होंने उक्त पुस्तक में कल्पना के सहारे एक वर्गविहीन वैश्विक समाज रचा है जहाँ मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण समाप्त हो चुका है ।
अर्चिष्मान ने कहा कि राहुल सांस्कृत्यायन के बारे में उन्हें अपने विद्यार्थी खासकर विद्यालयीन विद्यार्थी जीवन में राहुल सांकृत्यायन के बारे में या उनका लिखा कभी कुछ नहीं पढ़ाया गया। और विश्वविद्यालयों की वर्तमान शिक्षा प्रणाली भी विद्यार्थियों को किसी एक विषय में ही महारत हासिल करवाती है जिससे अन्य विषयों में हम बिल्कुल शून्य होते हैं। जबकि राहुल सांस्कृत्यायन ने एक ही विषय में महारथ हासिल नहीं की बल्कि उन्होंने अपने आपको किसी विषय की सीमाओं में बाँधकर। उन्होंने अनेक विषयों पर उम्दा और विचारणीय लेखन किया है।
अर्थशास्त्री एवं जोशी-अधिकारी इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस, दिल्ली से सम्बद्ध डॉ- जया मेहता ने कहा कि राहुल सांस्कृत्यायन को समझने के लिए तीन सवाल उठाए। पहला, राहुल सांस्कृत्यायन ने स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों को सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक सम्बन्धों की किस तरह व्याख्या की है? क्या लिखा है? दूसरा- बौद्ध धर्म से मार्क्सवाद अपनाने के पीछे क्या वजहें रहीं और राहुल सांस्कृत्यायन ने बौद्ध धर्म और मार्क्सवाद के बीच कैसा साम्य या समन्वय पाया? और तीसरा यह कि कम्युनिस्ट होने के नाते राहुल सांकृत्यायन ने स्वतंत्रता आंदोलन में ४० के दशक में क्या भूमिका निभाई जो आज़ादी की लड़ाई का बहुत ही उथल पुथल वाला दौर था? इन सवालों पर अन्य वक्ताओं ने अपने विचार रखे किन्तु साथ ही यह भी सोचा गया कि इन तीन सवालों को क्यों न अगली तीन परिचर्चाओं का विषय बनाया जाये।
शिक्षक प्रेमनारायण शर्मा ने कहा कि राहुल सांस्कृत्यायन का लेखन एशिया के भौगोलिक विस्तार, सांस्कृतिक समानताएँ और भिन्नताएँ तथा मनुष्य के इतिहास से परिचित करवाने का काम करता है। कैलाशनारायण शुक्ल ने बौद्ध धर्म से संबंधित आध्यात्मिक सवाल उठाए।
इस आयोजन में मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के सचिव मण्डल की साथी सारिका श्रीवास्तव भी इंदौर से शिरकत करने आए।
परिचर्चा में प्रभाकर शर्मा, बहादुर पटेल, दिनेश पटेल, ओम वर्मा, सुरेंद्रसिंह राजपूत, ज्योति देशमुख, अमेय कांत, श्रीकांत तेलंग, राधेश्याम पांचाल, भगवानदास मेहता, अजीज रोशन, दिनेश शर्मा, ओमप्रकाश मिश्रा, ओमप्रकाश वागड़े, पद्मा पंचोली, निहारिका देशमुख, छगनलाल परिहार, तिलकराज सेम आदि सक्रिय रूप से सहभागी हुए। आभार घनश्याम जोशी ने माना।
(लेखिका मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ की सचिव मण्डल सदस्य हैं।)
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