काली रात की बस से उतरा रौशनी का छिटका,
सहर की चिल्ल पौं,
ट्रकों के हॉर्न की आवाज़ में भी बेसुध...बे खटका...
वो रोड के डिवाइडर पर औंधे मुँह पड़ा रहेगा...
और सैटेलाइट की सड़क कोर वाली झुग्गियों पर सूरज के चमकीले साये चढ़ जायेंगे
तो लक दक शहर के बदन पर यह कोढ़ के साये साफ़ नज़र आयेंगे...
ईसाइयों वाली पुलिया के..
सुथरी कालोनी..से ठीक पहले..
काली पन्नी वाले घरों में फैले...
कूड़े के ढेर से बीनें प्लास्टिक के बोरों से सटी चारपाई पर सुबह...
फिर चढ़ बैठेगी..
और रोज़ की तरह सपाट शक्ल वाले चेहरों पर ऐंठेगी...
लानतें फेरेगी धिक्कारेगी..तो..
चीथड़े में लिपटी बुढ़िया..
गुदड़ी से निकल..
सड़क के बिजबिजाते नाले पर..
बिछी चारपाई पर बैठ..
खुड़खुड़ायेगी...
सिल्वर के भगोने भरे...
चुल्लू भर पानी में..
चूल्हे की मिट्टी से...
चार कटोरे..
दो कप..
रगड़ती इक जवान औरत नज़र आयेगी...
ना सुर्खी ना बिंदी..
ना काजल ना लाली..
बस रंज पुता इक चेहरा....
दो आँख ख़ाली ख़ाली...
कंगाली से खटते दो हाथ...
आँखों में गिद्द लिये..
मैली फटी फ़्रॉक..
यही कोई सात बरस की...
इक मासूम लड़की...
कोठरी का काला कुआँ...
चूल्हे की लकड़ी से उठता स्याह धुआँ..
आँख मसलती..
कुछ कुछ नींद में चलती...
चूल्हे पर चाय चढ़ाती...
तुम्हें भी..मिल जायेगी...
नाड़े से खूँटी बंधी इक बकरी...
निवाले की हसरत में पैरों में मुँह दिये इक सड़काऊ कुत्ता..
और कोठरी के कोने में फटी बनियान..
कमर की टेढ़ी कमान...
चेहरे पर सैकड़ों लकीर झुकी कमर वाला...
बूढ़ा फ़क़ीर..
दो चार मुड़े तुड़े नोट...
और चंद सिक्कों के हिसाब को..
उँगलियों के पोरों पर चढ़ाते-चढ़ाते बार-बार फिसल जाता है....
मैं सच में नहीं जानती...
मेरे शहर की....
तरक़्क़ी का यह मंज़र...
किसके हिस्से में आता है
डॉ. कविता अरोरा