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पूर्वी बंगाल के हिंदू शरणार्थियों से बांग्लादेश की आजादी की कीमत वसूल रहा संघ परिवार

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हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है और वामपंथी अंबेडकर की एक बार फिर हत्या करना चाहते हैं!

पाकिस्तान के हिस्से में जो बांग्लाभाषी भूगोल काटकर फेंक दिया गया दिल्ली में सत्ता हस्तांतरण के बाद पंजाब के विभाजन (Partition of punjab) के साथ-साथ, सबसे मिलिटेंट दो कौमों की सत्ता हासिल करने की संभावना को सिरे से काटकर, वह हिस्सा पाकिस्तान में बहुत दिनों तक नहीं रहा।

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गौरतलब है कि भारत के हिस्से में आये टुकड़ा-टुकड़ा बंगाली भूगोल ने फिलवक्त तक अलग देश की मांग उठायी नहीं है। जबकि गैरनस्ली इन बंगालियों को भारत की सरकार और राजनीति बाकायदा भारत का नागरिक भी मानने से इंकार करते हुये उनके थोक देश निकाले के इंतजाम में लगी हुई हैं।

गौरतलब है कि बांग्ला राष्ट्रीयता के झंडे तले इस्लामी राष्ट्रवाद (Islamic Nationalism) को खारिज करते हुये उस बांग्ला भूगोल ने भारतीय सेना और भारत सरकार की मदद से आजादी हासिल कर ली 1971 में।

अभूतपूर्व खून खराबा बलात्कार के दस दिगंतव्यापी उत्सव के मध्य मातृभाषा के नाम दी गयी लाखों शहादतों का नाम है बांग्लादेश, जो अब भी आस पड़ोस में भारत का एकमात्र मित्र-देश है।

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जहाँ की सरकार भारत मित्र है, विपक्ष का उस पर यह महाभियोग है। इसी के केंद्रित चल रही है वहाँ तख्तापलट की तमाम साजिशें, जो भारत को मालूम है।

उनको आजादी मिल गयी लेकिन उनकी आजादी की कीमत पर भारत विभाजन के शिकार पूर्वी बंगाल के शरणार्थियों से वसूल कर रहा है संघ परिवार।

वे हिंदू शरणार्थी, जो नोआखाली दंगों के अविराम हादसों के कारण राष्ट्रनेताओं को उनको भारत में कभी भी कैसे भी चले आने के खुले आह्वान के बाद 1947 के बाद भारत चले आये। भारत विभाजन के शिकार पूर्वी बंगाल के उन शरणार्थियों से वसूल कर रहा है संघ परिवार।

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भारत सरकार की ओर से देशभर के जंगलों, आदिवासी इलाकों में, दंडकारण्य और अंडमान द्वीपसमूह में भी पुनर्वास कालोनियों में बसाये भारत विभाजन के बलि उन पूर्वी बंगाल के हिंदू शरणार्थियों को बांग्लादेश की आजादी की कीमत चुकानी पड़ रही है।

पीढ़ियों से भारत में रहने वाले जन्मजात ये भारतीय नागरिक हिंदुत्व के स्वयंभू झंडेवरदार संघ परिवार के निशाने पर हैं।

संघ परिवार की सरकार ने 2003 में 1955 के नागरिकता अधिनियम में संशोधन करके प्रवासी भारतीयों को दोहरी नागरिकता का खुल्ला खजाना देने के बहाने हमें भारत की नागरिकता से बेदखल कर दिया।

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तब बंगाल के सत्ता तबके की राजनीति की सर्वदलीय सहमति से वह कानून अभी संसद में पेश हुआ भी नहीं था और पृथक् उत्तराखंड राज्य बनने के बाद वहाँ सत्ता पर काबिज उत्तराखंड की पहली भाजपाई सरकार ने वहाँ 1950 से बसे पुनर्वासित बंगाली हिंदू शरणार्थियों को भारतीय नागरिक बनने से इंकार कर दिया गया। स्थाई निवासी प्रमाणपत्र में जो नागरिकता का कालम था, उसमें लिख दिया गया कि भारतीय नागरिक नहीं है।

गौरतलब है कि इसके खिलाफ बंगाली शरणार्थियों के हक में उत्तराखंड में जबर्दस्त आंदोलन सभी समुदायों और गैरभाजपा राजनीति ने किया तो स्थाई निवास प्रमाणपत्र का वह विवादास्पद कालम ही हटा दिया गया लेकिन बंगालियों की नागरिकता का मामला लंबित है। जिसे इस बार संघ परिवार सत्ता में आकर निपटायेगी यकीनन।

इसीलिए बजरंगी ब्रिगेड के कारिंदे रोज-रोज दिनेशपुर में मेरे पिता पुलिन बाबू की मूर्ति तोड़ने की कोशिशें कर रहे हैं, ताकि बंगाली इलाकों से बंगालियों को बेदखल किया जा सके।

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तभी से उत्तर प्रदेश के हर जिले में बसे बंगाली शरणार्थियों को मूलनिवासी सर्टिफिकेट दिया नहीं जा रहा है और उनको नौकरी-चाकरी मिल नहीं रही है।

तभी से ओड़ीशा में लगातार वहाँ हर जिले में बसाये गये बंगाली हिंदू शरणार्थियों को देश निकाला का हुक्म फतवा जारी हुआ है क्योंकि उनको जिस जमीन पर बसायी गयी है वे आदिवासी इलाकों में हैं।

और उस बेशकीमती जमीन से आदिवासियों की तरह शरणार्थियों को जल जमीन जंगल से बेदखल किये बिना मुकम्मल कारपोरेट राज कायम हो नहीं सकता। अबाध पूंजी के लिए प्रकृति और पर्यावरण के महाविध्वंस का महोत्सव हो नहीं सकता।

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तब कोई डॉ. मनमोहन सिंह राज्यसभा में विपक्ष के नेता थे जिन्होंने एकमात्र आवाज उठायी थी कि पूर्वी बंगाल के शरणार्थियों को भारत की नागरिकता देनी होगी।

किसी बंगाली राजनीतिक नेता ने नहीं, जिनने भाजपाइयों को उनके कारपोरेट केसरिया एजेंडा को अंजाम देने में शुरु से लेकर अब तक पूरी मदद देने का पुण्यकर्म किया है।

गौरतलब है कि जिस संसदीय समिति ने बिना किसी जनसुनवाई इस जनविरोधी विधेयक को संसद में पेश करने की अनुमति दी, उसके चेयरमैन तब कांग्रेस के बड़े नेता और अब माननीय महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी थे।

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वह कानून संविधान के फ्रेम वर्क से बाहर मानवाधिकार और अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन करते हुये, पुराने बिन बदले संवैधानिक प्रावधानों, राष्ट्र नेताओं के वायदों का, भारत सरकार के अपने ही फैसलों का निर्मम उल्लंघन करते हुये संघ परिवार के कारपोरेट केसरिया एजेंडा के तहत पूर्वी बंगाल के शरणार्थियों की नागरिकता के मसले को सुलझाये बिना, बिना बहस पास हो गया।

फिर इस नागरिकता संशोधन के खिलाफ में खड़े होने वाले डा. मनमोहन सिंह भारत प्रधानमंत्री रहे, जो संजोग से खुद शरणार्थी हैं और भारत विभाजन के शिकार भी।

उनने भी 2005 साल के संशोधन के जरिये संघी प्रावधानों को ही मजबूत किया।

मजे की बात तो यह है कि नागरिकता संशोधन के जरिये पूर्वी बंगाल के शरणार्थियों को नागरिकता से बेदखल करने की मुहिम के पितृपुरुष वही लौह पुरुष हैं जो बाबरी विध्वंस आंदोलन के सर्वेसर्वा लालकृष्ण आडवानी जी हैं और जो सिंध से आने वाले खुद भारत विभाजन के शिकार हिंदू शरणार्थी हैं।

गौरतलब है कि जो नमो महाराज के ग्लोबल उत्थान और कारपोरेट बंदोबस्त के हिसाब से अनफिट होने की वजह से पुरातन अटल ब्रिगेड के साथ सुधारों के ही इंताजामत के ग्लोबल हिंदुत्व के जायनी इंतजाम के तहत प्रधानमंत्री बनते बनते रह गये।

हमें उनकी व्यथा कथा से पूरी सहानुभूति है। जैसे उनने बाकी देश के साथ किया, उससे बड़ा अन्याय हालांकि संघियों ने उनके साथ अभी तक नहीं किया है।

खास बात यही है कि पूर्वी बंगाल के हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता की माँग (demand for citizenship to Hindu refugees from East Bengal,) संसद में उठाने वाले एकमात्र शरणार्थी सांसद, उन डा. मनमोहन सिंह ने लालकृष्ण आडवाणी के नक्शे-कदम पर चलते हुये 2005 में फिर नागरिकता संशोधन कानून पास किया और उसमें भी उनने अपनी ही पुरानी मांग पर कतई गौर नहीं किया। संघी नक्शेकदम पर चले वे।

और उनके जनसंहारी राजकाज के सुधार अश्वमेध के दौरान माननीय प्रणवमुखर्जी की अगुवाई में देश भर में बंगाली शरणार्थियों को ही नहीं, बल्कि बंगाल से बाहर बसने वाले और रोजगार के लिए बंगाल से बाहर जाने वाले पश्चिम बंगाल निवासियों को भी बांग्ला में बोलते ही बांग्लादेशी करार देकर सीमापार डिपोर्ट करने का अभियान जोर-शोर से चला। चल रहा है। चलता रहेगा।

जैसे भारत में बंगाल के बाहर बांग्ला में बोलना अपराधकर्म हो, राष्ट्रद्रोह हो।

अब सत्ता हस्तांतरण के बाद वह सिलसिला मोदी के चुनावी वायदों में हिंदुओं को नागरिकता देने के ख्याली पुलाव के बावजूद तेज हो गया है।

पलाश विश्वास

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हिंदुत्व के फरेब का असली चेहरा बेपर्दा हो रहा

पलाश विश्वास । लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना। पलाश जी हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।

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